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बीजेपी को नसीहत नहीं, चुनावी नतीजों को राम पर लाना चाहता है आरएसएस

बीजेपी को नसीहत नहीं, चुनावी नतीजों को राम पर लाना चाहता है आरएसएस

मोहन भागवत से लेकर इंद्रेश कुमार तक चुनाव नतीजों को अहंकार से क्यों जोड़ रहे हैं? क्या संघ बीजेपी के ख़िलाफ़ हो गया है या फिर संघ की कुछ और ही ‘चाल’ है? अयोध्या के प्रयोग को आने वाले चुनावों में दोहराया जाएगा। लोकतंत्र में यही वोट की ताकत है। इस ताकत के एहसास को खत्म करने के लिए ही आरएसएस जीत हार को राम के दायरे में समेटना चाहता है।

लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत नहीं मिला लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार बनाने में कामयाब हो गए। चुनाव नतीजों के बाद आरएसएस लगातार नरेंद्र मोदी पर प्रहार कर रहा है। भाजपा की हार को आरएसएस नरेंद्र मोदी के अहंकार की पराजय बता रहा है। मोहन भागवत से लेकर इंद्रेश कुमार तक चुनाव नतीजे को मोदी के अहंकार और राम के न्याय के रूप में दर्ज कर रहे हैं। आरएसएस द्वारा की जा रही बयानबाजी क्या नरेंद्र मोदी के खिलाफ है? इन बयानों को आरएसएस और नरेंद्र मोदी के बीच बढ़ती दूरियों के रूप में भी देखा जा रहा है। कुछ विश्लेषक इसे भाजपा के विभाजन का संकेत भी मान रहे हैं। मोदी और योगी के बीच बढ़ती दूरियों और पसरी खामोशी को भी इस बयानबाजी के संदर्भ में देखा जा रहा है। कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं, आरएसएस योगी को आगे करके मोदी-शाह यानी गुजरात लॉबी को निपटाने के मूड में है! क्या इस बात को स्वीकार किया जा सकता है? आरएसएस जो कह रहा है, क्या उसका अर्थ वही है या कुछ और?

गौरतलब है कि आरएसएस जो कहता है, करता उससे एकदम उलट है। आरएसएस के बारे में यह भी कहा जाता है कि उसके कई मुख हैं। मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार के बयानों की इसी संदर्भ में पड़ताल की जानी चाहिए। दरअसल, आरएसएस मोदी की हार को तवज्जो दे रहा है, इंडिया गठबंधन की जीत को नहीं। इंडिया गठबंधन ने इस चुनाव में निहत्थे होकर भी विभिन्न शक्तियों से लैस भाजपा का बहुत मजबूती से मुकाबला किया। नरेंद्र मोदी के पास कॉरपोरेट मीडिया, अथाह पूंजी, ईडी-सीबीआई जैसी कुख्यात एजेंसियां लगातार विपक्ष के किसी भी नैरेटिव को ध्वस्त करने में लगी हुई थीं। लेकिन एक बड़ा मुद्दा विपक्ष के हाथ लगा या यूं कहें कि खुद नरेंद्र मोदी ने थाली में परोस कर विपक्ष को दे दिया। संविधान बदलने का ऐलान करना नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए नासूर बन गया। 

राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, शरद पवार, तेजस्वी यादव, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे जैसे तमाम विपक्षी नेताओं ने संविधान और डॉ. आंबेडकर का अपने भाषणों में बार-बार ज़िक्र किया। संविधान और लोकतंत्र पर ख़तरा इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। राहुल गांधी ने इसे सबसे पैनी धार दी। हाथ में संविधान लेकर राहुल गांधी हर सभा में दलित, आदिवासी, पिछड़ों के आरक्षण, प्रतिनिधित्व, जाति जनगणना, जमीन के अधिकार और सम्मान की बात करते। इस मुद्दे ने नरेंद्र मोदी के पूरे प्रचार तंत्र की हवा निकाल दी। हालत यह हो गई कि नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा कि अगर डॉ. आंबेडकर भी आ जाएं तो वह भी संविधान नहीं बदल सकते। सामाजिक न्याय और आरक्षण का मुद्दा इतना कारगर साबित हो रहा था कि नरेंद्र मोदी ने आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए रात-दिन हिंदू-मुसलमान करना शुरू कर दिया। 

आर्थिक सर्वेक्षण की बात को नरेंद्र मोदी ने हिंदू महिलाओं के मंगलसूत्र से जोड़ दिया। इसके बाद तो नरेंद्र मोदी इतना नीचे गिर गए कि उन्होंने डराने की सारी सीमा ही पार कर दी। बोले- कांग्रेस की सरकार आई तो ये लोग आपकी भैंस छीन लेंगे। यह अनायास नहीं था और ना ही मानसिक विकृति का कोई लक्षण। यह कुटिल राजनीति थी। मंगलसूत्र और भैंस का डर जाहिर तौर पर गरीब खेतिहर समाज के लिए था। यह समाज कौन है? दलित, पिछड़ा और आदिवासी। इसके बाद नरेंद्र मोदी ने आरक्षण के मुद्दे को भी सांप्रदायिक रंग देते हुए कहा कि इंडिया गठबंधन के लोग दलित, आदिवासी और पिछड़ों का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को देना चाहते हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं होने देंगे। यहां एक सवाल पूछा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को उस समय बाबा साहब आंबेडकर और संविधान की चिंता क्यों नहीं हुई, जब उन्होंने 2019 के चुनाव से ठीक पहले ईडब्ल्यूएस आरक्षण यानी आर्थिक आधार पर असंवैधानिक आरक्षण लागू किया था। इसमें मुसलमानों का सवर्ण तबका भी लाभार्थी है।

बहरहाल, ताबड़तोड़ 80 टीवी चैनलों को तूफानी गति से इंटरव्यू देने वाले नरेंद्र मोदी इंडिया गठबंधन के संविधान और सामाजिक न्याय के मुद्दे को बदलने की लगातार कोशिश में लगे रहे। लेकिन नतीजों में इन मुद्दों का सीधा असर दिखाई दिया। भाजपा 240 सीटों पर सिमट गई और कांग्रेस पार्टी की सीटों की संख्या लगभग दोगुनी होकर 99 तक पहुंच गई। यूपी में कांग्रेस और सपा ने बीजेपी के मंसूबों पर पानी फेर दिया। राजस्थान के दलित, आदिवासी बहुल इलाकों में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। 

इंडिया गठबंधन भले ही सरकार बनाने में कामयाब नहीं हुआ हो लेकिन उसके एजेंडे की जीत हुई है। सामाजिक न्याय और संविधान बचाने के मुद्दे की जीत बीजेपी की ही नहीं बल्कि आरएसएस की सबसे बड़ी हार है।

मनुस्मृति के आधार पर नया संविधान लिखने और लागू करने की आरएसएस की बुनियादी हसरत चूर-चूर हो गई। बीजेपी की पराजय आरएसएस को पच नहीं रही है। इसलिए इंडिया गठबंधन के नैरेटिव को किनारे लगाने के लिए संघ बार-बार इस पराजय को मोदी के अहंकार की हार बता रहा है।

यह चुनाव जितना नरेंद्र मोदी के लिए महत्वपूर्ण था, उससे कहीं ज्यादा आरएसएस के लिए खास था। अपनी स्थापना के सौवें वर्ष में होने वाले चुनाव को आरएसएस किसी भी कीमत पर जीतना चाहता था। जो लोग यह कह रहे हैं कि बीजेपी के चुनाव प्रचार से संघ ने हाथ खींच लिए थे या आरएसएस ने नरेंद्र मोदी का सहयोग नहीं किया, वे या तो बेवकूफ हैं या बदमाश। चुनावी नतीजों के बाद आरएसएस का यह स्यापा एक सोची समझी रणनीति है। आरएसएस विचारकों के बयानों की क्रोनोलॉजी को समझने की ज़रूरत है। पहले मोहन भागवत का बयान आता है जिसमें उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर मोदी के अहंकार को भाजपा की हार का कारण माना। इसके बाद इंद्रेश कुमार ने इसे दूसरा रंग दे दिया। 

इंद्रेश कुमार ने कहा कि राम भक्तों को अपने ऊपर अहंकार हो गया था। इसलिए राम ने उन्हें 240 पर रोक दिया और जो राम विरोधी थे, उन्हें 234 सीटों पर समेट दिया। राम ने दोनों पार्टियों के साथ न्याय किया है। जरा इंद्रेश कुमार के बयान की मीमांसा कीजिए। क्या भारत धर्मतंत्र है? चुनावी नतीजों को राम भक्त और राम विरोधी के दायरे में समेटना एक साजिश है। मतदाता के वोट को मूल्यहीन बनाने की एक खतरनाक कला है। भारत में चुनाव जीतने और सरकार बनाने का काम राम कर रहे हैं! यह बयान लोकतंत्र और संविधान विरोधी ही नहीं बल्कि नागरिकों के अधिकारों की धज्जियां उड़ाने वाला है। यह सीधे तौर पर बाबासाहब आंबेडकर की तौहीन है।

आरएसएस चुनावी नतीजों को राम पर लाना चाहता है। जबकि भाजपा फैजाबाद (अयोध्या) में भी चुनाव हार गई। अयोध्या में सामाजिक और आर्थिक न्याय की जीत हुई है। कॉरपोरेटपरस्त हिंदुत्व की हार हुई है। सामान्य सीट पर एक दलित की जीत सामान्य बात नहीं है। ये चाहत बाबासाहब आंबेडकर और कांशीराम जी की थी। अभी तो ये शुरुआत है। सामाजिक समीकरण भी इसके पक्ष में जाते हैं। सैकड़ों ऐसी सामान्य सीटें हैं, जहाँ दलित प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारकर जीत हासिल की जा सकती है। जाहिर तौर पर अयोध्या के प्रयोग को आने वाले चुनावों में दोहराया जाएगा। लोकतंत्र में यही वोट की ताकत है। इस ताकत के एहसास को खत्म करने के लिए ही आरएसएस जीत हार को राम के दायरे में समेटना चाहता है।

(लेखक दलित चिंतक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं। ये लेखक के अपने विचार हैं)

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