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संविधान बचाने का सबक़ दलित समाज ने पूरे देश को दिया!

संविधान बचाने का सबक़ दलित समाज ने पूरे देश को दिया!

उत्तर प्रदेश की 80 और महाराष्ट्र की 48 यानी कुल मिलाकर 128 सीटों में से भाजपा केवल 50 सीटें जीत सकी। इन प्रदेशों में भाजपा 40 फ़ीसदी सीटें भी जीतने में कामयाब नहीं हुई। जानें वजह।

2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत से रोकने में दो राज्यों की सबसे बड़ी भूमिका रही। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र देश के सबसे बड़े राज्य हैं। दोनों ही राज्य हिंदुत्व की प्रयोगशाला माने जाते हैं। दोनों राज्यों में लंबे समय से भाजपा सत्ता में है। इन राज्यों में भाजपा का अनेक छोटे-बड़े सहयोगी दलों के साथ गठबंधन भी है। महाराष्ट्र में भाजपा एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी के साथ गठबंधन सरकार में है। जून 2022 में उद्धव ठाकरे की महा विकास अघाड़ी की सरकार को गिराकर भाजपा ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में सरकार बनाई। उद्धव ठाकरे से बगावत करके एकनाथ शिंदे ने शिवसेना पर कब्जा कर लिया। ठीक इसी तरह भतीजे अजित पवार ने दो तिहाई से ज्यादा विधायक तोड़कर चाचा शरद पवार की एनसीपी पर कब्जा कर लिया। जाहिर तौर पर यह तोड़फोड़ केंद्र की मोदी सरकार के इशारे पर हुई थी। महाराष्ट्र में महायुति सरकार बनाने के पीछे असली मकसद लोकसभा चुनाव था। लेकिन महाराष्ट्र की 48 सीटों में से केवल 17 पर महायुति गठबंधन जीत सका। इसमें 9 पर भाजपा, 7 पर  शिवसेना और 1 पर एनसीपी ने जीत हासिल की। इसके बरक्स उद्धव ठाकरे की शिवसेना, शरद पवार की एनसीपी और कांग्रेस ने मिलकर 30 सीटों पर जीत हासिल की। आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस को सर्वाधिक 13, शिवसेना (यूबीटी) को 9 और एनसीपी (शरदचंद्र पवार) को 8 सीटें मिलीं। केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के ज़रिए पार्टियों को तोड़कर और तमाम सामाजिक समीकरण साधकर भी महाराष्ट्र में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा।

2014 में भाजपा की जीत में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी भूमिका थी। यूपी की 80 सीटों में से 71 सीटें जीतकर भाजपा ने पूरे देश में 282 सीटें हासिल की थीं। इसके बाद 2019 के चुनाव में सपा बसपा गठबंधन के सामने भी भाजपा ने 62 सीटें जीतकर 303 सीटों का बड़ा बहुमत हासिल किया। 2024 के चुनाव में सपा कांग्रेस गठबंधन के सामने भाजपा केवल 33 सीटों पर सिमट गई। उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार कई मायने में गौरतलब है। 

90 के दशक में उत्तर प्रदेश भाजपा के हिंदुत्व का केंद्र बना। भाजपा के उभार में राम मंदिर आंदोलन की बड़ी भूमिका रही है। बाबरी मस्जिद तोड़कर (6 दिसम्बर, 1992) भाजपा और संघ ने जिस राम मंदिर के लिए आंदोलन शुरू किया था, वह इस साल बनकर तैयार हो गया। 22 जनवरी को हुए उद्घाटन के समय पूरे देश को भगवा झंडों से पाट दिया गया। गोरखपुर मठ के महंत योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत हासिल की थी। योगी आदित्यनाथ की छवि उग्र हिंदुत्ववादी नेता की है। यूपी में क़ानून-व्यवस्था के नाम पर योगी सरकार ने मुसलमानों के घरों पर बुलडोजर चलाया। गुंडे ख़त्म करने के नाम पर सैकड़ों छोटे-मोटे अपराधियों का एनकाउंटर कर दिया गया। इनमें भी ज़्यादातर मुस्लिम थे। ईद, मुहर्रम और बकरीद पर मुसलमानों को सख्त हिदायतें दी जाती हैं, जबकि हिंदू त्योहारों पर नौजवान हिंदुओं को धर्म की अफीम चटाकर मस्जिदों के सामने डीजे बजाने और समुदाय विशेष को अपमानित करने का पूरा मौका मिलता है। इनमें अधिकतर पिछड़े और दलित नौजवानों का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन जब यही नौजवान नौकरी मांगते हैं या समुचित आरक्षण लागू करने की मांग करते हैं तो उन्हें लाठियां मिलती हैं। इस व्यवस्था को गोदी मीडिया की भाषा में राम राज्य कहा जाता है।

उत्तर प्रदेश राम मंदिर आंदोलन की ही नहीं, बल्कि मान्यवर कांशीराम की बहुजन आंदोलन की भी जमीन है। सांप्रदायिक उग्रता और सामाजिक विभाजन के बावजूद भाजपा कभी नितांत हिंदुत्व के बलबूते चुनाव नहीं जीत सकी। भाजपा ने दलित पिछड़ा कार्ड खेला। गैर जाटव दलित और गैर यादव पिछड़ों में जाटवों और यादवों के खिलाफ नफरत पैदा करके भाजपा मजबूत जनाधार बनाने में कामयाब हुई। इसके बावजूद उसने समय-समय पर अनेक छोटे दलों के साथ गठबंधन किया। इस चुनाव में भी मोदी और योगी को अपशब्द कहने वाले ओमप्रकाश राजभर से भाजपा ने गठबंधन किया। राम का अपमान करने वाले संजय निषाद को साथ लिया। कांशीराम के साथी रहे सोनेलाल पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल के अपना दल के साथ भी भाजपा ने गठबंधन किया। इतने प्रयोग और आक्रामक प्रचार के बावजूद भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा।

सामाजिक समीकरण, कट्टर हिंदुत्व और पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद भाजपा को उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में क्यों पराजय मिली? दरअसल, विपक्षी इंडिया गठबंधन ने चुनाव प्रचार में संविधान और लोकतंत्र बचाने का मुद्दा जोर-जोर से उठाया। कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय, आरक्षण, समान प्रतिनिधित्व और सम्मान देने का वादा किया। नतीजे जाहिर करते हैं कि विपक्ष के इस एजेंडे का सबसे ज्यादा प्रभाव उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में हुआ। इन दो राज्यों ने भाजपा और मोदी के मंसूबों पर पानी फेर दिया। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र देश के सबसे बड़े सूबे हैं। करीब एक चौथाई सीटें इन राज्यों से आती हैं। उत्तर प्रदेश की 80 और महाराष्ट्र की 48 यानी कुल मिलाकर 128 सीटों में से भाजपा केवल 50 सीटें जीत सकी। इन प्रदेशों में भाजपा 40 फ़ीसदी सीटें भी जीतने में कामयाब नहीं हुई। 

नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत से रोकने में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की सबसे बड़ी भूमिका है।

18वीं लोकसभा का यह चुनाव क्यों बेहद खास रहा? आरएसएस की स्थापना के शताब्दी वर्ष में तीसरी बार जीत हासिल करने के लिए बेताब नरेंद्र मोदी ने पहले ही अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। पिछले दो साल से बार-बार संविधान बदलने की बात की जा रही थी। बाबा साहब आंबेडकर के संविधान को हटाकर नया संविधान लागू करने के लिए देश में माहौल तैयार किया जा रहा था। विदित है कि अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन का प्रावधान है। लेकिन 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि संविधान के मूलभूत ढांचे को नहीं बदला जा सकता। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वर्तमान राज्यसभा सांसद रंजन गोगोई और उपराष्ट्रपति जगदीप धनगढ़ ने संसद में मूलभूत ढांचे की वैधता पर पुनर्विचार करने की बात उठाई। जाहिर तौर पर यह सब मोदी सरकार के इशारे पर हो रहा था। इसी दरमियान 15 अगस्त 2023 को प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देवराय ने बाबा साहब द्वारा लिखित संविधान को औपनिवेशिक विरासत का प्रतीक बताते हुए नया संविधान लिखने की वकालत की। यह सिलसिला चुनावी ऐलान के बाद और आगे बढ़ा। 

अनंत कुमार हेगड़े से लेकर के ज्योति मिर्धा, लल्लू सिंह, अरुण गोविल और गिरिराज सिंह जैसे बड़बोले भाजपा नेताओं ने संविधान बदलने के लिए 400 सीटें जीतने का दावा किया। यह मुद्दा चुनाव में इतना भारी पड़ जाएगा, खुद मोदी ने कभी नहीं सोचा होगा। ग़ौरतलब है कि संविधान बदलने की बात कतई हवा में नहीं थी। आरएसएस के शताब्दी वर्ष में संघ के प्रचारक से प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी अपनी पितृ संस्था की हसरत को पूरा करने के इरादे से चुनाव मैदान में उतरे थे। लेकिन दो बड़े राज्यों ने उनके मनसूबों पर पानी ही नहीं फेर दिया बल्कि उनकी हैसियत भी बता दी।

इसको समझने की जरूरत है कि आखिर उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र ने मोदी के प्रचार की हवा क्यों निकाल दी? दरअसल, महाराष्ट्र बाबासाहेब आंबेडकर की कर्मभूमि है और उत्तर प्रदेश मान्यवर कांशीराम की बहुजन राजनीति की प्रयोगशाला। मोदी सरकार के आने के बाद आरएसएस के साए में हिंदुत्व की राजनीति लगातार परवान चढ़ रही है। हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने के लिए आंबेडकरवादी विचारधारा और बुद्धिस्ट संस्कृति के जरिए उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में लगातार जमीनी संघर्ष जारी है। दिवंगत होने के बाद बाबासाहब का जो काम छूट गया था, 2014 के बाद उसमें गति आई है। हिंदुत्व के आक्रमण की प्रतिक्रिया में हिंदू त्योहारों को त्यागकर दलितों ने बहुजन नायकों की जयंतियों को अपना त्यौहार बना लिया। तथागत बुद्ध, कबीर, रैदास, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और आंबेडकर दलितों के भगवान बन गए। संविधान उनकी सबसे पवित्र किताब बन गई। इसलिए जब भाजपा ने संविधान बदलने का ऐलान किया तो दलित समाज नरेंद्र मोदी और आरएसएस के खिलाफ लामबंद हो गया।

महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन की जीत बहुत मायने रखती है। इन राज्यों में दलित राजनीति की नुमाइंदगी होने के बावजूद दलितों ने इंडिया गठबंधन को वोट दिया। उत्तर प्रदेश  में बसपा सुप्रीमो चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। बसपा के पास एक मजबूत जनाधार है। लेकिन इस चुनाव में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी। दरअसल, इंडिया गठबंधन में शामिल होने की संभावनाओं को नकारते करते हुए जब मायावती ने अलग चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो 21.50  फीसदी दलित समाज बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस और सपा गठबंधन के साथ चला गया। बसपा का कोर वोटर जाटव समाज के शिक्षित और जागरूक तबके ने मायावती से मुंह मोड़ लिया। कोरी, पासी, धोबी, वाल्मीकि, सोनकर आदि जातियों का बड़ा हिस्सा इंडिया गठबंधन के साथ हो गया। नतीजे में इंडिया गठबंधन को 43 सीटों पर जीत हासिल हुई। जबकि बसपा किसी सीट पर दूसरे स्थान पर भी नहीं आ सकी। 2019 के लोकसभा चुनाव में 19.4 फीसदी वोट हासिल करने वाली बसपा का वोट घटकर 9.39 फीसदी यानी करीब आधा रह गया। 

इसी तरह महाराष्ट्र में बहुजन वंचित अघाड़ी की मौजूदगी के बावजूद दलित मतदाता कांग्रेस, उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की एनसीपी के साथ चला गया। महाराष्ट्र में 11 से 12 फीसदी दलित आबादी है। इसमें आधी आबादी महारों की है। बाबा साहब आंबेडकर भी महार थे। उनके आह्वान पर महारों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया। बुद्धिस्ट बने महार सुशिक्षित और संपन्न हैं। बाबा साहब के पोते प्रकाश आंबेडकर की बहुजन वंचित अघाड़ी मूल रूप से महारों का प्रतिनिधित्व करती है। हालाँकि रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के रामदास अठावले भी महार राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन वह आजकल भाजपा के साथ हैं। महारों के अतिरिक्त महाराष्ट्र में मांग, कोरी, खटीक, मातंग, ढेड़, चमार, ढोर, डोम, औलख और गोतराज आदि दलित जातियां हैं। आमतौर पर ये जातियां राजनीतिक रूप से महारों के प्रतिरोध में खड़ी होती हैं। लेकिन संविधान बदलने की मुनादी के कारण पूरा दलित समाज भाजपा को हराने के लिए इंडिया गठबंधन के साथ लामबंद हो गया। महारों ने इस चुनाव में प्रकाश आंबेडकर को भी छोड़ दिया। 38 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बहुजन वंचित अघाड़ी को केवल 15 लाख 67 हजार वोट मिले। अकोला और हिंगोली को छोड़कर शेष सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई। खुद प्रकाश आंबेडकर अकोला सीट पर तीसरे स्थान पर रहे।

बाबा साहब आंबेडकर के प्रति भावुक और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के दलितों ने भाजपा को हराने में बड़ी भूमिका अदा की। आंबेडकरवादी वैचारिक पृष्ठभूमि होने के कारण उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के दलितों ने एकजुट होकर भाजपा और आरएसएस के हिंदू राष्ट्र बनाने और संविधान बदलने के मंसूबों पर ताला लगा दिया और यह संकेत दे दिया है कि आने वाले वक़्त में भी जब इस तरह की हिमाकत होगी तो दलित समाज अपने निजी हितों को छोड़कर हिंदुत्ववादियों को रोकने के लिए अपने मताधिकार का ही प्रयोग नहीं करेगा, अगर ज़रूरत पड़ेगी तो सड़क पर संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहेगा। उनका इतिहास कैसा भी रहा हो लेकिन दलित समाज अपनी औलादों के मुस्तकबिल को हिंदुत्ववाद के नाम पर ब्राह्मणवाद की गुलामी में नहीं जाने देगा। उन्हें बाबा साहब का यह संदेश याद है कि लोकतांत्रिक तरीके से ही अन्याय और असमानता का समाधान ढूंढना होगा। संविधान और बाबा साहब ने मताधिकार दिया है। उसी के द्वारा संविधान बचाने की लड़ाई लड़ने और जीतने का सबक दलित समाज ने आज पूरे देश को दे दिया है।

(लेखक दलित चिंतक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं। ये लेखक के अपने विचार हैं)

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