यही समय है 'विनाश’ के कारख़ानों को नियंत्रित और सीमित करने का

09:09 am May 10, 2020 | अनिल जैन - सत्य हिन्दी

भोपाल गैस त्रासदी को विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के रूप में जाना जाता है। तात्कालिक तौर पर लगभग दो हज़ार और अब तक क़रीब 25 हज़ार लोगों की अकाल मृत्यु की ज़िम्मेदार वह त्रासदी आज भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खड़ी हुई है। इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कताविहीन या कि ग़ैर-ज़िम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना मारक हो सकता है, इसकी मिसाल मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 35 बरस पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देश के अलग-अलग हिस्सों में छोटे-बड़े स्तर पर अक्सर देखने को मिलती रहती है।

आंध्र प्रदेश में विशाखापट्टम, तमिलनाडु में कुड्डालोर, महाराष्ट्र में नासिक और छत्तीसगढ़ में रायगढ़। ये उन जगहों के नाम हैं जहाँ 7 मई को हुए अलग-अलग भीषण औद्योगिक हादसों में कई लोग हताहत हुए हैं।

विशाखापट्टम के आर.आर. वेंकटपुरम गाँव में एलजी पॉलिमर्स प्लांट से ज़हरीली गैस रिसने से अब तक कम से कम 13 लोगों की मौत हो चुकी है। क़रीब एक हज़ार लोग इस ज़हरीली गैस के रिसाव की चपेट में आए हैं, जिनमें से 300 लोगों को हालत गंभीर होने के चलते अस्पतालों में भर्ती कराया गया है। जिस कारख़ाने से गैस का रिसाव हुआ है उसके आसपास के तीन गाँवों को पुरी तरह खाली करा लिया गया है।

तमिलनाडु में कुड्डालोर ज़िले के नेवेली गाँव में लिग्नाइट कॉर्पोरेशन के प्लांट में एक बॉयलर में भीषण विस्फोट के बाद लगी आग में सात लोग बुरी तरह झुलस गए। आग लगने के बाद प्लांट के इलाक़े का आसमान धुएँ के बादलों से पट गया। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक पेपर कारख़ाने में गैस रिसने से सात लोगों को गंभीर रूप से बीमार होने पर अस्पताल में दाखिल कराया गया है। यह घटना कारख़ाने के टैंक की सफ़ाई करते वक़्त हुई। इसी तरह महाराष्ट्र में नासिक ज़िले के सातपुर में एक फ़ार्मास्युटिकल पैकेजिंग फ़ैक्ट्री में भीषण आग लगने से कोई जनहानि तो नहीं हुई लेकिन बड़े पैमाने पर आर्थिक नुक़सान होने का अनुमान है।

एक ही दिन में हुई ये चारों घटनाएँ तो मनुष्य विरोधी औद्योगिक विकास की महज़ ताज़ा बानगी भर हैं। भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारख़ाने से मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइट नामक ज़हरीली गैस के रिसाव से काफ़ी बड़े इलाक़े के वातावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा था, उसे दूर करना आज भी संभव नहीं हो सका है। नतीजतन, भोपाल और उसके आसपास के काफ़ी बड़े इलाक़े के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं। लेकिन इन लोगों की पीड़ा को औद्योगिक विकास के नशे में धुत्त सरकारों ने इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी याद नहीं रखा। 

जानलेवा मिक गैस के इस्तेमाल को अभी तक देश में प्रतिबंधित नहीं किया गया है और न ही ख़तरनाक रसायनों को नियंत्रित और सीमित करने की कोई ठोस नीति अब तक बन पाई है।

देश में स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन इंटरनेशनल हेल्थ रेग्युलेशन एट प्वाइंट ऑफ़ एंट्रीज़ इंडिया के मुताबिक़ देश में 25 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों के 301 ज़िलों में 1,861 प्रमुख ख़तरनाक रासायनिक औद्योगिक इकाइयाँ हैं। साथ ही असंगठित क्षेत्र में भी तीन हज़ार से ज़्यादा ख़तरनाक कारख़ाने मौजूद हैं, जिनका कोई विनियमन नहीं है। इन चिंताओं से हटकर सुस्त अर्थव्यवस्था में भी भारतीय रसायन उद्योग बेहद उत्साहित है। केंद्र सरकार भी अपनी मरणासन्न मेक इन इंडिया योजना में रसायन उद्योग के ज़रिए ही जान फूँकना चाहती है।

विनाशकारी परियोजनाएँ 

फलते-फूलते रसायन उद्योग के अलावा भी देश में विकास के नाम पर जगह-जगह अन्य विनाशकारी परियोजनाएँ जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगीकरण के नाम पर, कहीं बड़े बाँधों के रूप में और कहीं स्मार्ट सिटी के नाम पर। तथाकथित विकास की गतिविधियों के चलते बड़े पैमाने पर हो रहा लोगों का विस्थापन सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है। यह असंतोष कहीं-कहीं हिंसक प्रतिकार के रूप में भी सामने आ रहा है। 'किसी भी क़ीमत पर विकास’ की ज़िद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं, लेकिन न तो सरकारें सबक़ लेने को तैयार हैं और न ही समाज।

विदेशी निवेश के नाम पर तो सरकारों ने विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए समूचे देश को आखेटस्थली बना दिया है। यही नहीं, अब तो देश के बड़े कॉरपोरेट घरानों ने भी देश में कई जगह ऐसे कारख़ाने खोल दिए जहाँ मौत का सामान तैयार होता है और जिनका अवशिष्ट नदियों को और धुआँ वायुमंडल को ज़हरीला बनाता है। 

ऐसे कारख़ानों में पर्याप्त सुरक्षा उपाय न होने की वजह से वहाँ काम करने वाले श्रमिकों और उस इलाक़े के लोगों के सिर पर हर समय मौत नाचा करती है। उन कारख़ानों में कभी आग लगती है, कभी विस्फोट होता है तो कभी ज़हरीली गैस का रिसाव होता है।

इस तरह के कारख़ाने जब खोले जाते हैं तो सरकारें पहले से जानती हैं कि इनमें कभी भी कोई हादसा हो सकता है और लोगों की जानें जा सकती हैं, लेकिन इसके बावजूद वह इन कारख़ानों को स्थापित होने देती हैं। इसके लिए वह स्थानीय लोगों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल करने और उनकी खेती की ज़मीन छीनने में भी कोई संकोच नहीं करतीं। स्थानीय लोग और पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले संगठन जब इन कारख़ानों का विरोध करते हैं तो उन्हें विकास विरोधी, नक्सली और विदेशी एजेंट तक क़रार दे दिया जाता है। उनके विरोध के स्वर को बलपूर्वक दबा दिया जाता है और उन पर तरह-तरह के मुक़दमे लाद दिए जाते हैं। इस काम में कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया भी 'चीयर लीडर्स’ की भूमिका अपनाते हुए पूरी तरह सरकार और पुलिस का साथ देता है।

क्या सावधानियाँ बरती गईं

इस समय कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते सभी तरह की औद्योगिक गतिविधियाँ जो कई दिनों से ठप थीं, अब फिर से शुरू हो रही हैं। जानकारों का कहना है कि जब कोई औद्योगिक इकाई कुछ समय के लिए बंद की जाती है तो सुरक्षा के लिहाज़ से उसे बंद करने के पहले भी और उसे फिर शुरू करते वक़्त भी उसकी पूरी साफ़-सफ़ाई अनिवार्य रूप से करनी होती है। ऐसा नहीं करने पर दुर्घटनाएँ होना स्वाभाविक है। 

ज़ाहिर है कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में जो दुर्घटनाएँ हुई हैं, वे निर्धारित सुरक्षा व्यवस्था को पूरे किए बिना ही औद्योगिक इकाइयाँ बंद करने और अब डेढ़-दो महीने के अंतराल के बाद दोबारा शुरू होने के दौरान ही हुई हैं। 

अगर केंद्र सरकार ने लॉकडाउन पूरी तरह हटने पर ऐसे बड़े कारख़ानों के दोबारा शुरू होने से पहले वहाँ साफ़-सफ़ाई की प्रक्रिया का पालन करने के संबंध में उचित दिशा निर्देश जारी नहीं किए तो ऐसी और भी कई दुर्घटनाओं को टाला नहीं जा सकेगा।

पिछले क़रीब डेढ़ माह से जारी देशव्यापी लॉकडाउन के चलते औद्योगिक गतिविधियाँ पूरी तरह से बंद होने के कारण देश के पर्यावरण में काफ़ी सुधार आया है। कभी अलग-अलग इलाक़ों की जीवनरेखा मानी जाने वाली गंगा, यमुना, और नर्मदा जैसी नदियाँ लंबे समय से सर्वग्रासी औद्योगीकरण का शिकार हो कई जगह नाले में तब्दील हो गई थीं, इस समय काफ़ी स्वच्छ हो गई हैं। जो नदियाँ अंधाधुंध खनन के चलते सूख कर मैदान में तब्दील हो गई थीं, वे भी अब फिर से बहने लगी हैं। औद्योगिक गतिविधियाँ बंद रहने की वजह से वायु मंडल भी काफ़ी स्वच्छ हो गया है। कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी के चलते एक तरह से प्रकृति ने हमें संभलने का सबक़ और मौक़ा उपलब्ध कराया है। पर्यावरण में आए इस सकारात्मक बदलाव से सीख लेते हुए इसे स्थायी रूप से बनाए रखने के लिए सरकारों को अपनी उद्योग नीतियों पर पुनर्विचार करते हुए ज़हरीला धुआँ और रासायनिक अवशिष्ट उगलने वाली औद्योगिक इकाइयों को घनी आबादी वाले क्षेत्रों और नदियों के किनारों से हटाने के बारे में क़दम उठाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसी घटनाओं के रूप में भोपाल गैस कांड जैसे छोटे-बड़े हादसे देश को लगातार देखने को मिलेंगे।