मध्य-मार्च माह में कोरोना मुँह बाये निगलने को खड़ा था। लेकिन देश की संसद चार में से तीन विश्वविद्यालयों को संस्कृत विश्वविद्यालय बनाने को मंजूरी दे रही थी। शिक्षा मंत्री बता रहे थे कि ‘संस्कृत भाषा नहीं संस्कृति है जो हमें अपनी जड़ों तक पहुँचाती है’। कोरोना वायरस को शायद यह पता नहीं था। अगले चार दिन में प्रधानमंत्री ने जब ‘थाली-घंटा’ का अभिनव प्रयोग किया तो कुछ स्व-नियुक्त भारतीय ‘संस्कृति’ के पुरोधाओं को इल्हाम हुआ— ‘थाली-घंटे के डेसिबल (ध्वनि-तीव्रता) से वायरस भाग जाता है’। खैर, बेशर्म कोरोना नाफ़रमानी का मुज़ाहिरा करते हुए आज रोज़ाना 50,000 लोगों को रोगी बनाने लगा।
प्रधानमंत्री ने अबकी बार ‘आत्म-निर्भर भारत’ का नारा दिया। इसे परिभाषित करते हुए उन्होंने आगे बताया कि इसका मतलब उत्पादन, कौशल और विनिर्माण में किसी का मोहताज़ नहीं होना और साथ ही निर्यातोन्मुख उत्पादन में भी अग्रणी होना है। लेकिन अगले ही क्षण पता चला कि आत्म-निर्भरता के लिए शायद भव्य राम मंदिर का शिलान्यास इस संकट के काल में कराना ज़रूरी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बिगड़ती क़ानून व्यवस्था और बढ़ते महामारी-संकट को भूल व्यवस्था में लग गए। इस कार्यक्रम का दूरदर्शन टेलीकास्ट करेगा और दुनिया देखेगी भारत की सांस्कृतिक समृद्धि।
कोरोना तो, बकौल एक केन्द्रीय मंत्री, पापड़ खा कर ख़त्म किया जा सकता है। सोचिये, दुनिया के 715 करोड़ लोग, हज़ारों वैज्ञानिक, सैकड़ों संस्थान और 16 वैक्सीन पर चल रहे शोध के बाद भी इतनी साधारण सी बात विश्व विज्ञान को समझ में नहीं आयी कि पापड़ से कोरोना वायरस कैसे भागता है।
डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट की दो धाराएँ हैं। धारा 54 अफ़वाह फैलाने वाले को एक साल की सज़ा का प्रावधान करता है (और इस दफ़ा में कई पत्रकारों को कोरोना न रोक पाने वाले कलेक्टरों ने महज इस बात पर नोटिस जारी किया कि उन्होंने क्वॉरेंटीन सेंटरों की बदइंतज़ामी बतायी)। लेकिन धारा 73 के रूप में एक और प्रावधान है जो किसी भी सरकारी व्यक्ति या आपदा प्रबंधन में लगे किसी व्यक्ति को, अगर उसने ‘नेकनीयती’ से कोई काम किया या करने का इरादा रखता है, उसके किये के अपराध से मुक्त रखता है। मंत्री ‘नेकनीयती’ और विश्वास के साथ पापड़ खा कर कोरोना से मुक्ति का फ़ॉर्मूला देते हैं लिहाज़ा उनके विवेक पर भले ही प्रश्न किया जाए, कृतित्व पर नहीं।
रामदेव हालाँकि सरकारी व्यक्ति नहीं हैं लेकिन कोरोना पर रिसर्च कर ‘कोरोनिल’ वैक्सीन बनाते हैं तो वह भी इसी श्रेणी में आते हैं। देश में कुल 18 संस्कृत विश्वविद्यालय, थाली-घंटा ध्वनि, काढ़ा और कोरोनिल और फिर पापड़ से कोरोना का इलाज सोच के एक ख़ास पैटर्न हैं जो तर्क से ज़्यादा विश्वास से चलाये जाते हैं। “होइहैं सोई जो राम रची राखा” के भाव में। और अगर राम का मंदिर ही बनाना शुरू कर दिया गया तो राम की रचना से कोरोना तो ग़ायब हो ही जाएगा। पूरी मूर्ख दुनिया का विज्ञान लड़ने में अभी तक असफल रहा है। उसे एक केन्द्रीय मंत्री पापड़ खिलाकर काबू कर सकता है। तो गवर्नेंस की गुणवत्ता कैसी होगी इसे सहज समझा जा सकता है।
जहाँ देश के 935 विश्वविद्यालयों और सैकड़ों संस्थानों में से एक भी दुनिया के 170 विश्वविद्यालयों में नहीं है, (बल्कि पिछले साल के मुक़ाबले 14 विश्वविद्यालय रैंक में फिसल गए हैं) क्या भारत संस्कृत पढ़ कर टेक्नोलॉजी में अग्रणी हो जाएगा और चीन से मुक़ाबला करने लगेगा क्या आत्म-निर्भरता के लिए इस समय ज़रूरत हर ब्लॉक में एक पॉलीटेक्निक की नहीं है जहाँ युवा तकनीकी शिक्षा लें ताकि चीन से कम से कम पंखा, मोबाइल या लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ आना बंद हों और आईआईटी की शैक्षणिक गुणवत्ता ऐसी हो कि स्पेस और आयुध उत्पादन में फ़्रांस, रूस और अमेरिका का मुँह न ताकना पड़े लेकिन अगर देश की वैज्ञानिक सोच को कुंठित करना है ताकि उसके लोग सरकार की अक्षमता पर सवाल न करें तो सोच को एक ख़ास पैटर्न देना लाज़मी है। मंत्री का पापड़ से कोरोना इलाज़ इसी साज़िश का हिस्सा है।
सोचना प्रधानमंत्री को है कि वह किस क़िस्म की आत्म-निर्भरता चाहते हैं। पूरे जोश-खरोश से शुरू हुआ ‘स्किल इंडिया’ अभी तक असफल रहा, ‘मेक इन इंडिया’ एक क़दम भी नहीं बढ़ सका और अब ‘आत्म-निर्भर भारत’ मंत्रियों और उनके सिपहसालारों की कूपमंडूकता का शिकार बन गया।
आज का विज्ञान वैश्विक आयाम ले चुका है लिहाज़ा उसे भाषा या अपनी तथाकथित ‘प्राचीन जड़ों’ में बाँध कर अपना राजनीतिक एजेंडा पूरा कर सकते हैं लेकिन यह भारत को इतना पीछे कर देगा कि दौड़ में वापसी का चांस हीं नहीं रहेगा। संस्कृत और वैदिक ज्ञान में हम अपनी सांस्कृतिक जड़ें खोजें, यह गर्व का विषय है लेकिन चार में से तीन यूनिवर्सिटी इसके लिए बना कर सीमित संसाधन को अनुत्पादक न करें यह सोच कर कि इससे हमारी राजनीतिक दुकान चलेगी।
2 फ़रवरी, 1835 को तत्कालीन कलकत्ता में लॉर्ड मैकाले ने भारत में शिक्षा में सुधार के लिए नीति बनाने वाली बैठक में बताया कि अधिकांश युवाओं के पत्र मिले जिनमें यह शिकायत है कि ‘सरकार ने ज़िंदगी के 12 साल संस्कृत और उर्दू के ज्ञान दे कर हमें रोज़गार के लायक भी नहीं छोड़ा। कृपया ऐसी शिक्षा दें जिससे हमें रोज़गार मिले’।
शिक्षा के ज़रिये विचारधारा पर काबू
दक्षिणपंथी सोच को ग़लत नहीं कहा जा सकता क्योंकि यही सब कुछ आज़ादी के बाद से कांग्रेस और अन्य ग़ैर-भाजपा सरकारें भी करती रही हैं। आज़ादी के बाद से ही देश में शिक्षा का राजनीतिकरण होता रहा। वामपंथी सोच के लोग उन सभी इदारों पर बैठाये गए जहाँ से इतिहास, पाठ्यक्रम और शिक्षा की नीति निर्धारित होती है। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद वर्षों तक देश के शिक्षा-मंत्री रहे, हुमायूँ कबीर, मुहम्मद करीम छागला, फखरुद्दीन अली अहमद और नुरुल हसन भी लम्बे समय तक इस पद से नवाजे गए। वाम रुझान के वी के आर वी राव भी रहे। ज़ाहिर है बीजेपी के शासन काल में अगर संस्कृत को प्रोत्साहित किया जा रहा है तो यह शिक्षा का ‘रिवर्स पोलिटिसाईजेशन’ है। मुश्किल यह है कि दोनों स्थितियों में शिक्षा जमींदोज होती रही है और देश के युवा रोज़गार-परक शिक्षा से वंचित।
अगर संस्कृत के ज्ञान से भारतीय प्राचीन औषधि विज्ञान को समझा जा सकता है और प्रकृति से संश्लेषण का नया दृष्टिकोण मिल सकता है तो दुनिया के लिए यह प्रकाश-स्तम्भ बन सकता है। लेकिन तार्किक सोच पर अंकुश लगा कर यानी पापड़ से कोरोना का इलाज करवा कर हम देश की गत्यात्मक सोच को जड़वत करेंगे और तब कोई भाभा, जगदीश चन्द्र बोस पैदा नहीं होगा।
चिंता तब होती है जब मंत्री राजनीति के कारण नहीं बल्कि कुंठित सोच के कारण पापड़ खिला कर कोरोना ठीक करने लगता है। और तब देश का भविष्य ख़तरे में दिखाई देता है।