दो दिन पहले जाने-माने पत्रकार आशुतोष को किसी ने फ़ोन पर धमकी दी कि वह यदि उनको कहीं राह चलते मिल गए तो वह उन्हें जान से मार डालेगा। आशुतोष ने कल ‘सत्यहिंदी’ पर इसकी जानकारी दी (देखें वीडियो) और विस्तार से बताया कि ऐसी धमकियों के पीछे कौन लोग हैं, हालाँकि उन्होंने धमकी देने वाले उस व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया। उन्होंने कहा कि वह तो ‘एक मासूम इंसान’ है जो विरोध और आलोचना की आवाज़ को दबानेवाली शक्तियों के हाथ का औज़ार बन गया है। उनके अनुसार ये ताक़तें सरकार या एक ख़ास दल या विचारधारा के ख़िलाफ़ बोलने वाले हर महत्वपूर्ण पब्लिक फ़िगर को गद्दार या पाकिस्तानपरस्त घोषित करके उसके ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल तैयार कर रही हैं और उसी से प्रभावित होकर कुछ लोग आशुतोष या उनके जैसे लोगों को जान से मारने की धमकियाँ दे रहे हैं - बहुत संभव है कि वे उसपर अमल भी करना शुरू कर दें।
आशुतोष ने इस सिलसिले में गाँधीजी की हत्या और नाथूराम गोडसे का हवाला देते हुए सरदार पटेल की एक चिट्ठी का भी ज़िक्र किया जो उन्होंने गाँधीजी की हत्या के बाद गोलवलकर को लिखी थी। पटेल ने इस चिट्ठी में गोलवलकर को संघ के नेताओं के सांप्रदायिक भाषणों की याद दिलाते हुए कहा था कि गाँधीजी की हत्या ऐसे नफ़रत फैलाने वाले ज़हर की ही परिणति है।
बात सही है। हत्यारा हत्या के लिए जितना दोषी होता है, उसे हत्या पर उकसाने वाले उससे कहीं ज़्यादा दोषी होते हैं। और यह बात गाँधीजी से बेहतर और कौन समझ और समझा सकता है आइए, गाँधीजी की आत्मकथा से हम ऐसे ही एक प्रसंग के बारे में जानें जब उन्होंने स्वयं पर हमला करनेवाले लोगों को यह कहकर माफ़ कर दिया था कि दोषी ये नहीं, दोषी तो वे हैं जिन्होंने इनको भड़काया है।
बात 1896 की है। गाँधीजी उन दिनों दक्षिण अफ़्रीका से भारत आए हुए थे और वहाँ रह रहे भारतीयों की बुरी हालत के प्रति यहाँ के राजनीतिक नेताओं, संपादकों और जनता का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। इस सिलसिले में उन्होंने कुछ बड़े शहरों में भाषण भी दिए। ज़ाहिर है, ऐसे भाषणों में वे दक्षिण अफ़्रीका में रहनेवाले श्वेत लोगों की आलोचना भी करते थे। इसकी ख़बरें देश-विदेश के अख़बारों में भी छपीं और ऐसी ही एक छोटी-सी ख़बर रॉयटर्स के हवाले से दक्षिण अफ़्रीका भी पहुँच गई जिसमें गाँधीजी द्वारा की गई गोरों की आलोचना को बढ़ाचढ़ाकर लिखा गया था। दक्षिण अफ़्रीका के नेटल प्रांत की श्वेत आबादी यह ख़बर पढ़कर गाँधीजी के ख़ून की प्यासी हो गई थी।
गाँधीजी के ख़िलाफ़ नफ़रत
दक्षिण अफ़्रीका में अपने ख़िलाफ़ उबल रहे आक्रोश से अनभिज्ञ गाँधीजी दिसंबर 1896 में सपरिवार दक्षिण अफ़्रीका लौटे लेकिन उनको और उनके साथ आए बाक़ी लोगों को पाँच दिनों तक जहाज़ से उतरने नहीं दिया गया। डर्बन शहर के गोरों की माँग थी कि गाँधीजी सहित सभी लोग भारत लौट जाएँ। गाँधीजी इसके लिए तैयार नहीं थे। पाँच दिनों के बाद लोगों को जहाज़ से उतरने की अनुमति मिली। बाक़ी लोगों को तो कोई दिक़्क़त नहीं हुई लेकिन गाँधीजी के लिए अधिकारियों को डर था। इसलिए उनको सलाह दी गई कि वे शाम को चुपके से एक गाड़ी में बैठकर दो मील दूर ही रह रहे एक भारतीय रुस्तमजी के निवास पर चले जाएँ।
लेकिन गाँधीजी के एक परिचित श्वेत ऐडवोकेट लॉटन ने उनको समझाया कि इस तरह चोर की तरह छुपकर शहर में घुसना ग़लत है और यदि उनको कोई भय न हो तो उनके साथ पैदल चलें। गाँधीजी ने उनकी बात मान ली। उनका परिवार आगे गाड़ी में चला गया और वे दोनों पैदल ही निकल लिए। उसके बाद क्या हुआ, यह गाँधीजी के शब्दों में ही पढ़ें -
“जैसे ही हम उतरे, कुछ युवाओं ने मुझे पहचान लिया और चिल्लाए, ‘गाँधी, गाँधी।’ क़रीब आधा दर्जन लोग और वहाँ आ गए और वे भी चिल्लाने लगे। मिस्टर लॉटन घबराए कि कहीं भीड़ बढ़ नहीं जाए और उन्होंने एक रिक्शा बुला लिया। मैं रिक्शे में बैठने के पक्ष में कभी नहीं रहा। यह मेरा पहला अनुभव था। लेकिन वे युवा मुझे रिक्शे में बैठने ही नहीं दे रहे थे। उन्होंने रिक्शेवाले को ऐसा डराया कि वह वहाँ से भाग निकला। हम पैदल ही आगे बढ़े, लेकिन हर क़दम के साथ भीड़ भी बढ़ती चली गई और एक समय ऐसा आया कि हमारे लिए आगे जाना मुश्किल हो गया। ऐसे में उन्होंने पहले मि. लॉटन और मुझे एक-दूसरे से अलग किया और उसके बाद उन्होंने मुझपर पत्थर, ईंटें और अंडे फेंकने शुरू किए। किसी ने मेरी पगड़ी खींच ली जबकि दूसरे लोग मुझपर मुक्कों और लातों से प्रहार करने लगे। मुझपर बेहोशी छाने लगी और मैंने सहारे के लिए एक घर के सामने की रेलिंग पकड़ ली ताकि किसी तरह साँस ले सकूँ। लेकिन यह भी संभव नहीं था। वे फिर से मुझपर झपट पड़े और पीटना जारी रखा।”
इसी वक़्त संयोग से वहाँ शहर के पुलिस अधीक्षक की पत्नी गुज़र रही थीं जो गाँधीजी को जानती थीं। वे भीड़ और गाँधीजी के बीच इस तरह खड़ी हो गईं कि उनको चोट पहुँचाए बिना गाँधीजी को छुआ भी नहीं जा सकता था। अब शहर एसपी की पत्नी को हाथ लगाने की तो किसी को जुर्रत थी नहीं।
इसी बीच एक भारतीय युवक ने पुलिस को ख़बर कर दी थी और ख़ुद एसपी ने पुलिसवालों का एक दल भेजा जो उनको सुरक्षित थाने में ले आया।
भीड़ के हमले को लेकर एसपी ने कहा कि आप यहीं थाने में रह जाएँ लेकिन गाँधीजी तो गाँधीजी थे। बोले, ‘जब उनको अपनी ग़लती का एहसास हो जाएगा तब वे शांत हो जाएँगे। मुझे उनकी समझदारी पर विश्वास है।’
पुलिस की सुरक्षा में ही वे रुस्तमजी के घर पहुँचे। इसी बीच गोरे हमलावरों को पता चल गया कि गाँधीजी यहाँ पहुँच चुके हैं। उन्होंने घर को घेर लिया और हल्ला मचाने लगे - ‘गाँधी को हमारे हवाले करो।’
पुलिस अधीक्षक को लग रहा था कि हालात बेक़ाबू हो रहे हैं। उसने घर के अंदर संदेश पहुँचाया कि यदि आप अपने मित्र की घर-संपत्ति और अपने परिवार की सुरक्षा चाहते हैं तो भेस बदलकर यहाँ से निकल लें। गाँधीजी ने स्थिति की भयावहता को देखते हुए उसकी बात मानी और घायल अवस्था में ही एक भारतीय कॉन्स्टेबल का भेस बदलकर फिर से उसी थाने पहुँच गए जहाँ उनको पहले ही रहने की सलाह दी गई थी। उधर अधीक्षक ने भीड़ से कहा कि ‘आपका शिकार तो पड़ोस की एक दुकान के रास्ते रफ़ूचक्कर हो चुका है और मैं जानता हूँ कि आप रुस्तम जी की संपत्ति या गाँधी के परिजनों को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहेंगे। इसलिए अब आप घर जाइए।’ उसने कहा कि भरोसा न हो तो घर के अंदर तलाशी ले लो। दो लोग घर के अंदर गए और देखा कि गाँधीजी वहाँ नहीं थे। इसके बाद भीड़ छँट गई।
जब मुक़दमा करने से कर दिया इनकार
अब देखें कि इसके बाद क्या हुआ। यह ख़बर ब्रिटिश सरकार तक भी पहुँची और ब्रिटेन के उपनिवेश मंत्री चेंबरलिन ने नेटल प्रांत की सरकार को तार भेजा इस आदेश के साथ कि जिन लोगों ने गाँधीजी पर हमला किया है, उनपर मुक़दमा चलाया जाए। जब सरकार के एक मंत्री ने गाँधीजी के सामने यह प्रस्ताव रखा तो उन्होंने उससे कहा,
‘मैं उनपर मुक़दमा नहीं चलाना चाहता। यह मुमकिन है कि मैं उनमें से एक या दो को पहचान लूँ, लेकिन उनको सज़ा दिलाने से क्या होगा इसके अलावा, मैं इन हमलावरों को दोषी नहीं मानता। उनको यह कहकर बरगलाया गया है कि मैंने नेटल के श्वेतों के बारे में भारत में अतिरंजित बयान दिए और उनको अपमानित किया। उन्होंने इन रिपोर्टों पर भरोसा किया जिन्हें पढ़कर स्वाभाविक था कि उनको मुझपर ग़ुस्सा आया। इसके लिए दोषी वे नेतागण हैं और यदि आप मुझे अनुमति दें तो इनमें आप भी शामिल हैं। आप इन लोगों का सही प्रकार से मार्गदर्शन कर सकते थे लेकिन आपने भी रॉयटर्स का भरोसा कर लिया और सोच लिया कि मैंने अतिशयोक्ति भरी बातें कही होंगी। मैं किसी पर भी मामला नहीं चलाना चाहता। मुझे विश्वास है कि जब सच सामने आएगा, वे (हमलावर) अपने किए पर पछताएँगे।’
यह पहली बार नहीं था कि गाँधीजी अपने हमलावरों को माफ़ कर उन हमलों के पीछे की मानिसकता और उस मानसिकता को फैलानेवालों के ख़िलाफ़ अपनी शक्ति लगा रहे थे। उससे पहले भी उनपर दक्षिण अफ़्रीका में कई हमले हुए थे।
रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से उनको निकाल दिया गया था, एक कोचयात्रा के दौरान उनको बुरी तरह पीटा गया था, एक पुलिसवाले ने उनको धक्का देकर गिरा दिया था। इन सब मामलों में उनके पास व्यक्तिगत शिकायतों के मौक़े थे। लेकिन जैसा कि उनका मानना था, हिंसा और अपमान की व्यक्ति-केंद्रित शिकायतों में उलझने के बजाय उन ताक़तों से लड़ने और उस व्यवस्था को बदलने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए जो ऐसी हिंसक मानसिकता को हवा देते हैं।
तो गोडसे को भी माफ़ कर देते गाँधीजी!
गाँधीजी की इस नीति को देखते हुए मुझे यहाँ तक लगता है कि यदि गाँधीजी पर नाथूराम गोडसे द्वारा चलाई गई गोलियाँ निशाने से चूक जातीं या किसी तरह वे बचा लिए जाते तो वे उसे फाँसी पर नहीं चढ़ने देते और निश्चित तौर पर उसे माफ़ कर देते। शायद वे ईसा मसीह की वाणी को ही दोहराते - पिता, उन्हें माफ़ कर दो। वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।
लेकिन वे घृणा फैलानेवाली उन शक्तियों से लड़ना नहीं छोड़ते जो नाथूराम गोडसे को पैदा करती हैं।
आशुतोष और उनके जैसे सभी पत्रकारों से हम यही उम्मीद करते हैं कि हिंसा की धमकियों के बावजूद वे सच बोलना और झूठ और घृणा की उन शक्तियों से लड़ना जारी रखेंगे जो देशभर में नफ़रत और हिंसा का माहौल पैदा कर रही हैं।
गाँधी के देश को हिटलर का देश बनने से रोकने का यही एक रास्ता है।