सुप्रीम कोर्ट में कुछ महिलाएँ अपने लिए न्याय माँगने गई थीं। उनका कहना था कि ‘हम सबरीमला में अयप्पा के दर्शन करना चाहती हैं जिसकी अनुमति ख़ुद सुप्रीम कोर्ट अपने एक फ़ैसले में दे चुका है। लेकिन वहाँ हमको दर्शन करने से रोका जा रहा है और सरकार भी हमें सुरक्षा नहीं दे रही है।’ ये महिलाएँ चाहती थीं कि सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार को उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने का आदेश दे।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कोई आदेश देने से इनकार कर दिया क्योंकि इस फ़ैसले की समीक्षा एक बड़ी बेंच करने वाली है। जब महिलाओं के वकीलों ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने केवल समीक्षा का निर्णय किया है, अपने पिछले निर्णय पर कोई रोक नहीं लगाई है तो मुख्य न्यायाधीश ने वकीलों की बात से सहमति जताई। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘आपका कहना सही है कि कोर्ट के फ़ैसले पर कोई रोक नहीं है और ये महिलाएँ ख़ुशी-ख़ुशी अयप्पा के दर्शनों के लिए जा सकती हैं, क़ानून भी उनके साथ है लेकिन यह मुद्दा भावनाओं से जुड़ा हुआ है और स्थिति बहुत विस्फोटक है। हम नहीं चाहते कि हमारे किसी भी आदेश से वहाँ हिंसक स्थिति पैदा हो। इसलिए हम अभी कोई आदेश नहीं देंगे।’
आपने ध्यान दिया - कोर्ट का कहना है कि वह अभी कोई न्यायिक आदेश नहीं देगा क्योंकि वह नहीं चाहता कि उसके किसी आदेश से वहाँ हिंसा फैले! यह एक नई बात है। अब तक हम समझते थे और अभी भी समझते हैं कि सुप्रीम कोर्ट अपने फ़ैसले संविधान के आधार पर देता है कि क्या सही है और क्या ग़लत, क्या न्यायोचित है और क्या नहीं। लेकिन जब कोर्ट यह कहते हुए कोई आदेश देने से बचने की कोशिश करता है कि उसके आदेश से कहीं हिंसा न फैल जाए तो हमें मानना पड़ेगा कि न्याय की देवी का पलड़ा अब लाठी की चोट से एक तरफ़ झुकने लगा है।
यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय सुनाते समय तथ्यों के बजाय ‘शांति बनाए रखने’ पर ज़्यादा ज़ोर दिया है। याद कीजिए, अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को रद्द करते हुए क्या कहा था। कोर्ट ने कहा था कि ‘1500 वर्ग गज़ की इस विवादित ज़मीन को बाँटने से किसी भी पक्ष का हित पूरा नहीं होगा, न ही शांति और इत्मिनान का स्थायी माहौल बनेगा।’
शांति और इत्मिनान पर जोर
स्पष्ट है कि अयोध्या मामले में फ़ैसला देते समय भी सुप्रीम कोर्ट का ज़ोर तथ्यों पर कम और शांति क़ायम करने पर ज़्यादा था। ऐसा इसलिए भी लगता है कि विवादित परिसर पर स्वामित्व के मामले में सुप्रीम कोर्ट भी उसी नतीजे पर पहुँचा था जिस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुँचा था कि पिछले कई सौ सालों से हिंदू और मुसलिम दोनों समुदायों का उस परिसर पर स्वामित्व था। लेकिन चूँकि उच्चतम न्यायालय को ‘शांति और इत्मिनान का माहौल’ क़ायम करना था, इसलिए उसने हिंदू पक्ष को पूरी ज़मीन दे दी। शायद उसे आभास था कि यदि मुसलिम पक्ष को पूरी ज़मीन दे दी गई या ज़मीन दोनों पक्षों में बराबर बाँट दी गई तो देश में ‘शांति और इत्मिनान का माहौल’ पैदा नहीं होगा।
अयोध्या के बाद अब सबरीमला के मामले में भी शांति के नाम पर (दूसरे शब्दों में हिंसा के भय से) कोई प्रतिकूल आदेश जारी न करने की सुप्रीम कोर्ट की प्रवृत्ति से आगे के फ़ैसलों के बारे में भी अंदेशा होने लगा है।
क्या 7 जजों की जो बेंच सबरीमला पर कोर्ट के पिछले निर्णय की समीक्षा करेगी, वह अपना अंतिम निर्णय देने से पहले यह भी देखेगी कि कहीं उसके फ़ैसले से हिंसा तो नहीं फैलेगी? क्या अनुच्छेद 370 या नागरिकता संशोधन क़ानून को उनके संवैधानिक औचित्य के आधार पर नहीं बल्कि बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक पक्षों की आशंकित हिंसक प्रतिक्रियाओं के आधार पर तौला जाएगा?
क्या अबसे सुप्रीम कोर्ट विवादास्पद मामलों पर अपने फ़ैसले सुनाने से पहले यह देखेगा कि कहीं समाज के दबंग और ताक़तवर समूह उन फ़ैसलों से क्रुद्ध होकर हिंसा पर तो नहीं उतर आएँगे? और यदि ऐसी आशंका हो तो क्या वह अपने फ़ैसलों को उसी हिसाब से मोड़ दे देगा ताकि समाज में शांति बनी रहे?
एक लाइन में इस पूरी बात को इस तरह कह सकते हैं कि क्या सुप्रीम कोर्ट ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ के आधार पर अपने सारे फ़ैसले सुनाएगा? अगर हाँ तो हमें सुप्रीम कोर्ट या किसी भी कोर्ट की ज़रूरत ही क्या है? लाठी के बल पर फ़ैसला तो सड़कों और मुहल्लों में ही हो जाता है। अदालत में तो इंसान तभी जाता है जब वह सड़कों, मुहल्लों, थानों और सरकारी दफ़्तरों में क़ाबिज़ ताक़तों के सामने हार जाता है। जब अदालतों में भी ताक़तवर के हिंसाबल के आधार पर ही निर्णय होगा तो फिर कमज़ोर इंसान कहाँ जाएगा?