गोवा में आयोजित 55वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सोनू निगम ने हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत परंपरा में ‘अमरत्व’ हासिल कर चुके दिवंगत महान गायक मो. रफ़ी साहब को जिस अंदाज़ में श्रद्धांजलि दी वह हैरान करने वाला है। सोनू निगम ने कहा कि “वो नमाज़ी आदमी थे। मुसलमान थे फिर भी भजन गाते थे जैसे कोई हिंदू गा रहा हो। मुझे समझ नहीं आता कि आख़िर वो गायकी में धर्म-परिवर्तन कैसे कर लेते थे?”
फ़िल्मों में आने से पहले स्टेज पर मो. रफ़ी के सुरों की नक़ल करके पहचान बनाने वाले सोनू निगम ने अपनी समझ से मो. रफ़ी की प्रशंसा ही की थी, लेकिन उनके शब्द बताते हैं कि वे एक बड़ी ‘नासमझी’ के शिकार हो चुके हैं। कुछ समय पहले सुबह की अज़ान से भी तकलीफ़ जता चुके सोनू निगम का बयान दरअसल उस ‘नव-हिंदू का बयान है जिसके 'कॉमन सेंस’ का एक राजनीतिक अभियान ने अपहरण कर लिया है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस ‘नव-हिंदू’ की नज़रों पर हिंदू-मुस्लिम बाइनरी का चश्मा उसी तरह चढ़ा दिया गया है जैसे कि ताँगे के घोड़ा की आँख पर चमड़े की पट्टी (हॉर्स ब्लाइंडर्स) चढ़ा दी जाती है ताकि उसकी दृष्टि 180 डिग्री देखने के बजाय महज़ 30 डिग्री तक सीमित हो जाये। वह अगल-बगल कुछ न देखकर सामने के रास्ते को ही देख पाता है। ‘नव हिंदू’ भी ‘हिंदू-मुस्लिम’ के अलावा कुछ देख पाने में असमर्थ है।
सोनू निगम को आश्चर्य हो रहा है कि मो. रफ़ी ‘मुसलमान’ और ‘नमाज़ी’ होने के बावजूद ‘भजन’ कैसे गा लेते थे? सोनू निगम के इस वाक्य पर ग़ौर करना चाहिए जिसमें वे पूछ रहे हैं कि ‘मो.रफ़ी गायकी में धर्म परिवर्तन कैसे कर लेते थे?’ दरअसल, सोनू निगम फ़िल्म संगीत का इतिहास भूल चुके हैं, वरना यह उन्हें बेहद सहज बात लगती। ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ जैस श्रेष्ठतम फ़िल्मी भजन को ‘मुसलमान’ मो. रफ़ी ने ही नहीं गाया था, इसे लिखा भी एक मुसलमान ने था जिसका नाम था शकील बदायूँनी और सुरों से सजाने वाला संगीतकार भी मुसलमान था, यानी नौशाद। इन लोगों ने ऐसी न जाने कितनी रचनाएँ ‘पक्का मुसलमान’ रहते हुए ही की थी। उन्हें इसके लिए ‘धर्म-परिवर्तन’ की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। उनके लिए ‘सुर’ और ‘शब्द’ उस ईश्वर से लौ लगाने का ज़रिया थे जो हिंदू-मुसलमान सभी का है। वे अपने हुनर को साधते हुए वहाँ जा पहुँचे थे जहाँ इस्लाम का तौहीद (अल्लाह एक है, दूसरा कोई नहीं) और 'एको अहं द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति’ (मैं एक ही हूँ, दूसरा कोई नहीं, न हुआ है, न होगा) के अद्वैत सिद्धांत में कोई फ़र्क़ नहीं रह जाता।
फ़िल्मों में भजन गाने वाले मुस्लिम गायकों और उसका संगीत सजाने वाले मुसलमानों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ के अविस्मरणीय भजन 'हरि ओम तत्सम’ को सोनू निगम ने सुना न हो, ऐसा हो नहीं सकता। मो. रफ़ी अगर फ़िल्मी भजनों की सबसे पसंदीदा आवाज़ थे तो शकील बदायूँनी ने एक से बढ़कर एक भजन लिखे। ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे’ और ‘ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले..’ जैसी अमर रचनाएँ शकील बदायूँनी के क़लम से ही निकली हैं। साहिर लुधियानवी का लिखा ‘हे रोम-रोम में बसने वाले राम, जगत के स्वामी हे अंतरर्यामी, मैं तुझसे क्या माँगूँ’ को कौन भूल सकता है। नये दौर में जावेद अख़्तर ने भी कई मशहूर भजन लिखे हैं। युगांघर फ़िल्म की आरती ‘वह कृष्ण कन्हैया मुरलीधर, मनमोहन कुंज बिहारी है, गोपाल मनोहर दुःख इंजन घनश्याम अतल बनवारी है…’ मशहूर है जिसमें उन्होंने कृष्ण के 108 नामों का इस्तेमाल किया है। फ़िल्म लगान का मशहूर गीत 'मधुबन में जो कन्हैया किसी गोपी से मिले, कभी मुस्काये कभी छेड़े कभी बात करे, राधा कैसे न जले, राधा कैसे न जले’ भी जावेद अख़्तर की क़लम से ही निकला। जावेद अख़्तर तो घोषित नास्तिक हैं। यानी वे धर्म-परिवर्तन भी नहीं कर सकते थे फिर भी राधा-कृष्ण आख्यान को अपनी सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा मानकर उन्होंने डूब कर लिखा।
फ़िल्म संगीत ही नहीं, आमतौर पर देवताओं को समर्पित भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा भी ‘अल्लाह वालों’ के योगदान से ख़ूब चमकी-दमकी है। यह सिलसिला सल्तनत काल में ही शुरू हो गया था जो मुग़ल और उत्तर मुग़लकाल में आसमान को छूने लगा। कौन भूल सकता है कि अलाउद्दीन ख़िलजी सहित कई सुल्तानों के दरबारी रहे अमीर ख़ुसरो ने न सिर्फ़ तबले का आविष्कार किया बल्कि सितार के आविष्कार का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है। साथ ही उन्होंने सैकड़ों नये रागों का निर्माण और ख़्याल गायन शैली का आविष्कार भी किया। तूती-ए-हिंद (हिंद का तोता) कहलाने वाले अमीर खुसरो के लिखी ‘छाप तिलक सब छीनी, मोसे नैना मिलाय के’ जैसी क़व्वाली पर झूमने वालों में क्या धर्म के आधार पर भेद किया जा सकता है?
आज भी बनारस में ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ को 'मंदिर के सामने शहनाई बजाते’ देखा है। विष्णु के अवतारों पर आधारित ध्रुपद गायकी का सबसे प्रसिद्ध घराना डागर बंधुओं का है जो मुस्लिम हैं।
पं. रविशंकर जैसे विश्वप्रसिद्ध सितारवादक और संगीतकार की प्रेरणा और सिद्धि के पीछे उनके उस्ताद अलाउद्दीन खां थे। 'आफ़ताब ए सितार’ उस्ताद विलायत अली खाँ, मशहूर तबला वादक उस्ताद अल्ला रक्खा खाँ और उनके बेटे ज़ाकिर हुसैन, सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खाँ जैसे ‘मुसलमानों’ को दरकिनार करके क्या भारतीय शास्त्रीय संगीत की बात भी हो सकती है?
यह आश्चर्य की बात है कि भारतीय परंपरा में रची-बसी सच्चाई सोनू निगम जैसे लोगों को ‘आश्चर्यचकित’ कर रही है। इससे पता चलता है कि उनका ‘इतिहास-बोध’ ध्वस्त हो चुका है। दिमाग़ पर कोई भ्रम तारी है और वह पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहा है। यह देश भर में सत्ता संरक्षण में जारी आरएसएस-बीजेपी के सांप्रदायिक अभियान का नतीजा है जिसने हिंदुओं से उनका ‘कॉमन-सेंस’ छीन लिया है। नव-हिंदुओं की यह प्रजाति ‘मदरसा’ शब्द सुनते ही नफ़रत से भर जाती है जबकि उसके पुरखों ने मदरसे से ही शिक्षा प्राप्त की थी। उसे लगता है कि ‘वक़्फ़ बोर्ड’ ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का मुसलमानों का कोई षड्यंत्र है जबकि ‘वक़्फ़’ मुसलमानों द्वारा ही सामाजिक और धार्मिक कार्यों के लिए दान की गयी सम्पत्तियाँ हैं। वक़्फ़ बोर्ड उनकी देखरेख के लिए बनाया गया है और क़ानून द्वारा संचालित हैं। इस बोर्ड में सरकार द्वारा नियुक्त प्रशासनिक अफ़सर और अन्य प्रतिनिधि होते हैं। इनमें कोई गड़बड़ी है तो वह प्रशासनिक अमले की मिलीभगत से ही मुमकिन है जैसे कि अन्य विभागों में है। लेकिन नव-हिंदू को इस व्हाट्सऐप ज्ञान पर यक़ीन है कि वक़्फ़ बोर्ड के पास रेलवे और सेना के बाद सबसे ज़्यादा ज़मीन है और यह जहाँ भी हाथ रख देता है ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेता है। जैसे उसे इस बात पर यक़ीन है कि मुसलमानों को सबक़ सिखाने के लिए मोदी जी आये हैं जो दरअसल, विष्णु के अवतार हैं। उन्होंने शास्त्र तो नहीं पढ़े लेकिन भगवतगीता के श्लोक ‘यदा-यदा ही धर्मस्य…’ में वे मोदी जी के अवतार लेने की भविष्यवाणी देखते हैं।
अफ़सोस कि कभी ‘आपस में प्रेम करो देशप्रेमियों..’ गाकर सौहार्द और सद्भाव फैलाने में अहम भूमिका निभाने वाला बॉलीवुड आज नफ़रत के बुख़ार से तप रहा है। इधर कई ऐसी फ़िल्में आयी हैं जो मुसलमानों को निशाना बनाने और नफ़रत फैलाने के मक़सद से बनायी गयीं। ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ जैसी हिंसक नारेबाज़ी को बल दे सकने वाला नैरिटव गढ़ने के लिए तमाम तरह की अफ़वाहों को सत्य बताकर पेश किया गया है। इस बुख़ार से तपते लोगों के लिए किसी मुसलमान का हिंदू धर्म और उसकी परंपराओं के प्रति सम्मान जताना असंभव सी बात है। सोनू निगम की हैरानी इसी की बानगी है जो धर्मान्धता का नतीजा है।
आधुनिक विश्व में हिंदू धर्म का प्रतीक बनकर उभरे स्वामी विवेकानंद ने 'वेदांती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के मेल’ को भारत का भविष्य बताते हुए धर्मांधता के ख़तरे के प्रति आगाह किया था। उन्होंने कहा था कि “धर्मान्धता एक भयानक बीमारी है। मनुष्यों में जितनी दुष्ट बुद्धि है, वह सभी धर्मांन्धता द्वारा जगायी गयी है। इसके द्वारा क्रोध उत्पन्न होता है, स्नायु-समूह अतिशय तन जाता है और मनुष्य शेर जैसा हो जाता है।”
यहाँ शेर से आशय जानवर होने से है। अफ़सोस कि इस दौर में स्वामी विवेकानंद जैसा भगवा चोला पहनने वाले कई नेता और महंत हिंदुओं में इसी जानवर को जगाने में लगे हैं। सोनू निगम का ‘स्नायु-समूह’ भी इसीलिए तना-तना सा है और नफ़रत उनके सर चढ़कर मो. रफ़ी के भजनों में 'धर्म-परिवर्तन' खोज रही है।