राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने पटेल की चिता के पास कहा – “सरदार के शरीर को अग्नि जला तो रही है, लेकिन उनकी प्रसिद्धि को दुनिया की कोई अग्नि नहीं जला सकती”। सरदार वल्लभ भाई पटेल के अंतिम संस्कार के वक्त राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और सी राजगोपालाचारी नम आंखों के साथ खड़े थे। राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद ने चिता के पास भाषण भी दिए।
प्रधानमंत्री नेहरु के ना चाहने के बावजूद राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, पटेल के निधन की खबर सुन कर बंबई पहुंच गए थे। के एम मुंशी ने अपनी किताब ‘पिलग्रिमेज’ में लिखा है कि नेहरु मानते थे कि राष्ट्रपति को किसी मंत्री के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होना चाहिए। इससे एक गलत परपंरा की शुरुआत होगी। उस दिन दोपहर बाद राजाजी और नेहरु दिल्ली से बंबई पहुंच गए थे।
15 दिसम्बर 1950 को तड़के तीन बजे पटेल को दिल का दौरा पड़ा और वे बेहोश हो गए। काफी देर बाद उन्हें जब होश आया तो बेटी मणिबेन ने उन्हें गंगाजल में शहद डाल कर पिलाया। सवेरे 9 बज कर 37 मिनट पर पटेल ने आखिरी सांस ली।
राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की बात आज भी सही साबित हो रही है, पटेल की प्रसिद्धि को कोई आग नहीं जला पाई। कोई राजनीतिक विरोधी उनकी छवि को खत्म नहीं कर पाया बल्कि इससे उलट अब उनके चाहने वालों की तादाद और बढ़ गई है।
यूं तो नवम्बर में भी सरदार पटेल की तबियत खराब चल रही थी, लेकिन दिसम्बर आते-आते पटेल को शायद अपने आखिरी वक्त के आने का अंदाज़ा हो गया था। 6 दिसम्बर को राजेन्द्र प्रसाद कुछ देर उनके पास आकर बैठे रहे, लेकिन पटेल एक शब्द भी नहीं बोल पा रहे थे।
उसके बाद सरदार पटेल कबीर का “गीत मन लाग्यो मोरो यार फकीरी” में गुनगुनाते रहे । दिल्ली में दिसंबर की बढ़ती ठंड को देखते हुए उनका इलाज कर रहे डॉक्टरों ने सलाह मशविरा किया कि पटेल को दिल्ली से बंबई ले जाया जाना चाहिए, वहां के बेहतर मौसम में शायद कुछ फायदा हो सके।
पटेल पर किताब के लेखक राजमोहन गांधी ने लिखा कि 12 दिसम्बर 1950 को सरदार पटेल को वेलिंग्टन हवाई पट्टी ले जाया गया, जहां से वायुसेना का डकोटा जहाज उन्हें बंबई ले जाने के लिए खड़ा था। विमान की सीढ़ियों के पास राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और राजाजी के साथ घनश्याम दास बिड़ला भी खड़े थे। साढ़े चार घंटे की उड़ान के बाद पटेल बंबई के जुहु हवाई अड्डे पर उतरे। वहां उनके स्वागत के लिए मुख्यमंत्री बी जी खेर और मोरारजी देसाई मौजूद थे।
राजभवन की कार में उन्हें बिरला हाउस ले जाया गया। लेकिन सुधार आने के बजाय उनकी हालत बिगड़ती चली गई।
सरदार पटेल के योगदान और आंकलन पर राजमोहन गांधी ने लिखा – “आज़ाद भारत के शासन तंत्र को वैधता दिलाने में गांधी, नेहरू और पटेल की अहम भूमिका रही लेकिन हमारा सिस्टम भारतीय इतिहास में गांधी और नेहरू के योगदान को तो मानता है लेकिन पटेल की तारीफ़ करने में कंजूसी करता है”।
राजमोहन गांधी ने लिखा कि “ बारदोली के 1928 के किसान आंदोलन में सरदार पटेल की भूमिका पर कांग्रेस अध्यक्ष रहे मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी को चिट्ठी लिखी इसमें कहा गया कि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस समय के हीरो वल्लभ भाई हैं। हम कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बना दें। अगर किसी वजह से ऐसा मुमकिन नहीं होता तो जवाहर लाल हमारी दूसरी पसंद होने चाहिए”।
लेकिन हकीकत यह है कि नेहरु छह बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने, मदन मोहन मालवीय और मौलाना आज़ाद को भी दो-दो बार अध्यक्ष बनने का मौका मिला लेकिन पटेल को सिर्फ़ एक बार 1931 में अध्यक्ष बनाया गया।
रियासतों का विलय
पटेल पर एक और किताब में लेखक पी एन चोपड़ा ने लिखा कि “रूस के प्रधानमंत्री निकोलाई बुलगानिन ने कहा कि आप भारतीयों के क्या कहने। आप राजाओं को ख़त्म किए बिना रजवाड़ों को ख़त्म कर देते हैं”। पांच सौ ज़्यादा रजवाड़ों को एक साथ लाकर आज़ाद भारत को बनाने और एकजुट करने का जो काम पटेल ने किया, ऐसा शायद ही कई दूसरा उदाहरण मिले।
हैदराबाद के भारत में विलय को लेकर पटेल की भूमिका को किसी भी हाल में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बहुत से इतिहासकार हैदराबाद के विलय और कश्मीर में रुचि नहीं दिखाने का आरोप भी पटेल पर लगाते रहे हैं।
जम्मू कश्मीर के राज्यपाल रहे एस के सिन्हा ने अपनी किताब में लिखा है - “एक बार जनरल करियप्पा को सरदार पटेल से तुरंत मिलना का संदेश कश्मीर में मिला। वे तुरंत दिल्ली पहुंच कर पटेल से मिलने उनके घर पहुंचे। मैं भी उनके साथ था। पटेल से मुलाकात के बाद करियप्पा ने बताया कि पटेल ने मुझसे पूछा कि हमारे हैदराबाद ऑपरेशन के दौरान अगर पाकिस्तान की तरफ से कोई रिएक्शन होता है तो क्या बिना किसी अतिरिक्त मदद के आप उसका सामना कर पाएंगे, करियप्पा ने एक शब्द का जवाब दिया – हॉं, और मीटिंग ख़त्म हो गई।”
हैदराबाद में कार्रवाई
सिन्हा ने लिखा कि उस वक्त सेना प्रमुख जनरल रॉबर्ट बूचर कश्मीर के हालात को देखते हुए हैदराबाद में कार्रवाई करने के पक्ष में नहीं थे। तब जिन्ना भी धमकी दे रहे थे कि अगर भारत हैदराबाद में दखल देता है तो सभी मुसलिम देश इसके विरोध में एक साथ आ जाएंगे। लेकिन करियप्पा से बैठक के तुरंत बाद हैदराबाद में कार्रवाई का आदेश मिल गया।
रॉबर्ट बूचर का मानना था कि पाकिस्तान की सेना इसके जवाब में अहमदाबाद या बंबई में बम गिरा सकती है लेकिन पटेल ने उनकी सलाह को नज़रअंदाज़ किया।