यह अकारण नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आज़ादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं है। बलिदान करने वाले लोग संघ की निगाह में बहुत ऊंचा स्थान नहीं रखते। संघ का मानना है कि जो संघर्ष करते हुए अपना न्योछावर कर देते हैं, निश्चित रूप से उनमें कोई त्रुटि होगी।
कोई भी हिंदुस्तानी जो स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को सम्मान देता है उसके लिए यह कितने दुःख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेजों के विरुद्ध प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को अच्छी निगाह से नहीं देखता था। माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा हैः
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निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर
यक़ीनन यही कारण है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर की बात रही, जेल भी नहीं गया।
गोलवलकर भारत माँ पर अपना सब कुछ क़ुर्बान करने वालों को कितनी हीन दृष्टि से देखते थे, इसका अंदाज़ा निम्नलिखित शब्दों से भी अच्छी तरह लगाया जा सकता है।
- 'अंग्रेजो के प्रति क्रोध के कारण अनेकों ने अद्भुत कारनामे किये। हमारे मन में भी एकाध बार विचार आ सकता है कि हम भी वैसा ही करें। वैसा अद्भुत कार्य करने वाले निःसंदेह आदरणीय हैं। उसमें व्यक्ति की तेजस्विता प्रकट होती है। स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए शहीद होने की सिद्धता झलकती है। परन्तु सोचना चाहिए कि उससे (अर्थात बलिदान से) संपूर्ण राष्ट्रहित साध्य होता है क्या बलिदान के कारण पूरे समाज में राष्ट्र-हितार्थ सर्वस्यसमर्पण करने की तेजस्वी वृद्धिगत नहीं होती है। अब तक का अनुभव है कि वह हृदय की अंगार सर्व साधारण को असहनीय होती है।'
यह बात भी क़ाबिले गौर है कि आरएसएस जो अपने आप को भारत का धरोहर कहता है, उसके 1925 से लेकर 1947 तक के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है, जिसमें जलियाँवाला बाग़ जैसे बर्बर दमन की घटनाओं की भर्त्सना हो। इसी तरह आरएसएस के समकालिक दस्तावेज़ो में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को गोरे शासकों द्वारा फाँसी दिये जाने के ख़िलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकार्ड भी नहीं है।
राष्ट्र ध्वज से नफ़रत
आरएसएस न तो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और न ही स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय ध्वज के प्रति वफ़ादारी में विश्वास करता है। दिसम्बर 1929 में कांग्रेस के अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज को राष्ट्रीय ध्येय घोषित करते हुए लोगों का आह्वान किया था कि 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराएँ और स्वतंत्रता दिवस मनाएँ। इसके जवाब में आरएसएस के तत्कालीन सरसंचालक डा. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी करके तमाम शाखाओं को भगवा झंडा राष्ट्रीय झंडे के तौर पर पूजने के निर्देश दिये।
स्वतंत्रता की पूर्वसंध्या पर जब दिल्ली के लाल किले से तिरंगे झण्डे को लहराने की तैयारी चल रही थी आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र (आर्गनाइज़र) के 14 अगस्त, 1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुल कर भर्त्सना की।
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वे लोग जो किस्मत के दाँव से सत्ता तक पहुँचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा।
आर्गनाइज़र, 14 अगस्त, 1947
संविधान का तिरस्कार
भारत की संविधान सभा ने नवम्बर 26, 1949 को संविधान का अनुमोदन करके देश को एक तोहफा दिया। 4 दिन के भीतर आरएसएस ने 'आर्गनाइजर' (नवम्बर 30) में एक सम्पादकीय लिखकर इस के स्थान पर घोर जातिवादी, छुआछूत की झंडाबरदार, औरत और दलित विरोधी मनुस्मृति को लागू करने की इन शब्दों में मांग की, 'हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विकसित हुये अद्वितीय संवैधानिक प्रावधानों का कोई ज़िक्र नहीं है। मनु के क़ानून, स्पार्टा के लयकारगुस और ईरान के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। मनुस्मृति में प्रतिपादित क़ानून की सारे विश्व प्रशंसा होती है और अनायास सहज आज्ञाकारिता पाते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए ये बेकार हैं।'
प्रजातंत्र से नफ़रत
आरएसएस लोकतंत्र के सिद्धांतों के विपरीत लगातार यह माँग करता रहा है कि भारत में तानाशाही शासन हो। गोलवलकर ने सन् 1940 में आरएसएस के 1350 उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं के सामने भाषण करते हुए घोषणा कीः 'एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।'
याद रहे कि एक झण्डा, एक नेता और एक विचारधारा का यह नारा सीधे यूरोप की नात्सी एवं फ़ासिस्ट पार्टियों, जिनके नेता क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह थे, के कार्यक्रमों से लिया गया था।
सुभाष की पीठ में छुरा घोंपा
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब नेताजी देश की आज़ादी के लिए विदेशी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे और अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज को पूर्वोत्तर भारत में सैनिक अभियान के लिए लामबंद कर रहे थे, सावरकर अंग्रेजों को पूर्ण सैनिक सहयोग की पेशकश कर रहे थे। 1941 में भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने अंग्रेज शासकों के साथ सहयोग करने की अपनी नीति का इन शब्दों में ख़ुलासा किया -
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देश भर के हिंदू संगठनवादियों (अर्थात हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिंदुओं को हथियार बंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौक़ा भी।
विनायक दामोदर सावरकर, हिंदू महासभा का 23वें अधिवेशन
द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जब ब्रिटिश सरकार ने सेना की नई टुकड़ियाँ भर्ती करने का निर्णय लिया तो सावरकर की अगुवाई में हिंदू महासभा ने हिंदुओं को अंग्रेजों के इस भर्ती अभियान में भारी संख्या में जोड़ने का फ़ैसला लिया। मदुरई में हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने उपस्थित प्रतिनिधियों को बताया -
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स्वाभाविक है कि हिंदू महासभा ने व्यावहारिक राजनीति पर पैनी पकड़ होने की वजह से ब्रिटिश सरकार के समस्त युद्ध प्रयासों में इस ख्याल से भाग लेने का निर्णय किया है कि यह भारतीय सुरक्षा और भारत में नई सैनिक ताक़त को बनाने में सीधे तौर पर सहायक होंगे।
विनायक दामोदर सावरकर, हिंदू महासभा का 23वें अधिवेशन
हिंदुओं को सेना में कराया भर्ती
अगले कुछ वर्षों तक सावरकर ब्रिटिश सेनाओं के लिए भर्ती अभियान चलाने, शिविर लगाने में जुटे रहे, जो बाद में उत्तर-पूर्व में आज़ाद हिंद फ़ौज़ के बहादुर सिपाहियों को मौत की नींद सुलाने और क़ैद करने वाली थी। हिंदू महासभा के मदुरई अधिवेशन में सावरकर ने प्रतिनिधियों को बताया कि पिछले एक साल में हिंदू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिंदुओं को अंग्रेजों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफ़ल हुए हैं। इस अधिवेशन का समापन इस प्रस्ताव के साथ हुआ जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि ब्रिटिश 'थल सेना, नौ सेना और वायु सेना में ज़्यादा से ज़्यादा हिंदू सैनिकों की भर्ती सुनिश्चित की जाए।'
याद रहे इस काम में आरएसएस के प्यारे श्यामा प्रसाद मुखर्जी पूरी तरह सावरकर के साथ थे। इस के साथ ही मुख़र्जी 1942 में जो मुसलिम लीग और हिन्दू महासभा की मिली-जुली सरकार बनी थी उस में उप मुख़्यमंत्री के तौर पर 'भारत छोड़ो आंदोलन' को बंगाल में दबाने में अहम भूमिका निभा चुके थे।
इस संदर्भ में यह सवाल उठना चाहिये कि क्या नागपुर विश्वविद्यालय में इन बातों को भी छात्रों को पढ़ाया जायेगा और अगर इतिहास के इस अंश को हटा दिया जायेगा तो फिर आरएसएस का इतिहास पढ़ाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह न केवल इतिहास के साथ धोखा होगा बल्कि छात्रों के साथ भी विश्वासघात होगा।