महंगाई, बेरोजगारी, किसान समस्या को राहुल भी भूल जाएं तो काहे के नेता     

01:42 pm Sep 18, 2024 | अरविंद मोहन

भारत जोड़ो और न्याय यात्रा जैसे नामों से निकाली लंबी यात्राओं और फिर इंडिया गठबंधन (आधा-अधूरा ही सही) बनाकर नरेंद्र मोदी और भाजपा को गंभीर चुनौती देने के बाद से राहुल गांधी का सितारा निरंतर बुलंदी की तरफ गया है। लोक सभा चुनाव के परिणाम में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को जितनी जीत नहीं मिली उससे ज्यादा बड़ा राजनैतिक संदेश नरेंद्र मोदी का कद घटने से गया। इसके शासन और राजनीति पर क्या क्या असर दिख रहे हैं और सरकारी फैसलों में किस तरह की लड़खड़ाहट दिख रही है यह किसी से छुपा नहीं रहा। 

सिर्फ शासन और सरकार के इकबाल की ही बात नहीं है, भारतीय जनता पार्टी के अंदर किस तरह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी का इकबाल कम हुआ है, वह भी सबकी नज़रों में है। नया पार्टी अध्यक्ष चुनना, उत्तर प्रदेश में बदलाव, जम्मू-कश्मीर का चुनाव और हरियाणा का सिरफुटौव्वल, महाराष्ट्र चुनाव में उतरने का खौफ ही नहीं भाजपा की राजनैतिक लाइन को लेकर असमंजस रोज इस धारणा को और मजबूत बना रहे हैं। दूसरी ओर संसद के अंदर राहुल के भाषण से मची खलबली और उनके दबाव में सरकार तथा भाजपा द्वारा दनादन फैसले बदलना या हुए फैसलों को ठंढे बस्ते में डालना भी चर्चा में रहा है। और राहुल के अड़ने पर अब जनगणना और जातिवार जनगणना की पहल का इशारा भी यह बताता है कि सरकार को विपक्षी दबाव भारी पड़ने लगा है।

लेकिन जब नरेंद्र मोदी अपने विदेशी दौरों के सहारे अपनी खोई इमेज को सहारा देने की कोशिश कर रहे थे और उनकी सरकार अपने पहले सौ दिन के कामकाज का शोर मचाने की तैयारी कर रही थी तब विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने अपने विदेशी दौरे से, खासकर अमेरिका के दौरे से जो संदेश दिया वह उनकी और कांग्रेस की आगे बढ़ने के रफ्तार को कम कर दे तो हैरानी नहीं होगी। राहुल ने अमेरिका में कई ऐसी बातें कहीं जिसका असली मंच भारत है। और भारत सिर्फ कहने या दावा करने का मंच नहीं है विपक्ष के नेता के लिए कर्मभूमि भी है। अगर उनको गंभीरता से लगता है कि लोक सभा चुनाव में धांधली हुई थी, तो इस सवाल को अमेरिका की जगह भारत में और चुनाव के समय या उसके ठीक बाद उठाना था और फिर इसके पक्ष में राजनैतिक और कानूनी लड़ाई भी लड़नी थी। फिर उन्होंने अल्पसंख्यकों की तकलीफ का सवाल भी अमेरिका में उठाया। कांग्रेस लगातार और बिना डगमगाए मुसलमानों का या धर्मनिरपेक्षता का सवाल उठाती रही है और इस बात को मुसलमान स्वीकारते हैं। लेकिन सीधे-सीधे प्रधानमंत्री, भाजपा, संघ ने जिस तरह से मुसलमानों के प्रति जहर उगला है, धर्मनिरपेक्षता का मजाक बनाया है और कई फ़ैसलों से उनको अपमानित किया है, उससे उनमें निराशा भी है जो अब मुसलमानों का मतदान प्रतिशत गिरने से भी स्पष्ट दिखता है। इस शासन से मुसलमान नाखुश हैं लेकिन वे कांग्रेस से बहुत खुश नहीं हैं।

राहुल और उनकी कांग्रेस ने मुसलमानों को जुबानी समर्थन दिया लेकिन सीएए विरोधी मजबूत और अहिंसक आंदोलन को भी अपनी शक्ति भर समर्थन देने का काम कांग्रेस ने नहीं किया। उलटे खुद राहुल सॉफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति करते दिखे। उनको यह भी याद नहीं रहा कि गांधी और कांग्रेस के ज्यादातर हिन्दू नेताओं ने अपने हिन्दुत्व को चलाते हुए किस तरह धरमानिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव की राजनीति को आगे बढ़ाया। पर अमेरिका जाकर उन्होंने जो सबसे अजीबोगरीब बयान दिया वह सिखों के संदर्भ का था। 

सिख संघ द्वारा खुद की ‘केशधारी हिन्दू’ जैसी अलग ब्रान्डिग से खुश नहीं रहते। किसान और जवानों के साथ भाजपा शासन की नीतियाँ भी उन्हें अच्छी नहीं लगतीं। लेकिन उनको अपने धार्मिक पहचान के साथ जीवन जीने, प्रार्थना-अरदास करने में कोई दिक्कत हो रही हो यह कहना कुछ ज्यादा ही ‘सेकुलर’ बनना है। कहीं कोई एकाध मामला होगा भी तो उसका आम सिखों के लिए ज़्यादा मतलब नहीं है। यह कहते हुए राहुल कुछ बड़े उदाहरण देते या कांग्रेस द्वारा इस सवाल पर देश के अंदर किए गए किसी आंदोलन का हवाला देते तब जाकर बात समझ आती।

लेकिन इस लेखक को राहुल का यह दावा करना सबसे अटपटा लगा कि आज विपक्ष अर्थात वे शासन का एजेंडा तय करते हैं। सरकार उनके द्वारा उठाए मुद्दों को ध्यान में रखकर फैसले लेती और बदलती है।

विपक्ष के दबाव या चुनावी धक्का खाने के बाद भाजपा की अगुआई वाली यह सरकार ज़रूर फूँक-फूँक कर फ़ैसले ले रही है और विवादास्पद फ़ैसले ताख पर डाल दे रही है। पुरानी पेंशन योजना, वक्फ बोर्ड संबंधी विधेयक पर ही नहीं, जातिवार जनगणना पर सरकार का घिरना उनके गिनवाने के मुद्दे हैं। पर इसमें जितना योगदान उत्साह में आए विपक्ष का है उससे ज़्यादा एनडीए के घटक दलों का है। शुरू में तो तेलुगु देशम और जनता दल-यू का ही मामला था, अब तो चिराग पासवान, अनुप्रिया पटेल, ओमप्रकाश राजभार और संजय निषाद जैसे लोग भी दबाव की राजनीति खेलने लगे हैं और सरकार उनके दबाव से भी फ़ैसले बदल रही है या ले रही है। उसे केसी त्यागी को प्रवक्ता पद से हटवाना पड़ता है और चिराग से अलग से बात करनी होती है। यह एक व्यक्ति के राज की जगह गठबंधन की राजनीति का परिणाम ज्यादा है, राहुल गांधी के उत्साह और आक्रमण का कम। अगर उनकी वजह से ऐसा हो रहा है तब भी यह दावा कुछ बड़बोलापन लगता है।

दूसरी तरफ इतने कम समय में ही राहुल की खुद की कमजोरियाँ भी ज़्यादा उजागर हुई हैं। अपनी यात्रा से जम्मू-कश्मीर के माहौल को गरमाने वाले राहुल वहां हो रहे चुनाव में उस तरह उपस्थित नहीं रहे हैं जिससे कांग्रेसी उम्मीदवारों को बल मिलता। यह बात हरियाणा चुनाव पर भी लागू होती है। इतना ही नहीं, महाराष्ट्र और झारखंड के आगामी चुनाव के मामले में भी उनकी उपस्थिति सामान्य से कम दिखती है जबकि ये चार राज्य देश की आगे की राजनीति की दिशा तय करेंगे। और खास बात यह है कि इनमें से हर जगह भाजपा बैकफुट पर है और कांग्रेस मजबूत स्थिति में नजर आने लगी है। राहुल को भी इन चुनाव परिणामों से बल मिलेगा तो हार से मोदी कमजोर होंगे। कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरी अधिकांश राज्यों में दिखती है। लोक सभा चुनाव परिणाम के मद्देनजर कांग्रेस में बदलाव, पुरस्कार और सजा का दौर चलना चाहिए था। और इंडिया गठबंधन के साथियों के संग बेहतर तालमेल की कोशिश करनी चाहिए। सिर्फ जातिवार जनगणना की मांग के साथ उसकी राजनीति करनी होगी, सांगठनिक तैयारी करनी होगी। और जिस महंगाई, बेरोजगारी, किसान समस्या को आप बार बार चुनाव में उठाते हैं उसकी भी अपनी राजनीति होती है और इस मोर्चे पर काम करना तो कांग्रेसी भूल ही गए हैं। राहुल भी भूल जाएं तो काहे के नेता।