'ऑपरेशन दुर्योधन' ने देश के संसदीय इतिहास में पहली बार संसद में सवाल पूछने के लिए पैसे लेने के अपराध का सबूत के साथ पर्दाफ़ाश किया था। भारत में खोजी पत्रकारिता के इतिहास में एक नया मानदंड स्थापित करने वाली टीवी रिपोर्ट के चलते विभिन्न पार्टियों के 11 सांसदों की लोकसभा और राज्यसभा की सदस्यता ख़त्म कर दी गयी थी। तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा पर लगे आरोप ने 18 साल पुरानी इस घटना की याद ताज़ा कर दी।
ऑपरेशन दुर्योधन एक अत्यंत जोखिम भरी मुहिम थी जिसे अनिरुद्ध बहल और उनकी टीम ने अंजाम तक पहुँचाया। दुनिया भर में कुछ सांसदों के द्वारा उद्योगपतियों से पैसे लेकर सवाल पूछने की शिकायतें आती रहती हैं लेकिन पचास के दशक में ब्रिटेन के एक मामले को छोड़ कर कभी भी पैसा लेने और सवाल पूछने के सबूत पेश नहीं किए गए। ऑपरेशन दुर्योधन की कमान कोबरा पोस्ट डाट काम के संपादक अनिरुद्ध बहल के हाथों में थी। प्रारंभिक काम करने के बाद अनिरुद्ध ने एक टीवी समाचार चैनल के साथ प्रसारण का क़रार किया। इस चैनल की ओर से मुझे इसके प्रोडक्शन और संपादकीय देख रेख की ज़िम्मेदारी दी गयी। इसके चलते ही मुझे पर्दे के पीछे की कई जानकारियां मिल गयीं जो अब तक सामने नहीं आयी हैं।
सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि संसद में सवाल पूछने के लिए कोई व्यक्ति पैसा क्यों देता है। इसका कारण ये है सरकार के संबंधित विभाग को सांसद के सवाल का जवाब देना पड़ता है जिससे कई छिपी हुई जानकारियां सामने आ जाती हैं। उद्योगपति इसका उपयोग अपना फ़ायदा और प्रतियोगियों का नुक़सान करने के लिए कर सकते हैं। कई बार सवाल के ज़रिए सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश भी की जाती है। सवाल के ज़रिए सांसद सरकार पर अंकुश रखने का काम भी करते हैं।
कैसे मिले ठोस सबूत
सन 2005 की बात है। तब कई तरह के छोटे छिपे कैमरे (हिडेन कैमरा) बाज़ार में आए थे। इन कैमरों को बैग, बटन, चश्मा और पेन जैसी चीजों में इस तरह छिपाया जा सकता था कि सामने वाले व्यक्ति को पता ही नहीं चले कि उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग की जा रही है। इसे स्टिंग ऑपरेशन कहा जाता था। इसे अंजाम देने वाले अपना परिचय रिपोर्टर के रूप में नहीं बल्कि किसी उद्योग या संस्था के प्रतिनिधि के रूप में देते थे। इसलिए उन्हें छिपा रिपोर्टर या अंडर कवर रिपोर्टर कहा जाता था।
कोबरा पोस्ट ने लघु उद्योग से सम्बंधित एक संस्था के नाम से ये ऑपरेशन किया था। अंडर कवर रिपोर्टर एक युवा महिला पत्रकार थी। रिपोर्टर सांसदों से लघु उद्योग प्रतिनिधि के रूप में सांसदों से मिलती थी और उन्हें सवाल और उसे पूछने के बदले पैसा देती थी। पूरा घटनाक्रम छिपे कैमरों में रिकॉर्ड होता रहता था। इस ऑपरेशन के दौरान कई मुश्किलें सामने आयीं। शुरू में रिपोर्टर काग़ज़ पर लिखे सवाल सांसद को दे देती थी। पैसा भी लिफ़ाफ़े में दिया जाता था। तब सवाल ये उठा कि सांसद अगर सवाल या पैसा नहीं मिलने की बात करेंगे तो कैसे साबित होगा कि रिपोर्टर ने जो सवाल दिया था उसे सांसद ने पूछा। लिफ़ाफ़े में दिए गए पैसे को भी साबित करना मुश्किल होगा। इसलिए तय किया गया कि रिपोर्टर सांसद के सामने सवाल को पढ़ेगा और उसे छिपे कैमरे पर रिकॉर्ड किया जाएगा। इसके बाद रिपोर्टर सांसद को दिए जाने वाले रुपयों को कैमरे के सामने गिनेगा और सांसद के हाथों में देगा। सब कुछ कैमरे पर रिकॉर्ड किया जाना आवश्यक होगा। इसके बाद सांसद के ऑफ़िस के ज़रिए उसे लोकसभा में भिजवाया जाएगा और संबंधित विभाग से लोक सभा में उसका जवाब आने तक इंतज़ार किया जाएगा।
सवाल पूछने और उसका जवाब आने पर ही प्रक्रिया पूरी होगी। इस तरह पैसे लेकर सवाल पूछने तक के सबूत कैमरे पर रिकॉर्ड कर लिए गए।
कुछ सांसदों को स्टिंग की भनक थी
ये ऑपरेशन कुल 13 सांसदों पर किया जा रहा था। इनमें से एक सांसद ने पैसे तो लिए लेकिन रिपोर्टर से बार बार कहा कि आप हमें बहुत उपयोगी सवाल दे रहे हैं जो जनता के हित से जुड़े हैं इसलिए पैसा देने की ज़रूरत नहीं है। वो बिना पैसे लिए भी सवाल पूछने के लिए तैयार थे। इसलिए उनके स्टिंग को नहीं दिखाए जाने का फ़ैसला किया गया। एक अन्य सांसद भी पैसा नहीं लेना चाहते थे उन्हें भी छोड़ दिया गया। बाक़ी के 11 सांसदों के ख़िलाफ़ जब पक्का सबूत तैयार हो गया तब उन्हें दिखाने का फ़ैसला किया गया। इनमें से दो सांसदों को ऑपरेशन के दौरान भनक लग गयी थी कि उनका स्टिंग हो रहा है। एक सांसद ने रिपोर्टर के सामानों की जाँच शुरू कर दी। उन्होंने रिपोर्टर के बैग की भी जाँच की। लेकिन उन्हें कैमरे का पता नहीं चल पाया। जबकि कैमरा उस बैग में भी लगा था और इस जाँच पड़ताल को रिकॉर्ड भी कर रहा था। कैमरे को इस तरह छिपाया गया था कि आम आदमी उसे खोज नहीं सकता था।
एक अन्य सांसद ने रिपोर्टर की गाड़ी के नंबर से पता कर लिया कि उनका स्टिंग हो चुका है। अपने दल बल के साथ वो कोबरा पोस्ट के दफ़्तर पर छापा मारने निकल पड़े। टीम को इसकी जानकारी मिल गयी और तुरंत कम्प्यूटर और बाक़ी सामग्री को दूसरे स्थान पर भेज दिया गया। एक ख़ास बात ये है कि गोपनीयता बनाए रखने के लिए पूरा प्रोडक्शन न्यूज़ चैनल के दफ़्तर के बाहर किया गया। इस काम में लगी टीम के बारे में चैनल के बहुत वरिष्ठ अधिकारियों को ही जानकारी थी। इसलिए प्रसारण होने तक किसी को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली।
ख़तरा क़ानूनी शिकंजे की
कार्यक्रम तैयार करने के बाद भी दो तरह की शंकाएँ सामने थीं। पहली तो यह कि सांसद अगर विशेषाधिकार हनन का मामला लोकसभा में उठायेंगे तो उसका सामना कैसे किया जाएगा। दूसरे जब सांसद मामले को अदालत में ले जायेंगे तो बचाव क्या होगा। इस तरफ़ से निश्चिन्त होने के लिए संसदीय मामलों के विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता को प्रोग्राम दिखाया गया। उनकी सलाह पर कई ज़रूरी फेरबदल किए गए। इसका फ़ायदा ये हुआ कि सांसद इसे कोर्ट तक तो ले गए लेकिन फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ ही गया। दुनिया भर में सांसदों के ख़िलाफ़ ये सबसे बड़ी कार्रवाई थी। लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोम नाथ चटर्जी की ही हिम्मत थी कि उन्होंने इस मामले पर कठोर कार्रवाई के लिए सदन को मजबूर किया।
इनमें 10 सांसद लोक सभा के और एक राज्य सभा के थे। ब्रिटेन में पचास के दशक में एक सांसद पर सवाल पूछने के लिए पैसा लेने का आरोप लगा था। तब सबूत के तौर पर एक ऑडिओ रिकॉर्ड पेश किया गया। इस सांसद को इस्तीफ़ा देना पड़ा। भारत में भी 1952 में ही सांसद मुदगल पर सवाल पूछने के लिए पैसा लेने का आरोप लगा। मुदगल ने भी संसद में कार्रवाई के पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन 2005 में कोई भी सांसद इस्तीफ़ा देने के लिए तैयार नहीं थे। संसदीय समिति की सिफ़ारिश पर उनकी सदस्यता ख़त्म की गयी।
कैसे नाम पड़ा ऑपरेशन दुर्योधन?
शुरू में इस स्टिंग का कोई नाम नहीं था। प्रसारण के कुछ दिनों पहले यह तय किया गया कि कम से कम एक सप्ताह तक इसे प्रमोट किया जाए। इसलिए एक नाम की ज़रूरत थी। समस्या ये थी कि अगर सांसदों को पता चल जाये कि उनका स्टिंग प्रसारित किया जाने वाला है तो वो कोर्ट से स्टे ले सकते हैं जिससे प्रोग्राम का प्रसारण रुक सकता है। काफ़ी सोच विचार के बाद इसका नाम सत्ता लोभी के रूप में मशहूर महाभारत के पात्र दुर्योधन के नाम पर रखा गया।
महुआ मोइत्रा के मामले में बीजेपी के सांसद निशिकांत दुबे ने मोइत्रा पर सवाल पूछने के लिए पैसा लेने का आरोप तो लगाया है लेकिन इसके सबूत अभी तक सामने नहीं आए हैं। मोइत्रा ने सवाल संसद में भेजा और उसका जवाब आया या नहीं, ये भी साफ़ नहीं है। लेकिन मामला नैतिक समिति के पास जा चुका है इसलिए फ़ैसला भी उसकी सिफ़ारिश के आधार पर ही होगा।