राजनीति में कब हवा बदल जाए, कब क़िस्मत पलट जाए, पता नहीं चलता। शायद इसीलिए कहा गया है कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। इस वक़्त भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। एक तरफ़ तो प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ़ लगातार ऊपर की तरफ़ ही चल रहा है। लेकिन दूसरी तरफ़ उनकी सरकार के लिए एक के बाद एक चुनौतियाँ खड़ी होती जा रही हैं।
चुनावी चंदे के बॉन्ड और पाँच सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने के एलान के बाद जिस अंदाज़ में सवाल उठ रहे हैं उससे यह शंका होना स्वाभाविक ही है कि इनमें से कोई मामला कहीं इस सरकार के गले की हड्डी न बन जाए। चुनावी बॉन्ड पर तो विपक्ष पहले से ही सवाल उठा रहा था और अब हफिंगटन पोस्ट ने जो ख़बर छापी है उससे यह साफ़ दिखता है कि चुनावी बॉन्ड के मुद्दे पर जो बवंडर उठ रहा है वह सरकार के ख़िलाफ़ तूफ़ान में बदलने की पूरी संभावना रखता है। आरटीआई के ज़रिए जो जानकारी निकली उसमें सवाल सीधे बीजेपी और सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों पर ही उठ रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या विपक्ष इस हाल में है कि वह इस मुद्दे को जनता के बीच पहुँचाकर उसकी नाराज़गी जगा पाएगा
सवाल यह भी है कि सर्जिकल स्ट्राइक, धारा 370 की समाप्ति और अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से ख़ुश होकर उत्सव मना रहे लोग क्या चुनावी चंदे के बॉन्ड और पाँच सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने जैसे सवालों पर ध्यान देने की भी जहमत उठाएँगे
लेकिन जो दूसरा मुद्दा है, यानी सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने का सवाल, उसपर वितंडा शुरू हो चुका है। और इसका विरोध करनेवाले सिर्फ़ राजनीतिक दल नहीं हैं। अभी तो सबसे ज़्यादा नाराज़ हैं इन कंपनियों के कर्मचारी जिनमें सरकार ने अपनी सारी या कुछ हिस्सेदारी बेचने का फ़ैसला किया है। भारत पेट्रोलियम यानी बीपीसीएल के कर्मचारियों ने तो मार्च निकालने की तैयारी भी शुरू कर दी है। उधर शिपिंग कॉर्पोरेशन में पहले ही बहुत बड़ी संख्या में कर्मचारी ठेके पर काम कर रहे हैं। लेकिन जो बचे हैं वे बेहद नाराज़ हैं। नाम न बताने की शर्त पर एक बड़े अधिकारी ने कहा कि ‘यह सरकार सभी कुछ अडानी और अंबानी के नाम करने में लगी है। उनका कहना है कि पश्चिमी देशों के सिद्धांत बिना सोचे-समझे भारत में लागू नहीं किए जा सकते, वरना ये कौवा चला हंस की चाल वाला मामला हो जाएगा। हमारे देश में अब भी जिस कामकाज में स्केल की ज़रूरत है वहाँ प्राइवेट कंपनियाँ नहीं चलेंगी।’
कर्मचारियों के साथ विपक्षी पार्टियाँ और ट्रेड यूनियन तो मिल ही जाएँगे। लेकिन सरकार अगर इस विरोध को नज़रअंदाज़ भी कर दे तब भी मुश्किलों की कमी नहीं है। सबसे बड़ी समस्या होगी बीपीसीएल और शिपिंग कॉर्पोरेशन के वैल्युएशन पर। क्योंकि यह शेयरों की बिक्री नहीं है जिसमें बाज़ार भाव ही सब कुछ तय कर देगा। यहाँ स्ट्रैटजिक सेल होनी है यानी कोई ऐसा ख़रीदार मिले जिसके लिए इस कंपनी की वकत दूसरों से ज़्यादा हो और वह इसके लिए ज़्यादा दाम चुकाने को भी राज़ी हो। जानकारों के मुताबिक़ यहीं बड़ा पेच फँस सकता है। एक-एक पेट्रोल पंप, बिल्डिंग, फ़ैक्ट्री, गोदाम, दफ़्तर, टैंकर और गाड़ियों की लिस्ट बनेगी और हर चीज़ का भाव लगेगा। और यह भाव ही सबसे बड़े विवाद की वजह बन सकता है। विपक्षी दल अभी से बवाल कर रहे हैं कि सरकार नवरत्न कंपनी बेच रही है। कल को सौदा हो गया और फिर सीएजी की रिपोर्ट में आए कि इससे तो दोगुना भाव हो सकता था, तब कैसे निपटेंगे। टूजी घोटाले की तरह यहाँ भी बड़े-बड़े लोगों के फँसने की पूरी गुँज़ाइश है।
राह में रोड़े
हालाँकि उदारीकरण के पैरोकार इस बात से ख़ुश हो रहे हैं कि सरकार ने कंपनियाँ बेचने का एलान कर दिया, लेकिन अभी इस रास्ते में कितने रोड़े हैं इसका हिसाब शायद ख़ुशी के चक्कर में लगाया नहीं गया। सरकार आगे बढ़े तो मुश्किल, और न बढ़े तो और बड़ी मुश्किल। ऐसे में सीधा रास्ता तो कोई है नहीं। अगर इनकी सरकार करेगी तो दूसरी पार्टियाँ सवाल उठाएँगी और अगर दूसरों की सरकार बन गई तो ये लोग सवाल उठाने लगेंगे।
इससे बचने का एक ही तरीक़ा है जो काम आ सकता है। सभी पार्टियों से जानकार लोगों को जोड़कर एक समूह या स्टीयरिंग कमेटी बनाई जाए जो सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी या पूरी कंपनी बेचने पर फ़ैसले करे। इसमें बाज़ार के कुछ बड़े जानकारों को भी रखा जाना चाहिए ताकि अच्छी क़ीमत मिल पाए। और मारुति या हिंदुस्तान जिंक वाला फ़ॉर्मूला अपनाए यानी पूरी कंपनी बेचने के बजाय कुछ शेयर सरकार अपने पास रोक कर रखे जिन्हें बाद में अच्छी क़ीमत पर बेचा जा सके या फिर उनके डिविडेंड से अच्छी कमाई होती रहे।