सुधिजन अवश्य प्रश्न करेंगे कि विकास दुबे पुलिस हिरासत से नहीं भागेगा, इस बात पर पुलिस इतनी आश्वस्त क्यों थी उन्होंने छोटे-मोटे जेबकतरों को हथकड़ी पहन कर सड़कों से गुज़रते देखा है इसलिए वे अवश्य यह प्रश्न पूछना चाहेंगे कि इतने खूँखार अपराधी को हथकड़ी डाल कर क्यों नहीं ले जाया गया यदि ऐसा होता तो दुर्घटना की स्थिति में वह इन्स्पेक्टर की पिस्तौल छीन कर न भाग पाता। स्क्रिप्ट में जवाब हाज़िर है- ‘अभियुक्त को सीधे कानपुर न्यायालय में ले जाने के लिए 15 पुलिस कर्मी और 3 गाड़ियाँ थीं। 24 घंटे की मियाद पूरी होने से पहले उसे हर हाल में 10 जुलाई 10 बजे प्रातः तक कोर्ट में पेश करना था।’ यानी यानी अगर हथकड़ी वगैरह पहनाने का झंझट किया जाता तो देर हो जाती या फिर कोर्ट में हथकड़ी डाल कर ले जाना आपत्तिजनक होता हथकड़ी में सीधे कोर्ट तक ले जाना और वहाँ हथकड़ी खोलना कोई नया चलन नहीं है। पुलिस अधिकारियों के लिए 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' का मैनुअल और सर्वोच्च अदालत के स्पष्ट दिशा निर्देश हैं कि पुलिस उन लोगों को हथकड़ी पहना सकती है जो ‘किसी मामले में सज़ायाफ्ता हों, ख़तरनाक चरित्र वाले हों जिनके आत्महत्या करने की संभावना हो या जो भागने की कोशिश कर सकते हों।’
पिस्तौल गाथा
फौजदारी मामलों के वरिष्ठ अधिवक्ता अमीर अहमद ज़ाफ़री एक सीधा सा सवाल करते हैं। वह पूछते हैं, ‘एक दुर्दांत अपराधी जो कल तक बंदूक़ों के साये में खेलता रहा हो, वह जब 'बेहोश' पुलिस वालों से हथियार छीन कर भागेगा तो एक की पिस्तौल ही क्यों ले जायेगा जिसमें मात्र 12 राउंड होते हैं। उसे पता नहीं था कि उसे पीछे से आते बड़े पुलिस बल से उलझना पड़ सकता है और ऐसे में ये 12 राउंड के कोई मायने नहीं वह ज़रूर बाक़ी 2 या 3 बेहोश पुलिस वालों से भी हथियार छीनता।’ हो सकता है मी लार्ड ही पूछ लें कि ऐसा खूंखार अपराधी जिसने अपने सयानेपन से अभी 8 पुलिस वालों को क्रूरतापूर्ण मौत की नींद सुलाया है, क्या वह ऐसा अहमक निकलेगा कि 12 राउंड के दम पर पूरे प्रदेश की पुलिस को ऐलान ठोंके
ज़ाफ़री साहब हुनरबंद क़ानूनदाँ हैं। सवाल पर सवाल दाग़ते हैं जैसे यही कि ‘एक आदमी चौड़े में भाग रहा है और उन पर दमादम गोली बरसा रहा है तो बाक़ी पुलिस वाले उस वक़्त क्या भाड़ झोंकने में मशग़ूल थे अरे भाई उनके पास भी तो सेमी ऑटोमेटिक हथियार थे। वे भो तो तड़तड़ा सकते थे और उसे गोलियों से भून सकते थे। उनकी आत्मा में क्या 'बापू' आ गए थे जो उन्होंने गिन कर सिर्फ़ 4 गोलियाँ दागीं’
भाई लोग गोलियाँ भी ऐसी ट्रेन्ड लेकर आये थे कि वे भागती हुई आगे गईं, रुकीं और फिर पीछे मुड़कर भागते हुए विकास की छाती में घुस गईं ओ अच्छा आप यह कह रहे हैं कि वह पीछे घूम कर पुलिस पर फ़ायरिंग कर रहा था इसलिए सामने से गोलियाँ लगीं। अब विद्वान दर्शकों से गुज़ारिश है कि हमसे यह न पूछें कि वह पीछे मुड़ कर फ़ायरिंग करना और भागना एक साथ कैसे 'मेंटेन' कर रहा था हमें सचमुच नहीं मालूम कि रहस्य-रोमांच की इस कहानी में गाड़ी से कूदने में विकास के पंजे भूतों की तरह उलटे हो गए थे और वह उलटी दौड़ लगा सकता था।
स्पॉट का नज़ारा
स्थानीय नागरिकों ने पत्रकारों को दिखाया कि जिस जगह विकास मारा गया, वहाँ ज़मीन में ख़ून का कोई धब्बा नहीं था। अगर यह मान भी लिया जाये कि वह बारिश के पानी में घुल गया तो मिट्टी में ख़ून का लाल या पीला रंग दिखना चाहिए था। यानी क्या यह माना जाये कि गोलियों पर ब्लोटिंग पेपर की रैपिंग थी जो ख़ून को सोख ले रही थीं और ज़मीन पर टपकने नहीं दे रही थीं रहस्य-रोमांच कथा है इसलिए मुमकिन है कि विकास के शरीर से टपका ख़ून वहाँ घूमता कोई अदृश्य राक्षस गड़प कर रहा हो।
वह गाड़ी जिसमें विकास दुबे को लाया जा रहा था और जिसका एक्सीडेंट हुआ।
उधर वह पुलिस की गोलियाँ खाकर कच्ची मिट्टी में गिरा था। 'एफ़िडेविट' के मुताबिक़ वहाँ उस समय देर से तेज़ बारिश हो रही थी। लगातार बारिश होने का मतलब है मिट्टी का कीचड़ में तब्दील हो जाना। ‘चंद्रकांता' की कहानी में न तो अस्पताल ले जाने से पहले घायल विकास को किसी धोबीघाट पर ले जाने का कोई ज़िक्र है न यह कि वहाँ कोई राक्षसी प्रकट हुई जिसने उसके कपड़ों की कीचड़ को धो डाला। स्ट्रेचर पर लेटे विकास के कपड़ों पर कीचड़ या मिट्टी का कोई निशान नहीं था।
'एफ़िडेविट' के मुताबिक़ विकास की गोलियों से 2 पुलिसकर्मी घायल हुए। एक की बाईं हथेली और दूसरे की बाईं हथेली और बायीं जांघ ज़ख़्मी हुई थी। एडवोकेट ज़ाफ़री साहब फिर फुटेज में दोनों पुलिस कर्मियों को दिखाते हैं। हथेलियाँ तो दोनों की ज़ख़्मी हैं और पट्टी-शट्टी बंधी है लेकिन किसी की जांघ में पट्टियाँ नहीं दिखतीं। गोली खाकर न तो जांघ का कोई कपड़ा फटा-घिसा है न वहाँ ख़ून का बूँद भर का निशान है।
बुलेटप्रूफ़ जैकेट कथा
घटना वाले दिन न तो पुलिस और न एसटीएफ़ ने अपने अधिकारी टीबी सिंह और उनकी बुलेटप्रूफ़ जैकेट की बाबत कुछ कहा, न ऐसी कोई विज्ञप्ति ही बाहर आयी जो उनकी बुलेटप्रूफ़ की कहानी बताती हो। अलबत्ता 'एफ़िडेविट' में ज़रूर श्री सिंह अपनी 'बुलेटप्रूफ़ जैकेट के साथ बाल-बाल बच जाने' का कथन लेकर प्रकट हो जाते हैं। घटना के बाद घटनास्थल पर सबसे पहले पहुँचने वालों में 'आजतक' और 'टाइम्स नाउ' के मीडियाकर्मी थे। ज़ाफ़री साहब दिखाते हैं कि उनकी फुटेज में कहीं कोई एसटीएफ़ कर्मी बुलेटप्रूफ़ नहीं पहने हैं।
तब आप सुधी दर्शक हमसे यह न पूछें कि क्या एसटीएफ़ में ऐसा कोई प्रोटोकॉल है कि सिर्फ़ अफ़सर की जान पर ही दुश्मन की गोली मेहरबान होगी, सिपाही का सीना ही अपने आप में बुलेटप्रूफ़ होता है!
इस तरह से यूपी पुलिस की यह 'चंद्रकांता' पूरी होती है। हॉलीवुड में और उसकी देखा-देखी। अब बॉलीवुड में भी, बेहतरीन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट लिखी जाने से पहले रिसर्च की एक बड़ी टीम कहानी और प्लॉट के पीछे के एक-एक डिटेल पर शोध करती है ताकि जब वे तथ्य कहानी में आएँ तो बिलकुल सच्चे लगें और उनमें कोई झोल न हो। 'टाइटैनिक' की स्क्रिप्ट के लिए सारी दुनिया में वाहवाही पाने वाले लेखक जेम्स कैमरन का कहना था ‘स्क्रिप्ट की तारीफ़ के लिए कृपया मुझे सिर्फ़ तीस पर्सेंट नम्बर दीजिये। सत्तर पर्सेंट नंबरों की हक़दार हमारी रिसर्च टीम है जिसने मेरी मेज़ पर मेरे लिए सब कुछ प्लेट में पहले से ही परोस रखा था।’
'पानसिंह तोमर' की पटकथा
फ़िल्म 'पानसिंह तोमर' के स्क्रिप्ट राइटर संजय चौहान ने मुझे बताया ‘फ़िल्म की स्क्रिप्ट तो मैंने महीने भर में पूरी कर ली थी हालाँकि रिसर्च में साल भर से ज़्यादा लग गया था।’ संजय चूँकि फ़िल्मों में जाने से पहले पत्रकारिता करते थे लिहाज़ा अपने पुराने पेशे के हाथ आज़माते हुए उन्होंने रिसर्च स्वयं ही की थी। इस तरह तमाम धाँसू फ़िल्मों की धाँसू स्क्रिप्ट के पीछे धाँसू रिसर्च छिपी होती है। ये रिसर्चर बेचारे इतने पर्दों के पीछे छिपे रहते हैं कि उनका न तो कहीं नाम ज़ाहिर होता है और न (हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक) उन्हें कोई इनाम मिलता है।
'गुड पुलिसिंग' का ख़िताब हासिल करने वाली 'लन्दन पुलिस' यूँ तो अपनी एफ़आईआर को फ़िल्मी कहानी बनाने से डरती है, फिर अगर बनानी पड़ भी जाये तो ठीक-ठाक रिसर्च करवा लेती है ताकि स्टोरी में कोई झोल न आये।
यूपी पुलिस के स्क्रिप्ट राइटर बेचारे 'दारोग़ा जी', स्क्रिप्ट लेखन की ट्रेनिंग तो उनकी होती है लेकिन रिसर्च का उनका ज्ञान शून्य ही रह जाता है।
दुनिया की सबसे पुरानी पुलिस 'लन्दन पुलिस' है। सन 1855 में स्थापित इस पुलिस ने अपनी शुरुआत 8 अफ़सरों से की थी और उन्हें 10 हज़ार नागरिकों की देखभाल करनी थी। सन 1869 तक इन अफ़सरों को वार्षिक तनख्वाह के रूप में 50 पौंड मिलते थे। 1870 में लन्दन पुलिस ने अपनी पहली रिसर्च टीम का गठन किया। इसके ठीक 2 साल बाद उन्होंने अपने दंड संहिता में रिसर्च को 'महत्वपूर्ण उपादान' के रूप में शामिल कर लिया। ब्रिटिश लोकतंत्र की माँग थी कि पुलिस की कोई भी कार्रवाई निर्दोष नागरिक को हानि न पहुँचाए और जघन्य अपराधी के साथ भी पशुवत व्यवहार न किया जाये। (उस समय तक इंग्लैंड में पशुओं के साथ क्रूरता न बरतने के क़ानून नहीं बने थे।)
इसी दौरान ब्रिटिश ने भारत सहित अपने औपनिवेशिक देशों में 'पुलिसिंग' की शुरुआत की। आईपीसी की स्थापना 1860 में की गयी थी। इसमें रिसर्च को 'उपादान' के रूप में कहीं शामिल नहीं किया गया। हिन्दुस्तान एक औपनिवेशिक देश था, यहाँ मानवीय मूल्यों की क़दर का कोई 'स्कोप' नहीं था। यहाँ 'प्रोसीक्यूशन' को भी किसी निज़ाम के प्रति जवाबदेह नहीं होना था। यहाँ की पुलिस और प्रोसीक्यूशन-दोनों के लिए 'सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का' नारा ही सच था। दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद के स्वतंत्र भारत में भी सैयां ही कोतवाल बने रहे।
ऐसे में मान लिया गया कि जहाँ जो चाहे वैसा ही करो। पुलिस भी बेख़ौफ़ और 'प्रोसीक्यूशन' भी बेलौस। ऐसे में कोर्ट के सामने कुछ भी स्टोरी बनाकर पहुँच जाओ। अगर डिफेन्स का वकील चैतन्य होगा तो पतलून उतार लेगा, नहीं तो सब बल्ले-बल्ले।
जैसी फ़िल्मी कहानी मैंने आपको ऐसे चर्चित मामले में सुनाई है, कल्पना कीजिये कि उन मामलों में क्या होता होगा जिनके बारे में न कहीं कोई चर्चा है न विवाद। बहरहाल, यूपी पुलिस की इस फ़िल्म को आप कौन सा ग्रेड देना चाहेंगे