प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो चीज़ें सख़्त नापसंद हैं और वे हैं पारदर्शिता और जवाबदेही। इसीलिए उन्होंने पीएम केयर्स फंड को टॉप सीक्रेट बना रखा है। इस फंड को लेकर ढेर सारे सवाल उठाए जा रहे हैं, संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इसमें ग़लत लोगों का ग़लत पैसा आ रहा है। यह भी कि पता नहीं यह धन कहाँ ख़र्च होगा। मगर प्रधानमंत्री इस फंड के बारे में किसी को कुछ भी बताने को राज़ी नहीं हैं। वह लगातार ऐसे क़दम उठा रहे हैं जिससे किसी को पता ही न चले कि उसमें पैसा कहाँ से आ रहा है और कहाँ ख़र्च किया जाना है।
लोकतंत्र में किसी भी सरकार के लिए जवाबदेही और पारदर्शिता सबसे अहम तत्व होते हैं। इनके बिना सरकार की न तो कोई विश्वसनीयता होती है और न ही उसे लोकतांत्रिक माना जा सकता है मगर मोदी इनकी परवाह ही नहीं कर रहे हैं। विपक्षी दलों के सवालों के जवाब में वह चुप रहते हैं और मैनेज करके सीक्रेसी बनाए रखने की कोशिश करते हैं।
ज़ाहिर है कि यह एक तानाशाही प्रवृत्ति है और किसी भी लोकतांत्रिक देश में स्वीकार नहीं की जानी चाहिए।
प्रधानमंत्री ने पीएम केयर्स फंड में ताला लगा दिया है और उसकी चाबी जेब में रख ली है। ऐसे में अब आख़िरी उम्मीद केवल न्यायपालिका से है, जो उन्हें निर्देशित कर सकती है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में निराश कर चुका है मगर अब दो-दो हाईकोर्ट में इससे संबंधित याचिकाएँ दायर हुई हैं और उम्मीद जगी है कि मोदी सरकार को रवैया बदलने के लिए बाध्य होना पड़ सकता है।
वैसे तो पीएम केयर्स फंड पहले दिन से ही विवादों से घिरा हुआ है। प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष के होने के बावजूद एक नया फंड बनाने के औचित्य पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। इन सवालों के संतोषजनक उत्तर मोदी सरकार की तरफ़ से नहीं आए हैं।
पीएम केयर्स फंड 28 मार्च को शुरू किया गया था और कहा गया था कि ये कोरोना महामारी से निपटने और इसी तरह के कामों के लिए बनाया गया है। लेकिन जिस तरह से इसे बनाया गया था, उससे ही संदेह पैदा हो गए थे कि आख़िर इसका मुख्य उद्देश्य क्या है।
संविधान में धारा 266 और 267 में कोष बनाने की प्रक्रिया दी गई है, मगर माना जाता है कि पीएम केयर्स फंड को बनाते समय उसका पालन नहीं किया गया। उसने संसद को बाईपास ही कर दिया ताकि वहाँ उससे कोई पूछताछ न हो और कैग उसकी जाँच न कर सके।
इस बारे में एक जनहित याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी, जिसमें यह कहा गया था कि इस फंड को शुरू करते समय न तो अध्यादेश लाया गया और न ही गजट अधिसूचना जारी की गई। इस याचिका को 13 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दिया था। मगर इससे विवाद ख़त्म नहीं हुआ है। इस फंड के संबंध में दिल्ली और बॉम्बे हाईकोर्ट में दो अलग-अलग याचिकाएँ दायर की गई हैं।
दिल्ली में दायर की गई याचिका का संबंध आरटीआई यानी जानने के अधिकार को लेकर है, जबकि बॉम्बे हाईकोर्ट की याचिका इस फंड की पारदर्शिता और ऑडिट के संबंध में है। पहले बॉम्बे हाई कोर्ट की याचिका की बात करते हैं जिस पर सुनवाई शुरू हो चुकी है। दिल्ली हाई कोर्ट की याचिका पर सुनवाई 9 जून से शुरू होगी।
बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका
बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच के समक्ष सुनवाई के दौरान सरकार ने याचिका को इस आधार पर रद्द करने की माँग की कि इस पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर चुका है। मगर वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने फंड के उन पक्षों पर सुनवाई ही नहीं की है जो इस याचिका में उठाए गए हैं। इसी आधार पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने सरकार से दो हफ़्ते के अंदर हलफ़नामा दाखिल करने को कहा है।
अरविंद वाघमारे ने अपनी याचिका में माँग की है कि सरकार नियमित तौर पर वेबसाइट पर यह बताए कि अभी तक फंड में कहाँ से कितना पैसा आया और वह कहाँ ख़र्च किया गया। याचिका में यह भी कहा गया है कि सरकार फंड के लिए बनाए गए चैरिटेबल ट्रस्ट में विपक्ष के दो नेताओं को भी शामिल करे।
ज़ाहिर है कि इससे सरकार के सामने मुसीबत खड़ी हो सकती है, क्योंकि उसे बताना पड़ सकता है कि फंड मे पैसा कहाँ से आया। यह संदेह ज़ाहिर किया जा रहा है कि इसमें ग़लत लोग ग़लत इरादों से ग़लत पैसा डाल रहे हैं।
इस बारे में एक ख़बर यह आई थी कि हथियारों के एक सौदागर ने एक मोटी रक़म फंड में डाली थी। ज़ाहिर है कि बदले में उसे कुछ आश्वासन दिए गए हो सकते हैं। इसी तरह बहुत से अपराधी, दाग़ी भी धन दे सकते हैं।
दूसरी याचिका दिल्ली हाई कोर्ट में दायर की गई है और इसमें पीएम केयर्स को आरटीआई यानी सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगी गई है। याचिकाकर्ता ने पहले पीएमओ को अर्ज़ी देकर जानकारी माँगी थी, मगर उसे यह कहकर खारिज़ कर दिया गया कि फंड आरटीआई के दायरे में नहीं आता, क्योंकि वह सार्वजनिक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी नहीं है।
इस याचिका में आरटीआई एक्ट का हवाला देकर कहा गया है कि दरअसल, पीएम केयर्स पब्लिक अथॉरिटी है और इसलिए उसे आरटीआई के प्रति जवाबदेह माना जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता का यह भी कहना है कि चूँकि इस फंड का स्वामित्व और नियंत्रण सरकार के हाथों में है और इसमें शुरुआती धन भी सरकार के द्वारा ही उपलब्ध करवाया गया है इसलिए इसे पब्लिक अथॉरिटी ही माना जाना चाहिए।
कहने को सरकार ने बजट के ज़रिए इसमें कोई धन नहीं डाला है मगर विभिन्न मंत्रालयों ने अपने कर्मचारियों को ज़बरन एक दिन की सैलरी देने के लिए कहा और पब्लिक सेक्टर पर भी दबाव डाला गया। रेल मंत्रालय ने भी 150 करोड़ रुपए इसमें डाले जो कि सरकारी धन ही था।
जिस चैरिटेबल ट्रस्ट के ज़रिए यह फंड बनाया गया है उसके अध्यक्ष ख़ुद प्रधानमंत्री हैं और गृह मंत्री, रक्षा मंत्री तथा वित्त मंत्री इसके सदस्य हैं। प्रधानमंत्री को यह अधिकार भी है कि वे दो और सदस्यों को इसमें मनोनीत कर सकते हैं। चूँकि अभी के चारों सदस्य पब्लिक सर्वेंट हैं इसलिए यह फंड भी सरकारी ही कहा जाएगा।
सरकार इस फंड की जाँच कैग से करवाने से मना कर रही है, जो कि संदेह का एक और सबब बन गया है। वह जिस जाँच की बात कर रही है वह तो मैनेज की जा सकती है इसलिए उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है।