कश्मीर एक बार फिर पूरी दुनिया में चर्चा में है। कश्मीर में बहुत बड़े पैमाने पर राजनीतिक बदलाव कर दिए गए हैं। इस बात में दो राय नहीं है कि कश्मीर में जो भी हालात हैं उसके लिए केवल पाकिस्तान की फ़ौज ज़िम्मेदार है। बांग्लादेश में बुरी तरह से हारने के बाद से ही पाकिस्तान की सेना भारत से बदला लेने के लिए तड़प रही है।
जब भुट्टो को बेदख़ल करके जनरल जिया-उल-हक़ ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाया तो यह काम तुरंत शुरू हो गया। फ़ौज को मालूम था कि भारत को आमने-सामने की लड़ाई में तो कोई नुक़सान नहीं पहुँचाया जा सकता है, लेकिन उसको अन्दर से कमज़ोर करने की प्रॉक्सी युद्ध की रणनीति पर काम किया जा सकता है। इसी नीति के तहत कश्मीर और पंजाब में साम्प्रदायिक आधार पर मतभेद पैदा करने की कोशिश शुरू हो गयी थी। उसी दौर में देश के मुसलिम बहुल इलाक़ों में पाकिस्तानी आईएसआई ने बेकार नौजवानों को थोड़ा बहुत आर्थिक मदद करके सिमी आदि संगठनों में भर्ती कर लिया था।
जनरल जिया ने पाकिस्तान में फ़ौज और धार्मिक अतिवादी गठजोड़ कायम किया जिसका ख़ामियाज़ा पाकिस्तानी समाज और राजनीति आज तक झेल रहे हैं। पाकिस्तान में सक्रिय सबसे बड़ा आतंकवादी हाफ़िज़ सईद जनरल जिया की ही पैदावार है।
हाफ़िज़ सईद तो मिस्र के काहिरा विश्वविद्यालय में दीनियात का मास्टर था। उसको वहाँ से लाकर जिया ने अपना धार्मिक सलाहकार नियुक्त किया। धार्मिक जमातों और फ़ौज के बीच उसी ने सारी जुगलबंदी करवाई। हाफ़िज़ सईद की आतंकवादी राजनीति वहीं से शुरू हुई। जनरल जिया की कोशिश से पंजाब में तो आतंकवाद लगभग तुरंत ही शुरू हो गया। विदेशों में रहने वाले सिखों को खालिस्तान की स्थापना और सत्ता का लालच देकर उनको भारत की सरकार के ख़िलाफ़ भड़का दिया गया। पंजाब में रहने वाले सिखों पर भी काम शुरू हो गया। आतंकवाद का डिजाइन ऐसा बनाया गया कि हिन्दू-सिख मतभेद कराया जा सके। हिन्दुओं को बसों से उतार कर मारा गया और भी बहुत से ऐसे काम हुए जिसके बाद देश भर में साम्प्रदायिक माहौल बन जाना था। शुरुआती सफलता मिली भी। भारत की सरकार ने ऑपरेशन ब्लू स्टार करके हालात को बहुत बिगाड़ा लेकिन आतंकवाद में शामिल सिख नौजवानों को अलग-थलग करके वहाँ पर आतंकवाद ख़त्म कर दिया गया।
कश्मीरियत के मायने
उस दौर में कश्मीर में पाकिस्तानी आतंकवादियों को कोई बड़ी सफलता नहीं मिल रही थी। पाकिस्तान की सारी तिकड़म के बावजूद कश्मीरियत एक ऐसी ढाल थी जिसके सामने सब कुछ फ़ेल था। कश्मीरियत का मतलब यह होता है कि वहाँ कश्मीरी पंडित और मुसलमान एक-दूसरे के साथी के रूप में हमेशा से रहते आए हैं। वे एक दूसरे के दुःख दर्द में साथ रहते हैं। अमरनाथ यात्रा, वैष्णो देवी, माँ खीर भवानी सभी हिन्दू मंदिर हैं लेकिन तीर्थ यात्रा का प्रबंध आदि उस इलाक़े के मुसलमान करते रहे हैं। मुसलमानों के धार्मिक स्थलों का सम्मान कश्मीरी पंडित भी उसी उत्साह से करते रहे हैं लेकिन 1990 में यह सब बिगड़ गया। केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी। उनकी सरकार के गृह मंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी और पूर्व मुख्य मंत्री महबूबा मुफ़्ती की बहन, रुबैया सईद का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया।
पाकिस्तान को इतना हाई प्रोफ़ाइल अपहरण करवाने का सीधा फ़ायदा हुआ। आईएसआई ने साबित कर दिया कि कश्मीर में उन्होंने अपनी हैसियत मज़बूत कर ली है। इसी के साथ साथ उन्होंने कश्मीर में हिन्दू-मुसलिम मतभेद पैदा करने का निर्णायक अभियान शुरू किया। कश्मीरी पंडितों को मारना-पीटना शुरू कर दिया। पंडित लड़कियों के साथ बलात्कार की कोशिशें भी शुरू हो गईं। चारों तरफ़ आतंक का माहौल बना दिया।
होना यह चाहिए था कि इस तरह के आतंकवादियों को सरकारी तरीक़े से सही कर दिया जाता, क़ानून का राज कायम किया जाता लेकिन दिल्ली और श्रीनगर की कमज़ोर सरकारों ने आतंकवादियों को मनमानी का मौक़ा दिया।
कश्मीरियत पर पाक की चोट
पाकिस्तानी आतंकवाद की तरफ़ से कश्मीरियत की पहचान पर मर्मान्तक वार किया गया और कश्मीरी पंडित अपना सब कुछ छोड़कर भागने को मजबूर हो गए। 2010 में हालात थोड़े सुधरे थे जब क़रीब बीस साल बाद कश्मीरी पंडितों ने माता खीर भवानी के मंदिर पर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाए। कश्मीर में खीर भवानी देवी का मंदिर गान्दरबल ज़िले में तुलमुला गाँव में है। यह कश्मीरी पंडितों की आस्था का केंद्र है। यह श्रीनगर से 27 किमी दूर है। खीर भवानी देवी के यहाँ खीर चढ़ाई जाती है इसलिए इनका नाम ‘खीर भवानी’ पड़ा। वैसे मूल रूप से माना जाता है कि यह देवी भी महारज्ञा देवी ही हैं जो वैष्णो देवी के रूप में कटरा में विराजती हैं। खीर भवानी देवी विद्या की देवी मानी जाती हैं।
1990 के बाद के हालात
धार्मिक कश्मीरी पंडित के लिए माता खीर भवानी के दर पर सिर झुकाना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है। लेकिन 1990 के बाद से यहाँ के पंडितों को वह नसीब नहीं हुआ। कश्मीर में अस्थिरता चौतरफ़ा मुँह बाए खड़ी थी। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बाबरी मसजिद के नाम पर पूरे देश में विभाजन करने की राजनीति के इर्द-गिर्द राजनीति हो रही थी। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, कांग्रेस में नेतृत्व का संकट था। दुनिया की दूसरी बड़ी ताक़त, सोवियत रूस टूट चुका था। अमेरिका पूँजीवादी विश्व व्यवस्था कायम करने के अपने सपने को पूरा करने के लिए कुछ भी करने को तैयार था। अमेरिकी पैसे से पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक़ ने अपने देश में भारत विरोधी आतंकवादियों की एक फ़ौज खड़ी कर रखी थी और वे कश्मीर में आतंक फैला रहे थे। अमेरिकी साम्राज्यवादी डिजाइन की सफलता की आहट पूरी दुनिया में महसूस की जा रही थी। भारत भी उसकी चपेट में आ चुका था।
एक कश्मीरी, मुफ़्ती मुहम्मद सईद, ही गृह मंत्री की कुर्सी पर मौजूद थे लेकिन हालात बेकाबू हो गए थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह बीजेपी की कृपा से प्रधानमंत्री बने थे और उसके सामने उनका सिर झुका हुआ था। दबाव में आकर उन्होंने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया। जगमोहन ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ काम करना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपने आपको ऐसे साँचे में फिट करने का मौक़ा हथिया लिया कि वे ही कश्मीर में मुसलमानों के खैरख्वाह हैं। आईएसआई और पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों ने बेरोज़गार और अशिक्षित कश्मीरी नौजवानों को आतंक की सेना में भर्ती करना शुरू कर दिया। कश्मीर में अफ़रा-तफ़री मच गयी और भारत के ख़िलाफ़ एक अजीब-सा माहौल बनता गया। बाद में जगमोहन को भी हटाया गया और कश्मीर में स्थिरता लाने की राजनीतिक कोशिश भी की गयी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
कश्मीरी पंडित के दिलों में हूक
कश्मीरी पंडितों की सबसे बड़ी रक्षा कश्मीरियत से होती थी जिसके हिसाब से पड़ोसी मुसलमान उनकी रक्षा करता था लेकिन जगमोहन की नीतियों के चलते इतना बड़ा हिन्दू-मुसलिम मतभेद हो चुका था कि कश्मीरी पंडितों को अपना घर बार छोड़ कर भागने को मजबूर होना पड़ा और उन्होंने दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरू आदि शहरों में शरण ली। बाक़ी देश में भी जहाँ ठिकाना मिला लोगों ने शरण ले ली। हर साल जब भी माता खीर भवानी की पूजा का समय आता था, आंतरिक रूप से विस्थापित कश्मीरी पंडित के दिलों में हूक-सी उठती थी लेकिन घाटी की हालत ऐसी थी कि वहाँ जाकर कोई भी पूजा-पाठ नहीं कर सकता था। देश के बाक़ी शहरों में शरण लेकर अपना वक़्त काट रहे कश्मीरी तड़प उठते थे और घाटी में खीर भवानी के मंदिर के आसपास रहने वाले मुसलमान अपने विस्थापित कश्मीरी पड़ोसियों की याद में मायूस हो जाया करते थे। इसीलिए जब 2010 में खीर भवानी के मंदिर में पूजा का अवसर मिला तो पूरी दुनिया और भारत के कोने-कोने से आये कश्मीरियों को यह लग रहा था कि यह तीर्थ यात्रा एक तरह से घर वापसी की शुरुआत थी।
जब वे अपनी मातृभूमि छोड़कर बाहर जाने को मजबूर हुए थे, उस वक़्त की राजनीतिक हालत और 2010 की हालत में बहुत फर्क पड़ चुका था। पाकिस्तानी आतंकवाद की कमर टूट चुकी थी। यह बात माता खीर भवानी मंदिर में पूजा करने आये पंडितों की सेवा में लगे मुसलमानों की मौजूदगी से लगा। मुसलिम नौजवान तीर्थ यात्रियों के लिए कोल्ड ड्रिंक और पानी का इंतज़ाम कर रहे थे। उसमें कुछ 21 साल के थे जिन्होंने पहली बार खीर भवानी की पूजा देखी और कुछ साठ साल के थे जो अपने बिछुड़े हुए कश्मीरी पंडित पड़ोसियों से गले मिलकर अपनी यादें ताज़ा कर रहे थे। उस वक़्त राज्य के मुख्यमंत्री, उमर अब्दुल्ला थे, वह भी अपनी पत्नी पायल के साथ आये थे और रुंधे हुए गले से एलान किया था कि यही कश्मीरियत है।
कश्मीरियों के बीच किसने खोदी खाई
उमर अब्दुल्ला ने कहा और ठीक कहा कि कश्मीर में निहित स्वार्थ के लोगों ने कश्मीरी अवाम के बीच खाई खोदने की कोशिश की थी। आंशिक रूप से वे सफल भी हो चुके थे लेकिन अब उस गड्ढे को बंद करने का वक़्त आ चुका है। लेकिन बीच में फिर कुछ गड़बड़ी हो गयी और हालात फिर बद से बदतर होते गए। आज तो हालात बहुत बिगड़ चुके हैं। सरकार को बहुत ही सख़्त क़दम उठाना पड़ा है। संविधान का अनुच्छेद 370 ख़त्म कर दिया गया है, कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया गया है और पाकिस्तान को आगाह कर दिया गया है। सबकी निगाह इस बात पर लगी है कि क्या कश्मीरियत बहाल होगी, क्या कश्मीर में हालत सामान्य होंगे और क्या फिर से वादी-ए-कश्मीर जन्नत बन पायेगी। सवाल यह है कि क्या मौजूदा सरकार कश्मीर में शांति बहाल कर पाएगी।