कोविड-19 की चपेट में आये देश के पहले और अभी तक के एक मात्र पत्रकार आगरा के पंकज कुलश्रेष्ठ की मृत्यु का एक माह गुज़र जाने के बावजूद न तो राज्य सरकार और न केंद्र ने एक ढेले की सहायता राशि देने की कोई ज़रूरत समझी। इतना ही नहीं, 'दैनिक जागरण' जहाँ उक्त पत्रकार मुख्य उप सम्पादक के रूप में कार्यरत था और अस्वस्थ हो जाने के बावजूद कई दिनों तक ड्यूटी करता रहा था, मृत्यु के बाद का महीना बीत जाने के बावजूद उसके भीतर भी रत्ती भर की सहायता राशि देने की संवेदना नहीं उपजी। दोनों स्तर पर अपने दिवंगत साथी को मिलने वाली उपेक्षा से आहत शहर के पत्रकारों ने हाल ही में अपने लेबल पर चंदा अभियान छेड़ दिया है। पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा पहले सप्ताह में साढ़े 6 लाख का चंदा इकट्ठा कर मृतक की पत्नी के खाते में जमा करवाया गया है। यह अभियान इस महीने के अंत तक चलेगा।
ग़ौरतलब है कि देश में कोरोना का हमला शुरू होने के साथ ही स्वास्थ्य कर्मियों के संघों और सफ़ाई कर्मचारी संगठनों की माँगों के दबाव में एक-एक करके देश के सभी प्रांतों ने उन्हें 'कोविड वॉरियर' क़रार देते हुए उनके जीवन को 50 लाख रुपये के बीमा कवच से संरक्षित कर दिया। बाद में पुलिस कर्मियों को भी इसी रक्षा कवच के भीतर लाया गया और मृत्यु की स्थिति में उन्हें भी इसी राशि का कवच प्रदान किया गया। न तो केंद्र सरकार और न राज्य सरकारों के ज़हन में कहीं से यह विचार आया कि प्रेस और मीडिया कर्मियों को भी मजबूरन कोविड गतिविधियों को बहुत निकटता से कवर करना पड़ता है और इसलिए वे भी 'कोविड वॉरियर' की श्रेणी में आते हैं।
इस बाबत सबसे पहले दिल्ली राज्य सरकार की चेतना जागी और उसने मीडिया कर्मियों को भी अन्य 'कोविड वॉरियर' की श्रेणी में शामिल करते हुए उन्हें भी 50 लाख का सुरक्षा कवच प्रदान किया। उधर महाराष्ट्र में जब कोरोना तेज़ी से फैला और बड़ी तादाद में मीडियाकर्मी इससे प्रभावित हुए तो वहाँ की राज्य सरकार ने पत्रकारों को भी ‘कोविड वॉरियर’ की श्रेणी में माना और उनके निधन पर अन्य स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिस कर्मियों के समकक्ष 50 लाख रुपये की सहायता राशि का प्रावधान रखा है।
हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट ने भी अपने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में राज्य के प्रेस और मीडिया कर्मियों को भी कोविड वॉरियर का दर्ज़ा प्रदान करते हुए मृत्यु हो जाने की स्थिति में 50 लाख रुपये की क्षतिपूर्ति दिए जाने का राज्य सरकार को आदेश दिया है।
कोविड-19 के हवन में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले पंकज कुलश्रेष्ठ न सिर्फ़ देश के पहले और अभी तक के एक मात्र पत्रकार थे बल्कि जिन हौलनाक हालातों में उनका प्राणांत हुआ वह अत्यंत दुखद है। लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही आगरा के बाक़ी 2 प्रमुख दैनिक ('अमर उजाला' और 'हिंदुस्तान') पत्रों ने अपने सभी कर्मचारियों को घर से काम करने के निर्देश दिए। 'दैनिक जागरण' अकेला ‘वीर पुरुष’ समाचार पत्र था जहाँ पत्रकारों और ग़ैर पत्रकारों को दफ्तर में हाज़िर होना अवश्यम्भावी शर्त बनाया गया। नतीजतन पत्रकार और ग़ैर पत्रकार लाइन से संक्रमित होते चले गए।
जब पानी सर से ऊपर चढ़ गया तो इन संक्रमित या संदेहास्पद पत्रकारों को भर्ती होने यानी क़्वॉरेंटीन हो जाने का आदेश मिला। इनमें से 12 संक्रमित पत्रकारों को शहर से 35 किमी दूर स्थित (एक इंजीनियरिंग कॉलेज को बदल कर आनन फानन में बनाये गए) एक निहायत थर्ड डिग्री 'अस्पताल' में ले जाकर पटक दिया गया। यह वही 'अस्पताल' था जिसमें शटर के पीछे से मरीज़ो को फेंक कर दिए गए बिस्कुट की तसवीरें सारे देश में वायरल हुई थीं। बाक़ी 5 संदेहास्पद लोगों को पत्र के दफ्तर में रखकर बाहर से ताला लगा दिया गया ताकि वे अख़बार के प्रकाशन के तारतम्य को टूटने न दें। 2 शेष संदेहास्पद कर्मचारियों को एक वृद्धाश्रम में क़्वॉरेंटीन होने के लिए छोड़ दिया गया। जो लोग घर पर ही क़्वॉरेंटीन के लिए छोड़े गए उन दुर्भाग्यशालियों में एक पंकज भी थे।
उप्र में हेल्थ सिस्टम की दशा कितनी ध्वस्त है, इसका अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि आगरा के प्रमुख अख़बार के एक वरिष्ठ पत्रकार की हालत जब बिगड़ने लगी तो वह 5 दिन तक मेडिकल कॉलेज में 'टेस्ट' के लिए भटकता रहा।
बड़ी मुश्किल से उनका टेस्ट लिया गया। इसके बाद उनकी रिपोर्ट गुम हो गयी। सातवें दिन जब रिपोर्ट मिल सकी तब तक उनकी हालत बहुत बिगड़ चुकी थी। उन्हें मेडिकल कॉलेज में दाखिल किया गया लेकिन दूसरे दिन उनके प्राण पखेरू उड़ गए।
पहली और दर्दनाक घटना होने के चलते उनके निधन की प्रतिक्रिया पूरे प्रदेश के पत्रकारों में हुई। उनकी मृत्यु के बाद उनके स्थानीय संगी-साथी आगरा ज़िला प्रशासन से और लखनऊ के पत्रकार मुख्यमंत्री और अतिरिक्त मुख्य सचिव से मिल कर अनुदान राशि की माँग करते रहे लेकिन महीना बीतते-बीतते उन्हें आश्वासन से अधिक कुछ नहीं मिला।
तब आगरा के आहत पत्रकारों ने जून के पहले हफ्ते में अपने स्तर पर सहायता कोष का गठन किया और इस तरह सप्ताह भर में उन्होंने साढ़े 6 लाख रुपये शहीद साथी की पत्नी के खाते में जमा करवा लिए। इस राशि में लखनऊ और कानपुर के पत्रकार संघों की मदद भी गिनी जाएगी। संस्थान भले ही मौनी बाबा बना रहा हो लेकिन 'जागरण' के पत्रकारों ने अपने 3 से लेकर 5 दिन तक के वेतन का दान दिया है। सहायता राशि में आगरा के दोनों सांसदों सहित सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का योगदान भी शामिल है। उक्त सहायता अभियान जून के अंत तक चलेगा।