'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा’। ये कहावत महाभारत काल में बनी और आज भी चरितार्थ हो रही है। सत्ता सुंदरी यानी आज की भानुमति को हथियाने के लिए सियासत के दुर्योधनों के बीच जंग है। इस जंग में कई जरासंध भी हैं और अनेक कर्ण भी। अनेक तर्क हैं और अनेक कुतर्क। सब मिलकर अपने-अपने लिए चूं-चूं का मुरब्बा बना रहे हैं।
आज की महाभारत में एक ओर एनडीए है और दूसरी तरफ़ यूपीए। दोनों अपना-अपना कुनबा बढ़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। नतीजा एक-दो दिन में सबके सामने होगा।
सत्ता की भानुमति अब अकेले नहीं हथियाई जा सकती। इसका अपहरण करने के लिए कुनबा बढ़ाना पहली शर्त है। कुनबे में इजाफा अब गठबंधन कहलाता है। गठबंधन कलिकाल में सियासत की ज़रूरत भी है और धर्म भी। ये नया धर्म आज की राजनीति का दीन -ऐ-इलाही धर्म है। इस धर्म का प्रतिपादन करने के लिए आज सत्ता के अनेक मुगल हैं। आपको इन्हें पहचानना है कि कौन अकबर है और कौन अबुल फजल? अकबर का दीन-ऐ- इलाही धर्म फ्लॉप हो गया था लेकिन आज का गठबंधन धर्म सुपरहिट है। इसमें आप कहीं से ईंट लाइए, कहीं से रोड़ा लाइए और सत्ता का क़िला बना लीजिये। हालाँकि गठबंधन से बने क़िले कब भरभरा कर गिर जाएँ कोई नहीं जानता। कभी-कभी ये लम्बे चलते भी हैं और कभी तेरह दिन भी नहीं।
बहरहाल, सत्तारूढ़ एनडीए को मज़बूत बनाने के लिए भाजपा अपने गठबंधन में उन सभी को दोबारा शामिल कर रही है जिन्हें उसने अतीत में लतियाकर भगा दिया था। एनडीए के लिए अब जीतनराम मांझी भी महत्वपूर्ण हैं और बुझे हुए चिराग पासवान ही नहीं बल्कि राजभर साहब भी। ये सभी संख्या बढ़ाने के अलावा किसी काम के नहीं हैं। एनडीए में जो कुछ है सो भाजपा है। बाक़ी एकनाथ शिंदे की शिवसेना है। अब शायद अजित पवार की एनसीपी भी थोड़ा-बहुत काम आ जाये लेकिन बाक़ी के सब नाम के दरोगा हैं। एनडीए गठबंधन के सदस्यों में किसी के पास पांच तो किसी के पास लोकसभा की एक भी सीट नहीं है। एनडीए के तमाम पुराने साथी अब यूपीए के साथ हैं।
यूपीए में सबसे बड़ा दल कांग्रेस है। कांग्रेस की जड़ें जितनी हवा-हवाई हैं उतनीं जमीन में भी हैं। भाजपा एक दशक कड़ी मशक्क्त के बाद भी कांग्रेस को निर्मूल नहीं कर पायी है। कांग्रेस को निर्मूल करने की भाजपा और उसके गठबंधन ने जितनी भी कोशिशें कीं उनका नतीजा उलटा ही हुआ। कांग्रेस मर-मर कर जी उठती है। भाजपा कांग्रेस की पूंछ पर पांव रखती है तो उसका सर बाहर आ जाता है और सर पर पांव रखती है तो पूंछ बाहर निकल आती है। भाजपा के गठबंधन में शामिल दल कांग्रेस को निर्मूल करने के अभियान में भाजपा की मदद ही नहीं कर पा रहे। यहां तक कि बिहार में भी एनडीए गठबंधन इस काम में नाकाम साबित हुआ। बिहार में भाजपा के शत्रु नंबर 2 यानी राजद की सरकार ठप्पे से चल रही है।
गठबंधन में अग्नि की साक्षी नहीं होती इसलिए सभी को ये अधिकार है कि वो जब चाहे तब गठबंधन से बाहर जा सकता है या अंदर आ सकता है। अर्थात ये सात जन्मों का नहीं, बल्कि एक जन्म का भी साथ नहीं है। उदाहरण के लिए एनडीए के साथ रहे तृणमूल हो या जेडीयू हो, आज यूपीए के साथ हैं। किसान आंदोलन के समय अकाली दल ने भी एनडीए का साथ छोड़ दिया था। एनडीए में आजकल में शामिल हुए बिहार के संभागीय हैसियत के दल दोबारा एनडीए का झंडा उठाने के लिए तैयार हैं। तैयार क्या मजबूर हैं, क्योंकि यदि वे ऐसा नहीं करते तो यूपीए उन्हें समाप्त कर सकती है। वे घर और घाट दोनों से जा सकते हैं।
लेकिन एनडीए के दुस्साहस की सराहना करनी पड़ेगी कि वो अपना संख्या बल बढ़ा कर दिखाने के लिए ईंटें तो छोड़िये रोड़े से भी छोटे टुकड़ों को भी इस्तेमाल कर रही है।
अब यूपीए की ओर देखिये। यूपीए के पाले में वे तमाम दल हैं जो कल तक एनडीए में थे। हैरानी तो ये है कि कल तक भाजपा की 'बी' टीम माने जाने वाली आम आदमी पार्टी भी अब यूपीए गठबंधन का हिस्सा है। 'आप' बुझता हुआ चिराग नहीं है और न जीतनराम मांझी या राजभर है। आप की दो राज्यों में सरकार है और पास में राष्ट्रीय दल का तमगा भी जो दुर्भाग्य से तृणमूल तक गँवा चुकी है। लेकिन उसके पास एक बड़े राज्य बंगाल की सरकार है। राजद और जेडीयू के पास भी एक बड़े राज्य बिहार की सरकार है। यानी यूपीए के साथी निहत्थे नहीं हैं। सबके पास सत्ता का हथियार है और जिनके पास नहीं है वे भी कम से कम बुझते हुए चिराग से तो बेहतर हैसियत में हैं।
एनडीए और यूपीए की अक्षोहणी सेनाएँ जब 2024 के महासमर में आमने-सामने खड़ी होंगी तब पता चलेगा कि युद्ध का ऊँट किस करवट बैठने वाला है। अभी तो केवल कवायदें चल रही हैं।
यूपीए के गठबंधन में संख्या के हिसाब से नफरी एनडीए के मुक़ाबले कम नज़र आएगी किन्तु शक्ति के हिसाब से नहीं। मजे की बात ये है कि एनडीए देश की जनता को शक्ति का नहीं संख्या का खेल दिखाकर सत्ता की भानुमति का वरण या अपहरण करना चाहती है। देश की जनता इस समय अभिभूत होने के बजाय विस्मय में है। तमाशा देख रही है क्योंकि पहले ऐसे तमाशे कम ही होते थे।
तमाशबीन जनता को नीर-क्षीर विवेक से काम लेना है। नहीं लेगी तो गड़बड़ हो जाएगी। ये जनता के ऊपर है कि वो 'अहो रूपम, अहो ध्वनि' के साथ कब तक अपना काम चला सकती है। उसे तय करना है कि उसे सस्ता टमाटर और रसोई गैस चाहिए या नहीं?
बहरहाल, वंशवाद के बाद अब कुनबा परस्ती का दौर है। कोई इससे बचा नहीं है। न कांग्रेस और न भाजपा। सियासत की ये कुनबापरस्ती देश को किस दिशा में ले जाएगी, ये आयोध्या में बैठे रामलला ही जानते हैं। वे अपने मन की बात कभी आकाशवाणी पर करते नहीं हैं।
देश की राजनीति आज़ादी के 75 साल बाद आज एक ऐसे मुकाम पर है जहाँ कोई भी दल अकेले दम पर सत्ता संभालने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए समय दोषी है या दलों के नेता कहना कठिन है।
अब लड़ाई विचारधारों के बीच है, दलों के बीच नहीं। समान विचारधारा के लोग मिलजुल कर देश की सेवा करना चाहते हैं। ये एक तरह से अच्छी बात भी है और नहीं भी। सबका साथ और सबका विकास करने के लिए 'विविधता में एकता' के मान्य सिद्धांत के साथ चलना ही श्रेयस्कर है। गठबंधन धर्म की एक सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि अब कोई राजनीतिक दल और विचारधारा अस्पृश्य नहीं रही। आज की राजनीति में सभी के लिए स्थान है। प्रगतिशील हो या घोर साम्प्रदायिक, जातिवादी हो या एकदम पोंगापंथी सब राजनीति की ज़रूरत हैं। एकनाथ हों या अठावले सब चल रहे हैं और सब चलेंगे। क्योंकि ये पब्लिक है। ये सबको चला रही है। जनता का मन चलायमान है।
दक्षिण की जनता पूर्व और पश्चिम की जनता से भिन्न है। दक्षिण में सबके अपने-अपने किले हैं, किलेदार हैं लेकिन वे सब भाजपा और कांग्रेस के सहारे के अपने आपको महफूज नहीं रख सकते। उन्हें भी चाहे -अनचाहे गठबंधन धर्म का साथ देना ही पड़ता है। इस मामले में कोई अपवाद नहीं है। न वाम, न दक्षिण। न पूर्व और न पश्चिम। तो आइये हम और आप इन भानुमतियों की सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करें। हमारे हिस्से में प्रार्थना के अलावा कुछ बचा ही कहाँ है?
(राकेश अचल के फेसबुक पेज से)