निर्भया के बलात्कारियों को फाँसी दे दी गई है। इस मुद्दे पर देश दो धड़ों में बँटा हुआ है। एक धड़ा चाहता है कि फाँसी की सज़ा रखी जानी चाहिए, जबकि उदारवादी खेमा चाहता है कि फाँसी के बजाय मृत्युपर्यंत क़ैद बामशक्कत सज़ा दी जानी चाहिए। फाँसी की सज़ा देने से तो भीतर का डर जाता रहेगा। दोषी और क्रूर हो जाएँगे। प्रगतिशील, उदारवादी खेमा बलात्कारियों के एनकाउंटर के भी ख़िलाफ़ है।
बलात्कार ऐसा अपराध है जिसके लिए कोई माफ़ी नहीं हो सकती। जो लोग फाँसी की सज़ा के ख़िलाफ़ हैं, उनका तर्क है कि मृत्यु अपराधी व्यक्ति की सभी सज़ाओं का अंत है। उसे सज़ा से परे पहुँचा देना है। असली सज़ा तो ज़िंदा रह कर भुगतना चाहिए। फाँसी सी सज़ा से इंसाफ़ क़तई नहीं मिलेगा।
पिछले दिनों सुप्रसिद्ध आलोचक आशुतोष कुमार के एक पोस्ट पर बहुत लंबी बहसें चलीं जिसमें दोनों तरफ़ के लोग अपनी दलीलें दे रहे थे। आशुतोष कुमार का तर्क था कि मृत्युदंड आदिम क़बीलाई समाज की खोज है। क़बीलाई समाज में संख्या का महत्व होता है। एक क़बीले के व्यक्ति को मारा तो हिसाब तभी बराबर होगा जब दूसरे क़बीले का एक व्यक्ति मारा जाएगा। सज़ा व्यक्ति को नहीं, क़बीले को दी जाती है। व्यक्ति का कोई वज़ूद ही नहीं होता।
उनका तर्क यह भी था कि आधुनिक कहा जाने वाला समाज क़बीलों का नहीं, व्यक्तियों का समाज है। गोया समूचा समाज एक ही क़बीला हो। ऐसे समाज में भी मृत्युदंड व्यक्ति को नहीं, समाज को दी गई सज़ा है। समाज ने एक इकाई खोयी है तो इस क्षति की पूर्ति एक और को खोकर कैसे हो सकती है? कुछ अपराधी सुधार से परे होते हैं, इस नतीजे पर पहुँच चुका समाज अपनी रचनात्मकता में विश्वास गँवा चुका है। क्या ऐसा समाज आपराधिक प्रवृत्तियों को नियंत्रित कर सकता है?
प्रसिद्ध दलित विचारक-लेखिका रजत रानी मीनू ने तर्क दिया कि यदि किसी दो चार को फाँसी देने से अपराध रुक जाए तो अवश्य देनी चाहिए। जबकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि फाँसी की सज़ा देने से बलात्कार जैसी घटनाएँ कम हो जाएँगी या बंद हो जाएँगी।
यहाँ पर जितनी बहसें हुईं उनमें ज़्यादा ज़ोर इस बात पर रहा कि इस तरह के अपराध को रोकने के लिए समाज को संवेदनशील बनाना बेहद ज़रूरी है। क्रूरता से केवल क्रूरता जन्म लेती है। आँख के बदले आँख, मौत के बदले मौत तो समाज को केवल जंगल राज की तरफ़ ले जाता है।
प्रगतिशील खेमा का मानना है कि फाँसी राजतंत्र का प्रतीक है। सत्ता के वर्चस्व का प्रतीक है। जबकि हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं। हम फाँसी जैसी बर्बर सज़ा क्यों ढो रहे हैं।
इसके बदले हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि समाज अपनी निरंतरता में बदले। उसे महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। अभी पुरुष प्रधान समाज है जिसकी सोच सत्तानशीं वाली है। उसे मालिक होने का दर्प है। यह बात उसकी चेतना में दर्ज है। वह अकेली महिला पाते ही जाग जाता है। उसकी देह का दमन करना चाहता है। ऐसा इसलिए भी होता है कि भारतीय समाज हमेशा से बंद समाज रहा है। समाज में जितनी बंदिशें होंगी, समाज उतना ही कुंठित होगा। जो भी बलात्कारी है, चाहे किसी वर्ग का हो, किसी जाति, धर्म का, वह अभी तक महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं देता है। अपने घर में महिला को दबा कर रखता है, उसे जीवन में हिस्सेदारी नहीं देता, उसके साथ जीवन साझा नहीं करता है। एक क़िस्म की ग़ैरबराबरी बनाए रखता है। और बाहर में, सड़क के किनारे किसी अकेली लड़की को देख कर हिंसक हो उठता है। यह तभी रुकेगा जब समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिलेगा। ग़ैरबराबरी वाले समाज में फाँसी की सज़ा भी इस अपराध को नहीं रोक सकती। कहीं भी लड़की को अकेली देख कर उनके भीतर का हिंसक मर्द जाग जाएगा। फाँसी से डरा सकते हैं, अपराध ख़त्म नहीं कर सकते। उनके भीतर का डर कभी भी ख़त्म हो सकता है। इसलिए मन परिवर्तन ज़रूरी है, समाज का मन बदलने की ज़रूरत है। किसी को मार देने से अपराध ख़त्म नहीं होता।
106 देश फाँसी के ख़िलाफ़
यहा बता दें कि दुनिया के 106 देश फाँसी की सज़ा के ख़िलाफ़ हैं।
बौद्धिक खेमा यह भी मानता है कि बलात्कारियों के प्रति समाज की, महिलाओं की, हम सबकी तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ होती हैं। जिस पर गुज़रती हैं, उसकी मनोदशा ऐसी ही होती है।
अधिकाँश महिलाएँ बलात्कारियों को सख़्त से सख़्त सज़ा दिलाए जाने के पक्ष में हैं। ख़ासकर वे महिलाएँ जो किसी विचारधारा से नहीं जुड़ीं, जो अपनी भावनाओं के आधार पर अपनी प्रतिक्रिया देती हैं, उन सबके पास सवाल है कि फाँसी नहीं तो क्या?
16 दिसंबर, 2012 की रात, निर्भया का मामला ‘रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर’ था। इतना नृशंस कि उसने देश का कलेजा दहला दिया। क्रूरता भी कांप उठी थी। इसे बर्बरता की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। देशभर में जनांदोलन शुरू हो गए। सरकार पर दबाव बना और क़ानून में अपेक्षित सुधार हुए। उसके बाद से ही बलात्कारियों की सज़ा पर विवाद शुरू हुए। क़ानून भावुक नहीं होता, उसे न्याय की जल्दी नहीं होती। वह अपनी सुस्त गति से काम करता है। कई-कई साल मुक़दमा चलता है। रेप विक्टिम को कोर्ट में बुला कर वही सवाल बार-बार पूछा जाता है। यह कार्रवाई पीड़िता के रेप के बाद बार-बार रेप जैसी हालत कर देती है। उसके जख्म सालों साल नहीं भर पाते।
सवाल अब भी हवा में है। फाँसी नहीं तो क्या? बौद्धिक तबक़ा फाँसी की सज़ा के ख़िलाफ़ है। क़ानून फाँसी की सज़ा बहाल रखे हुए है। प्रतिक्रियावादी भावुक महिलाएँ बलात्कारियों को तड़पा–तड़पा कर मारना चाहती हैं। अपनी आँखों के सामने उन्हें तड़पता देखना चाहती हैं।
क्या इसमें बीच का कोई रास्ता हो सकता है? सरकार और क़ानून को इस पर विचार करना चाहिए। जिससे पीड़िता को न्याय भी मिल सके और राजशाही के दौर की सज़ा फाँसी का प्रावधान ख़त्म हो।