लद्दाख के सीमांत पर भारत और चीन की फ़ौजें अब मुठभेड़ की मुद्रा में नहीं हैं। पिछले दिनों 5-6 मई को दोनों देशों की फ़ौजी टुकड़ियों में जो छोटी-मोटी झड़पें हुई थीं, उन्होंने चीनी और भारतीय मीडिया के कान खड़े कर दिए थे। दोनों तरफ़ के कुछ सेवा-निवृत्त फ़ौजियों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बना दिया था, जैसे कि भारत और चीन में कोई बड़ी मुठभेड़ होनेवाली है। इस मुठभेड़ के साथ नेपाल को भी जोड़ दिया गया। भारत-नेपाल सीमा विवाद को लेकर कई अतिवादी तेवर सामने आ गए। इस तिकोनी लड़ाई को भारत सरकार ने जिस परिपक्वता के साथ संभाला, वह सराहनीय है।
भारतीय रक्षा मंत्री और गृह मंत्री ने दृढ़ता तो दिखाई लेकिन अपनी सीमा-रक्षा को लेकर कोई उत्तेजक बयान नहीं दिया। अब दोनों देशों के फ़ौजी अफ़सरों की बातचीत से तनाव काफ़ी घट गया है। जिन तीन स्थानों से दोनों देशों ने अपनी फ़ौजें 2-3 किलोमीटर पीछे हटा ली हैं, वे हैं- पेट्रोल प्वाइंट, 14, 15, 17। जिन दो स्थानों पर अभी चर्चा होनी है, वे हैं- पेंगांग त्सो और चुशूल! इन दो स्थानों पर भी आशा है कि आपसी समझ तैयार हो जाएगी। भारत चाहता है कि अप्रैल माह में जो स्थिति थी, फ़ौजें, उसी पर लौट जाएँ।
जैसा कि मुझे शुरू से अंदाज़ था कि दोनों देश इस कोरोना-संकट के दौरान कोई नया सिरदर्द मोल लेने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन नेपाल की स्थिति कुछ अलग ही है। वहाँ की आंतरिक राजनीति इतनी विकट है कि उसके प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने मजबूर होकर भारत के विरुद्ध कूटनीतिक युद्ध की घोषणा कर दी है। उन्हें अपनी पार्टी में अपने विरोधियों का मुँह बंद करने के लिए भारत-विरोध का सहारा लेना पड़ रहा है। उन्होंने सुगौली संधि (1816) की पुनर्व्याख्या करते हुए भारत-नेपाल का एक नया नक्शा गढ़ लिया है, जिसे वह अपनी संसद से पास करा लेंगे।
इस नक्शे में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधूरा के क्षेत्रों को वह नेपाली सीमा में दिखा रहे हैं। उनसे कोई पूछे कि इस संवैधानिक संशोधन का महत्व क्या है? ऐसा करने से क्या 200 साल से चले आ रहे तथ्य उलट जाएँगे? भारत तश्तरी में रखकर ये क्षेत्र नेपाल को भेंट कर देगा क्या? क्या नेपाल के पास इतनी ताक़त है कि वह इस क्षेत्र पर अपना फ़ौजी क़ब्ज़ा जमा लेगा? यह ठीक है कि भारत ने इस मुद्दे पर बातचीत में बहुत देर लगा दी है लेकिन बातचीत शुरू करवाने के लिए यह संवैधानिक दबाव बनाना क्या मच्छर मारने के लिए पिस्तौल चलाने-जैसा अतिवाद नहीं है? यह क़दम उठाकर ओली सरकार नेपाली जनता की नज़र में हास्यास्पद बने बिना नहीं रहेगी। नेपाल की यह आक्रामकता अनावश्यक है।