रवीश कुमार को रमन मैगसेसे पुरस्कार मिला है। पत्रकारिता में अदम्य साहस दिखाने के लिये। मैं रवीश से ज़्यादा नहीं मिला हूँ। सिर्फ़ एक बार मैं उसके घर गया हूँ। वैसे हम एक-दूसरे को कम से कम बीस साल से तो जानते ही हैं। टीवी पर होने की वजह से एक-दूसरे से लंबे समय से परिचय है। टीवी की एक ख़ासियत है कि आप इतनी बार एक-दूसरे को देखते हैं कि एक अपनापन सा हो जाता है। ऐसा ही कुछ हमारे बीच हुआ होगा। हम जब भी मिले मुस्करा कर मिले। जब रवीश को रमन मैगसेसे पुरस्कार मिलने के बारे में सुना, तो फ़ौरन फ़ोन किया और बधाई दी।
आज के समय में जबकि पत्रकारिता एक “महान” संकट के दौर से गुज़र रही है, यह ख़बर एक सुखद समाचार है। मन में कहीं किसी कोने में यह विश्वास पुख़्ता होता है कि अभी सबकुछ ख़त्म नहीं हुआ है। हर पत्रकार बिकाऊ नहीं है। सब ने अपना ईमान सत्ता के यहाँ गिरवी नहीं रखा है। सब भांड नहीं हो गये हैं। कुछ हैं जो आज भी ज़िंदा हैं। जिनके लिये महीने के अंत में मिलने वाली तनख़्वाह ही सब कुछ नहीं है। मोटी तनख़्वाह। हरे-नीले नोट ही सब कुछ नहीं हैं।
जीवन के कुछ मूल्य होते हैं। जिनका पालन करना होता है। कुछ आदर्श होते है जिन्हें अपने जीवन में उतारना होता है। मूल्य तो हर काल में बदलते हैं। देश काल के हिसाब से। लेकिन कुछ मूल्य होते हैं जो सार्वभौम हैं, जो नहीं बदलते। पत्रकारिता के भी कुछ मूल्य हैं। ईमानदारी और निर्भीकता, इनसे अलग पत्रकारिता नहीं हो सकती। ऐसी पत्रकारिता सत्ता की दलाल नहीं हो सकती। वह चाटुकारिता नहीं कर सकती, वह संपादकीय स्वतंत्रता के नाम पर सरकार के सारे अच्छे-बुरे को सही नहीं ठहरा सकती। आज के इस युग में जब टीवी टीआरपी की अंधी दौड़ में लगा हुआ है, टीआरपी की परवाह न करते हुए अपनी बात निर्भीकता के साथ रखना और ईमानदारी से तथ्यों की पड़ताल करना ही रवीश की ख़ासियत रही।
ऐसे समय में जबकि लगभग सारे मीडिया संस्थान और संपादकों ने अपनी संपादकीय लाइन सरकार के मनमुताबिक़ कर ली तब भी अपनी लीक पर चलना और बेबाक़ी से अपनी बात कहने का पुरस्कार रवीश को मिला है।
कई लोग ऐसे भी रहे जो रवीश के आदर्शवाद की बंद कमरों में तीख़ी आलोचना भी करते थे। उनका कहना होता था कि हर बार टीवी को गाली देना एक फ़ैशन बन गया है। टीवी को बदनाम करना और उसकी हँसी उड़ाना चलन हो गया है। टीवी के बदलते रूप को समझना होगा। कई बार लगा कि वे शायद सच बोल रहे हैं और कई बार ऐसे लोगों पर क्रोध भी आता था।
मीडिया घरानों ने किया आत्मसमर्पण
2014 के बाद नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही जिस तरह से एक के बाद एक मीडिया घरानों ने आत्मसमर्पण किया, सरकार के चरणों में गिर गये और सुबह से शाम तक स्तुति गान में मगन हो गये तब भी एनडीटीवी ने हार नहीं मानी और सरकार की चमचागिरी करने को तैयार नहीं हुआ। मोदी सरकार का क़हर भी नाज़िर हुआ। उसके ठिकानों पर छापे भी पड़े। ऊल-जुलूल आरोप भी लगाये गये।सरकारी एजेंसियों ने ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की, मानो एनडीटीवी कोई अपराधी हो और वहाँ काम करने वाले घोटालेबाज़। आयकर विभाग और दूसरी जाँच एजेंसियाँ नोटिस पर नोटिस भेजती रहीं और संस्थान को इतना तंग किया गया कि पत्रकारों को एकजुट होकर इसका विरोध करना पड़ा। एक समय ऐसा भी आया कि लगा कहीं प्रणव राय को गिरफ़्तार न कर लिया जाये। हालाँकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। इन सरकारी दाँवपेचों का कोई असर नहीं हुआ।
मोदी सरकार की यह ख़ासियत (मैं तो ख़ासियत ही कहूँगा) है कि अगर किसी ने सरकार के सामने सिर उठाने की हिमाक़त की तो उसे तब तक धकियाते रहो जब तक वह शरणागत न हो जाये।
कोई और मीडिया हाउस होता तो वह नतमस्तक हो जाता लेकिन एनडीटीवी डटा रहा। उसके विज्ञापन सूख गये। कंपनी बंद होने के कगार पर आ गयी। पत्रकारों की छटनी होने लगी। न्यूज़ ऑपरेशन छोटा हो गया।
जो एनडीटीवी बेहिसाब पैसा ख़र्च करने के लिये जाना जाता था, वह एक-एक पैसा बचाने में लग गया। क्योंकि आमदनी ख़त्म होती जा रही थी। घाटा बढ़ता जा रहा था। आशंका यह जतायी जाने लगी थी कि संस्थान को या तो बेच दिया जायेगा या फिर बंद करना पड़ेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। वह अपनी मंद गति से अपनी राह पर चलता रहा। रवीश अपनी बात को मज़बूती से रखते रहे। बीजेपी के नेताओं ने उनके प्रोग्राम में आना बंद कर दिया, तो दूसरे रास्ते निकाल लिये। पर आवाज़ में खनक वही थी। कहने का अंदाज वही था। बदला कुछ भी नहीं।
यह भी अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि एनडीटीवी से ही निकले हैं हमारे एक और मित्र। जो आजकल दो-दो टीवी चैनल के मालिक हैं। रवीश की तुलना में मेरी उनसे ज़्यादा दोस्ती रही है। हमने सालों तक साथ-साथ रिपोर्टिंग की है। वह पत्रकारिता का नया आयाम लिख रहे हैं। सुबह से शाम तक बस एक ही सुर अलापते हैं कि मोदी जी कितने महान हैं और राहुल गाँधी कितने घटिया। सरकार की तारीफ़ और विपक्ष के लिये सबसे ख़राब शब्दों की खोज उनका एकमात्र शग़ल है। उनके भी लाखों समर्थक हैं। उन्हें दक्षिणपंथी कहना दक्षिणपंथ का अपमान होगा। क्योकि पंथ कोई भी हो, ईमानदारी तो उसमें होती ही है।
सच बोलो तो मिलती हैं गालियाँ
पत्रकारिता कैसी भी हो, तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। उसे सत्य का अन्वेषण करना होता है। वह दक्षिणपंथ हो या वामपंथ, अगर वह सत्य से भटकेगा या उससे खिलवाड़ करेगा तो वह पत्रकारिता कैसे कही जा सकेगी। उसे तो भांडगिरी ही कहा जायेगा। पर आज ऐसे भांडों की एक पूरी फ़ौज़ खड़ी हो गयी है, जो सुबह से शाम तक ईमानदारी से ख़बर लिखनेवालों को गालियाँ देती है और उनके समर्थक भी सोशल मीडिया पर माँ-बहन की गालियाँ देते हैं। जान से मारने की धमकी देते हैं। रवीश को भी मिली। ढेरों मिलीं। उसके भाई को भी बदनाम करने की कोशिश की गयी।
सवाल यह नहीं है कि रवीश डरा या नहीं। सवाल यह है कि वह ईमानदारी से अपनी बात कहता रहा या नहीं। जो सच लगा वह बोलता रहा या नहीं। ऐसे समय में जबकि बोलना सबसे बड़ा अपराध हो गया है। तब उसकी ज़ुबान ख़ामोश रही या नहीं।
जबसे मैं आम आदमी पार्टी छोड़कर आया, हर दूसरा आदमी यह सलाह देता है कि ज़्यादा क्यों बोलते हो, चुप रहना भी सीखो। तुम नहीं जानते कि ये कितने ख़तरनाक लोग हैं। ज़िंदगी सलाखों के पीछे गुज़रेगी। यह सलाह तो एनडीटीवी को भी दी गयी होगी और रवीश को भी, पर क्या वो झुके समझौता किया पत्रकारिता दक्षिणपंथी है या वामपंथी, यह हम बाद में बैठ कर तय कर लेंगे। अभी तो इंसान होने का फ़र्ज़ अदा कर लें, यही बहुत है।
रवीश हमें तुम पर नाज है। कलयुग में इंसान होने का मतलब लगातार बताने के लिये। रेने डेकार्ट ने बहुत पहले कहा था - “सोचना, अस्तित्व में होने का प्रमाण है। हम सोचते हैं इसलिये हम ज़िंदा है।” आज के समय में चारों तरफ़ मुर्दे ही दिखायी देते हैं। दिमाग को किसी कालकोठरी में बंद कर दिया गया है। सोचना गुनाह हो गया है। सोचने वाले देशद्रोही हो गये हैं। तब निरंतर बोलना ज़रूरी है। और वह बोलना जो देश और समाज के लिये आवश्यक है। इसलिये यह पुरस्कार उन तमाम लोगों के लिये है जो ज़िंदा रहने की पहली किस्त अदा कर रहे हैं और निरंतर सोच रहे हैं। बधाई रवीश। ढेरों बधाई।