जिन लोगों को भी ये लगता था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ज़बरदस्त वक्ता हैं, उन्हें बुधवार को लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस के जवाब में उनके भाषण से ज़रूर निराशा हुई होगी। विरोधियों से ज़्यादा उनके समर्थकों को उम्मीद थी कि वे अपने भाषण में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी की ओर से उठे सवालों का सिलसिलेवार ढंग से जवाब देंगे और अपने तर्कों और तथ्यों से सारे देश को संतुष्ट करेंगे। लेकिन अफ़सोस कि उन्होंने तमाम गंभीर सवालों के जवाब में सिर्फ़ अपनी पीठ थपथपाई और दावा किया कि उनकी सरकार की तमाम योजनाओं से लाभ पाने वाले करोड़ों लोग इन आरोपों पर कतई विश्वास नहीं करेंगे।
ग़ौर से देखा जाये तो ये ख़तरनाक़ तर्क है। यह कुछ ऐसा है कि विधानसभा और संसद मे चुने जाने वाले माँग करें कि उन पर किसी तरह का मुक़दमा नहीं चलना चाहिए क्योंकि वे जनता की अदालत से पास होकर आये हैं। मोदी जी शायद भूल गये कि इस देश मे राम को भी सीता को पवित्र साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा लेनी पड़ी थी। यह भारतीय मानस में गहरे तक धँसा एक सामान्य सिद्धांत है कि बड़े से बड़े लोगों को भी आरोप लगने पर जाँच से गुज़रना चाहिए।
राहुल गाँधी ने सीधा सवाल पूछा था कि 2014 में 609वें स्थान पर रहने वाला अडानी ग्रुप 2022 में दूसरे नंबर पर कैसे पहुँचा। उनका सीधा आरोप है कि यह मोदी जी की मेहरबानी से हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए ही मोदी जी ने गौतम अडानी को बढ़ाने का जो सिलसिला शुरू किया था उसने उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद हद पार कर दी। मोदी जी अपनी विदेशयात्राओं में अडानी को ले जाने लगे और उनकी कंपनी को ठेके दिलाने में मदद करने लगे। यह याराना पूँजीवाद (क्रोनी कैपटलिज़्म) का उदाहरण है जिसने देश के तमाम अन्य उद्योग समूहों की क़ीमत पर अडानी की झोली में तमाम कारोबार डाल दिया।
राहुल गाँधी ने सीधा सवाल पूछा था कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट में लिखा गया है कि देश के बाहर अडानी की शेल कंपनियां हैं। सरकार बताएं कि ये किसकी कंपनियाँ हैं? इन शेल कंपनियों में किसका पैसा आ रहा है? अडानी हिंदुस्तान के बंदरगाह, हवाई अड्डों और डिफेंस में बड़ा हिस्सा रखते हैं, ऐसे मे ये राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है। दुश्मन देश के लोग भी इन कंपनियों के ज़रिए भारत के सामरिक महत्व की कंपनियों में घुसपैठ कर सकते हैं। राहुल गाँधी ने पूछा था कि प्रधानमंत्री बताएँ कि गौतम अडानी कितनी बार उनके साथ विदेश गये, कितनी बार विदेश में मिले और बीजेपी को इलेक्टोरल बांड के ज़रिए किता पैसा अडानी ने दिया?
राहुल गाँधी के ये सवाल इतने सीधे और समझ में आने वाले थे कि देश प्रधानमंत्री से इसका जवाब सुनना चाहता था। लेकिन जवाब देने के बजाय मोदी जी यूपीए के दौर को कोसने लगे। हालाँकि उन्होंने जो कहा, वह तथ्यों पर खरा नहीं उतरता क्योंकि तब न पेट्रोल सौ रुपये में बिक रहा था और न गैस सिलेंडर के दाम 1100 रुपये का था और न एक डॉलर की क़ीमत ही लगभग 83 रुपये तक पहुँची थी। ये सब तमग़े मोदी शासन के दौर में ही हासिल हुए हैं। मोदी जी ने दावा किया कि 2014 के बाद देश तरक्की की नई ऊँचाई छू रहा है जबकि यूपीए शासन में यह ग़र्त में था। हक़ीक़त ये है कि यूपीए के दस सालों में जीडीपी की औसत विकास दर 6.81 फ़ीसदी थी जबकि मोदी राज में यानी 2014 से 2022 के बीच यह 5.47 फ़ीसदी रही है।
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मोदी जी हिंडनबर्ग रिपोर्ट के ज़रिए सामने आई अडानी ग्रुप की धोखाधड़ी और हेराफेरी पर कोई बात न करते हुए यूपीए शासन के दौर में लगे घोटाले के आरोप गिनाने लगे। हालाँकि इन घोटालों पर उनकी सरकार ने क्या कार्रवाई की या आठ सालों में उनकी जाँच किस निष्कर्ष पर पहुँची, इसका उन्होंने कोई लेखा-जोखा नहीं दिया।
उन्होंने कहा कि जब सामने डिजिटल क्रांति का अवसर था तो टूजी घोटाले के ज़रिए यूपीए सरकार ने मौक़े को मुसीबत में बदल दिया। लेकिन असलियत ये है कि विशेष सीबीआई अदालत 1.76 करोड़ के कथित घोटाले के सभी आरोपियों को बरी करते हुए अपने फ़ैसले में कहा था कि “कुछ लोगों ने चालाकी से कुछ चुनिंदा तथ्यों का इंतज़ाम किया और एक घोटाला पैदा कर दिया जबकि कुछ हुआ ही नहीं था।“
मोदी जी ने अपने जवाब में तंज़ करते हुए दुष्यंत कुमार का एक शेर सुनाया कि “तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मान नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं,” लेकिन उनके अहंकार और ज़मीनी आँकड़ों को देखते हुए यह शेर उन्हीं पर ज़्यादा फिट बैठता है। भारत आज भुखमरी सूचकांक में 107वें, मानव विकास सूचकांक में 132वें, स्वतंत्र प्रेस सूचकांक में 150वें और प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से 144वें स्थान पर है। यही नहीं, 2014 में भारत पर कुल क़र्ज़ 55 लाख करोड़ रुपये का जो अब बढ़कर 155 लाख करोड़ हो गया है और शहरी बेरोज़गारी दर 8.6 फ़ीसदी के उच्च स्तर पर बनी हुई है।
महँगाई का डंक किसी आंकड़े का मोहताज नहीं है। दूध से लेकर ब्रेड तक की क़ीमतों में आये दिन इज़ाफ़ा हो रहा है। बेरोज़गारी सैलाब बनती जा रही है। उधर, ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट बताती है कि भारत के एक फ़ीसदी अमीरों के पास देश की कुल संपत्ति का 40 फ़ीसदी है और 50 फ़ीसदी देशवासियों के हिस्से महज़ 3 फ़ीसदी। विषमता की इस भयानक स्थिति पर किसी सरकार को चिंतित होना चाहिए लेकिन मोदी सरकार इसे ‘अमृतकाल’ बताने में जुटी है।
सबसे गंभीर बात तो ये है कि 2020-21 में उज्जवला योजना के 92 लाख लाभार्थी दोबारा सिलेंडर नहीं भरवा पाये हैं लेकिन मोदी जी का दावा है कि सरकारी योजना के करोड़ो लाभार्थी उन आरोपों पर यक़ीन नहीं कर पायेंगे जो विपक्ष उन पर लगा रहा है। इस सिलसिले में उन्होंने चुनावों में मिली जीत की भी दलील दी। किसी लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री की ओर से ऐसी दलील देना हैरान करने वाला है। बतौर विपक्षी दल बीजेपी भी तमाम आरोपों की जाँच की माँग करती थी और वे होती भी थीं।
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जिस यूपीए शासन से मोदी जी अपने दौर की तुलना कर रहे हैं, उसमें आरोप लगने पर मंत्रियों को इस्तीफ़े ही नहीं देने पड़ते थे, उन्हें जेल भी जाना पड़ता था। भले ही वे आज बरी हो गये हों।
प.नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के समय तक गंभीर आरोपों पर जाँच कराने की रवायत रही है। लेकिन महाबली मोदी जी में ये हिम्मत नहीं कि वे अपनी सरकार पर लगे आरोपों की जाँच भी होने दें। ख़ुद ही मुंसिफ़ बनकर ख़ुद को बरी करने का ये रवैया बेहद दयनीय है। भारत के प्रधानमंत्री को यह शोभा नहीं देता। हर देशवासी के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए। विरोधी ही नहीं, समर्थकों के लिए भी!(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)