नेहरू परिवार की राजनीतिक विरासत की आलोचना करने वाले लोग अक्सर गाँधीजी से उनकी तुलना किया करते थे कि देखिए, गाँधीजी ने अपने बच्चों को बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया और इसका प्रमाण यही है कि उनका एक भी बच्चा आज राजनीति में नहीं है।
मगर अपने किसी बच्चे के लिए ‘कुछ नहीं’ करने के लिए तारीफ़ पाने वाले गाँधीजी को अपने ही एक बेटे की यह शिकायत भी सुननी पड़ी कि उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया। हम हरिलाल की बात कर रहे हैं जो गाँधीजी के सबसे बड़े बेटे थे और दक्षिण अफ़्रीका में आंदोलनों में भाग लेने के कारण उन्होंने क़रीब डेढ़ साल तक जेल की सज़ा काटी थी। इसी की वजह से उनको छोटा गाँधी भी कहा जाने लगा था। लेकिन कुछ ही सालों में बाप-बेटे के बीच ऐसे मतभेद उभरे कि हरिलाल दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौट आए और उसके बाद दोनों के बीच संबंध बिगड़ते ही चले गए।
मतभेद की दो वजहें थीं और दोनों ही शिक्षा से जुड़ी हुई थीं। यह तो आप जानते ही होंगे कि गाँधीजी के सिद्धांत बाक़ी दुनिया से काफ़ी अलग थे, चाहे मामला राजनीति का हो या व्यक्तिगत जीवन का। वह ढर्रे के हिसाब से बहने के आदी नहीं थे और जो उनको सही लगता, उसे ही जीवन में अपनाते थे। ऐसा ही एक विचार उनका यह था कि पारंपरिक स्कूली शिक्षा से चरित्र का विकास नहीं होता और इसीलिए उन्होंने अपने चारों बेटों को कभी पारंपरिक स्कूली शिक्षा नहीं दी।
अपने बड़े बेटे हरिलाल को हालाँकि कुछ समय के लिए उन्होंने गुजरात भेजा ताकि वह मातृभाषा में शिक्षा हासिल करे मगर कुछ समय बाद वापस बुला लिया। बाद में हरिलाल ज़िद करके वापस गुजरात गए लेकिन कई कोशिशें करने के बाद भी दसवीं की परीक्षा पास नहीं कर सके और इस कारण उनका कोई करियर नहीं बन सका।
बैरिस्टर बनना चाहते थे हरिलाल
हरिलाल का एक सपना था। वह अपने पिता की तरह लंदन जाकर बैरिस्टर बनना चाहते थे। ऐसा एक मौक़ा भी आया जब गाँधीजी के मित्र एवं हितैषी प्राणजीवन मेहता ने उनके जनसेवा के कार्यों से प्रसन्न होकर उनके बेटों के लिए लंदन जाकर पढ़ने के लिए आर्थिक मदद देनी चाही लेकिन गाँधीजी ने वह स्कॉलरशिप आश्रम के ही एक अन्य किशोर को दे दी क्योंकि उनके अनुसार वह ज़्यादा योग्य था। बाद में वह किशोर अपनी पढ़ाई पूरी किए बिना ही भारत लौट आया। तब गाँधीजी के पास एक और मौक़ा था कि वह यह स्कॉलरशिप हरिलाल को दे देते। लेकिन इस बार उन्होंने आश्रम के ही एक और लड़के को लंदन भेज दिया।
गाँधीजी के पोते (उनके सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी के बेटे) और उनकी जीवनी (Gandhi - the man, his people and the Empire) के लेखक राजमोहन गाँधी अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में गाँधीजी द्वारा लिए गए फ़ैसलों को सही ठहराते हुए कहते हैं, ‘अपने बच्चों को प्राइवेट यूरोपियन स्कूलों में भेजकर वे भारतीय समुदाय से कट जाते। इसके बदले उन्होंने यह ठीक समझा कि अपने सिद्धांतों पर टिके रहें, भले ही उनके बच्चे इससे नाराज़ हो जाएँ। एक नेता का यही तो लक्षण है कि वह परिवार का दायरा इतना बढ़ा दे कि सारा देश उसमें समा जाए और इसीलिए वे अपने बच्चों के लिए अलग से कुछ नहीं करते।’
लेकिन हरिलाल के लिए यह एक सपने के टूटने के समान था और उन्हें लगा कि गाँधीजी एक आदर्श पिता की भूमिका नहीं निभा रहे हैं। हरिलाल की इस मानसिकता को समझाते हुए राजमोहन कहते हैं, ‘गाँधीजी को अपने बेटों से भारी अपेक्षाएँ थीं और बेटों के लिए बहुत मुश्किल था उन अपेक्षाओं पर खरा उतरना।’
राजमोहन कहते हैं, ‘जब गाँधीजी दक्षिण अफ़्रीका गए तो वहाँ उन्होंने बैरिस्टर के रूप में काफ़ी कामयाबी पाई और हरिलाल ने भी लंबे समय तक वे अच्छे दिन देखे। लेकिन बाद में जब गाँधीजी राजनीतिक संघर्षों में जुट गए और ब्रह्मचर्य तथा ग़रीबी का जीवन अपना लिया तो हरिलाल के लिए यह एक झटके के समान था। बाक़ी तीन बच्चों ने वह ख़ुशहाल ज़िंदगी कभी देखी नहीं थी, इसलिए उन्हें इस नई जीवन शैली से परेशानी नहीं हुई।’
1911 में 23 साल की उम्र में हरिलाल ने परिवार से नाता तोड़ लिया। पाँच साल पहले उन्होंने पिता की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली थी और उनके पाँच बच्चे थे। इनमें से दो बच्चों की कम उम्र में ही मौत हो गई। घरबार चलाने के लिए उन्होंने कई काम किए, बिज़नेस भी किया लेकिन कहीं भी कामयाब नहीं हुए। नौकरी की तो वहाँ ग़बन का मामला पकड़ा गया, बिज़नेस किया तो कंपनी ही डूब गई और साथ ही कई लोगों का पैसा भी डूब गया।
दुखी करने की ठान चुके थे हरिलाल
1918 में पत्नी की मौत के बाद हरिलाल शराब के आदी हो गए थे। गाँधीजी ने उनके बच्चों को अपने साथ रख लिया और हरिलाल से भी आग्रह किया कि वह भी उनके साथ रहें। लेकिन हरिलाल तो जैसे ठान चुके थे कि उनको वह सब करना है जिससे गाँधीजी दुखी हों। पता नहीं, यह कैसी प्रतिक्रिया थी कि हरिलाल ने वह सबकुछ किया जिसके गाँधीजी ख़िलाफ़ थे।
जब गाँधीजी विदेशी कपड़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे थे तो हरिलाल विदेशी कपड़ों को बेचकर हज़ारों कमाने की सोच रहे थे, जहाँ गाँधीजी अपना पैसा समाज और देश पर न्यौछावर कर रहे थे तो हरिलाल पराया पैसा अपना बनाने के चक्कर में लगे हुए थे।
गाँधीजी शराब के बिल्कुल ख़िलाफ़ थे तो हरिलाल से शराब छूट ही नहीं रही थी। और तो और, गाँधीजी जो हिंदू धर्म के प्रति घोर आस्था रखते थे तो हरिलाल ने इस्लाम ग्रहण कर लिया और अपना नाम अब्दुल्ला गाँधी रख लिया था।
हरिलाल की नतिनी नीलम पारिख जिन्होंने अपने नाना पर एक किताब लिखी है - ‘गाँधीजी’ज़ लॉस्ट जूल - हरिलाल गाँधी’ मानती हैं कि गाँधीजी के विरोधियों ने उन्हें नीचा दिखाने के लिए बार-बार उनके नाना का इस्तेमाल किया। मसलन जिन लोगों ने हरिलाल का धर्म परिवर्तन करवाया, उन्होंने उनका सारा कर्ज़ चुका दिया। और हरिलाल ख़ुद कितने चंचलमना थे, यह इससे भी पता चलता है कि कुछ ही महीनों बाद वह वापस हिंदू धर्म में आ गए।
गाँधीजी और हरिलाल में नहीं बनने की एक और वजह भी थी। मई 2014 में प्रकाश में आए एक पत्र से मालूम होता है कि हरिलाल ने अपनी बाल विधवा साली से ज़बरदस्ती की थी और यह बात ख़ुद उनकी बेटी मनु ने गाँधीजी को बताई थी। गाँधीजी ने इस पत्र में लिखा है, ‘मनु ने मुझे बताया है कि तुमने आठ साल पहले उसके (साली के) साथ ज़बरदस्ती की थी और इस कारण उसको चिकित्सा करानी पड़ी।’
जिस कंपनी ने इस पत्र की नीलामी की थी, उसने गुजराती में लिखे इस पत्र का जो अंग्रेज़ी अनुवाद किया था, उससे यह अर्थ निकलता था कि मनु ने पिता द्वारा ‘अपने साथ’ रेप किए जाने की शिकायत की है। लेकिन गाँधीजी के दूसरे बेटे मणिलाल के पोते तुषार गाँधी ने इसका खंडन करते हुए कहा कि उन्होंने गुजराती में मूल पत्र को पढ़ा है और इसमें ‘उस’ का तात्पर्य हरिलाल की साली से है न कि मनु से।
लेकिन रेप तो रेप है। वह चाहे किसी से भी किया जाए। कोई भी समझ सकता है कि गाँधीजी को जब उनकी पोती ने अपने पिता के बारे में यह जानकारी दी होगी (कि उन्होंने अपनी साली के साथ बलात्कार किया था) तो अपने बेटे का यह पतन देखकर वह कितने व्यथित हुए होंगे।
हरिलाल के बारे में जब हम किताबों, पत्रों या फ़िल्म या नाटक के ज़रिए जानते हैं तो वह एक बुरे व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं जिसमें नैतिकता नाम की कोई चीज़ नहीं है। शराबखोरी, ग़बन, धोखाधड़ी, वेश्यागमन, बलात्कार - क्या बुराई नहीं थी उनमें! मगर यह पूरी तरह संभव है कि यह सबकुछ घोर हताशा का परिणाम रहा हो। शुरुआत में वह बिल्कुल हम और आप ही के जैसे व्यक्ति थे। एक आम इंसान जो एक अच्छी ज़िदगी चाहता है, परिवार और बच्चों के साथ रहना चाहता है। जो दुनिया के बारे में उतना ही सोचता है, जितने से उसका काम चल जाए। वह उतना ही स्वार्थी है जितने कि हम और आप।
परंतु मुश्किल यह थी कि हरिलाल एक ऐसे नामी व्यक्ति के पिता थे जिनसे हमेशा उनकी तुलना की जाती थी और वह हमेशा उनके सामने बौने नज़र आते थे। शायद इसीलिए गाँधीजी को ‘दुनिया का महानतम पिता’ बताने के साथ-साथ वह यह भी कहते थे, ‘एक ऐसा पिता जैसा कि मैं नहीं चाहता था।’
नलिनी पारिख जिन्होंने गाँधीजी और हरिलाल के बीच के कई पत्र पढ़े हैं, हरिलाल की इस व्यथा को इन शब्दों में उकेरती हैं, ‘हरिलाल हमेशा एक पिता को खोजते थे लेकिन जवाब उनको एक महात्मा से मिलता था।’
हरिलाल का यह हाल क्यों हुआ, इसके बारे में अलग-अलग राय हो सकती हैं। कोई कह सकता है कि गाँधीजी को अपने विचार, अपने आदर्श अपने बेटों पर थोपने का कोई अधिकार नहीं था। हर व्यक्ति का एक स्वतंत्र अस्तित्व है और जब हरिलाल पारंपरिक स्कूली शिक्षा पाना चाहते थे या लंदन जाकर बैरिस्टरी पढ़ना चाहते थे तो उनको एक मौक़ा मिलना चाहिए था। कहा जा सकता है कि गाँधीजी ने अपने आदर्श हरिलाल पर थोपकर उनको कहीं का नहीं रखा।
मगर गाँधीजी की मुश्किलें भी कम नहीं थीं। वह अपने किसी भी बच्चे को वह काम करने की अनुमति कैसे दे सकते थे जिसके ख़िलाफ़ वह ख़ुद दुनियाभर में प्रचार करते थे। जिस तरह कश्मीरी नेताओं की आज यह कहकर आलोचना की जाती है कि वे कश्मीर में स्कूल-कॉलेज बंद कराकर कश्मीर के बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहे हैं लेकिन अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ा रहे हैं, वैसी ही बात क्या गाँधीजी के बारे में नहीं कही जाती
अपनी मौत से कुछ समय पहले गाँधीजी ने हरिलाल के बारे में कहा, ‘मुझे अफ़सोस है कि दो लोगों को मैं अपनी बात नहीं समझा पाया। एक मेरे काठियावाड़ी मित्र मुहम्मद अली जिन्ना और दूसरा मेरा बेटा हरिलाल।’
गाँधीजी मानते हैं कि अपने बेटों की शिक्षा में उनसे कोई कमी रह गई है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, ‘मैं यदि अपने व्यस्त समय से रोज़ कम-से-कम एक घंटे का नियमित समय निकालकर बेटों को किताबी शिक्षा दे पाता तो उनकी शिक्षा पूर्ण हो जाती लेकिन यह उनके और मेरे लिए भी अफ़सोस का विषय रहा है कि मैं ऐसा नहीं कर पाया। मेरे बड़े बेटे ने तो मुझसे निजी तौर और सार्वजनिक रूप से प्रेस में भी अपनी पीड़ा का इज़हार किया है लेकिन मेरे बाक़ी बच्चों ने इसे अपरिहार्य मानकर मुझे माफ़ कर दिया है।’
हम नहीं जानते कि हरिलाल ने अपने पिता को ‘इस भूल’ के लिए कभी माफ़ किया या नहीं। हम यह भी नहीं जानते कि गाँधीजी ने अपने बेटे की चारित्रिक दुर्बलताओं के लिए उनको क्षमा किया या नहीं। हम बस यह जानते हैं कि जनवरी 1948 में नाथूराम गोडसे के हाथों पिता के निधन के कुछ ही महीनों बाद बेटा भी इस दुनिया से विदा हो गया। बंबई के जिस अस्पताल में हरिलाल भर्ती थे, वहाँ उनके निधन से पहले कोई नहीं जानता था कि वह गाँधीजी के पुत्र हैं।
गाँधीजी के निजी जीवन पर आधारित यह सीरीज़ अब अपने अंतिम पड़ाव पर है। अब तक की पाँच कड़ियों में हमने आपको यह बताने की कोशिश की कि अपने विचारों और कार्यों से दुनिया भर में सम्मान पाने वाला और कई बड़ी-बड़ी हस्तियों को प्रेरणा देने वाला यह व्यक्ति शुरू में कैसे हम और आप ही की तरह आम इंसान था और कुछ सिद्धांतों और विचारों पर अमल करके वह कैसे हम सबसे अलग हो गया।
हमें उम्मीद है कि हमारी इस सीरीज़ से आपको एक इंसान के रूप में गाँधीजी को समझने का मौक़ा मिल रहा होगा। यदि आप हमारी पिछली कड़ी को पढ़ने से रह गए हैं तो इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।
आगे की दो कड़ियों में हम आपको बताएँगे कि कैसे गाँधीजी ने वकालत के पेशे में भी अपनी सच्चाई और ईमानदारी के सिद्धांत को क़ायम रखा। एक बार जब उनको सुनवाई के दौरान पता चला कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठा मुक़दमा करवाया है तो उन्होंने भरी अदालत में अपना केस वापस ले लिया। यही नहीं, कई मौक़ों पर उन्होंने दोनों पक्षों के बीच समझौते भी कराए ताकि मुक़दमेबाज़ी में उनका पैसा और श्रम नष्ट न हो।