शरद पवार-केजरीवाल मुलाक़ात : एक सपने की मौत

01:10 pm Mar 16, 2019 | आशुतोष - सत्य हिन्दी

वह राजनीति बदलने आये थे और राजनीति ने ख़ुद उनको ही बदल दिया। अगर आज कोई आम आदमी पार्टी की कहानी लिखना चाहे तो इससे बेहतर टिप्पणी नहीं हो सकती। 2012 में जब आम आदमी पार्टी बनी थी उसका एकमात्र नारा था- 'लोग देश की राजनीति और राजनेताओं से ऊब चुके हैं, उनसे कोई उम्मीद नहीं है, और अब ‘आप’ इस राजनीति को बदलेगी।' पर 2019 आते-आते ‘आप’ हाँफने लगी है और अब उसमें और दूसरी राजनीतिक दलों में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है। वह भी दूसरी पार्टियों जैसी ही हो गयी है, वह भी दूसरे दलों की तरह ही बर्ताव कर रही है। ऐसे में अगर हमारे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ये कहते हैं कि देखो 'कितना बदल गया इंसान' तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिये। अजीत कुछ ज़्यादा ही तल्ख़ हैं। पर यह तल्ख़ी सिर्फ़ उनकी नहीं है। दिल्ली और देश के कोने-कोने में बैठा हर वह शख़्स तल्ख़ है जिसने ‘आप’ से यह उम्मीद पाल रखी थी कि अब देश बदलेगा, बदलेगी देश की राजनीति और बदलेगी भ्रष्ट व्यवस्था।

2012 के बाद से ‘आप’ की सरकार दिल्ली में दो बार बनी। पहली सरकार सिर्फ़ 49 दिन चली। तब अरविंद केजरीवाल इस्तीफ़ा देकर घर बैठ गये थे। 2015 में दुबारा दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए। 

2015 में ‘आप’ को लोगों ने इतना वोट दिया कि चुनावी राजनीति में एक नया रिकॉर्ड बना। उसे 70 में से 67 सीटें मिलीं। किसी नयी पार्टी के लिये यह ऐतिहासिक था। पूरे देश की नज़र ‘आप’ पर लग गयी कि यह पार्टी एक नया इतिहास लिखेगी।

उस वक़्त कांग्रेस मरणासन्न अवस्था में थी। लोग कांग्रेस का मर्सिया पढ़ने को तैयार थे। ‘आप’ उगता हुआ सूरज थी। अरविंद केजरीवाल में लोग देश का भविष्य देख रहे थे। उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री मान कर लोग चल रहे थे। बड़े-बड़े जानकारों और राजनीति के पंडित यह लिखने लगे थे कि मोदी को अगर कोई एक शख़्स चुनौती दे सकता है तो वह शख़्स है अरविंद केजरीवाल। राहुल को तब सब चुका हुआ कारतूस मान रहे थे। राहुल कहीं गिनती में नहीं थे। लोग मान रहे थे कि ‘आप’ आख़िरकार कांग्रेस की जगह लेगी। पर गुरुवार को जब ‘आप’ अपनी सरकार की चौथी सालगिरह मना रही थी तो यह सवाल पूछना पड़ेगा कि नये भारत का वे ख्वाब, वे सपने, वे उम्मीदें, वे आशायें और वे आकांक्षाएं आज कहाँ हैं

  • उन सपनों को दिखाने वाले जादूगर आज किस दुनिया की सैर में व्यस्त हैं और क्या वे सपने आज ज़िंदा भी हैं या उन सपनों की असमय मौत तो नहीं हो गयी है और अगर वे सपने ज़िंदा नहीं बचे हैं तो उसकी मौत के ज़िम्मेदार कौन हैं  क्योंकि किसी भी साँस लेते समाज के लिये सबसे ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना।

क्या ‘आप’ में लोगों को भविष्य दिखता है

पिछले चार सालों में कुछ तो हुआ है कि आज ‘आप’ में लोगों को भविष्य नहीं दिखता। वह तसवीर देख कर तकलीफ़ होती है जिसमें वह शरद पवार के घर से निकलते समय ममता बनर्जी, पवार और राहुल के पीछे दिखते हैं। कैमरे इन नेताओं के पीछे भागते हैं। उनको शायद केजरीवाल की बाइट की दरकार नहीं थी। वह जानना चाहते थे कि विपक्षी दलों की बैठक में मोदी विरोधी मंच का स्वाभाविक नेता कौन होगा। नये गठबंधन का स्वरूप क्या होगा। और इस गठबंधन में कौन-कौन से दल होंगे, उनके बीच का रिश्ता क्या होगा, और किन मुद्दों पर एक आम सहमति बनेगी। 

  • 2015 का वक़्त होता तो कैमरे केजरीवाल के पीछे भाग रहे होते। वह ख़बरों के केंद्र में होते और उनकी राय सबसे अहम होती।

तब केजरीवाल के लिए पवार थे सबसे भ्रष्ट नेता

कैमरों की धमाचौकड़ी के बीच सबसे दिलचस्प तसवीर थी शरद पवार और केजरीवाल की। इस तसवीर को देख कर सहसा सबको याद आती होगी जंतर-मंतर पर केजरीवाल की पंद्रह दिनों की भूख हड़ताल। तब उन्होंने अपने साथियों के साथ देश के नामचीन पंद्रह बड़े नेताओं की तसवीरें जंतर-मंतर पर टाँग रखी थी। उनकी माँग थी कि इन नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के ज़रिये इन आरोपों की जाँच हो और कड़ी से कड़ी सजा मिले। शरद पवार का नाम उस सूची में सबसे ऊपर था। केजरीवाल पवार को देश का सबसे भ्रष्ट नेता कहते थकते नहीं थे। 

तब मंच साझा भी नहीं करते थे

सरकार बनने के बाद कई ऐसे मौक़े आये जब केजरीवाल ने पवार के साथ मंच साझा करने से साफ़ मना कर दिया था। वह उनके साथ किसी भी तरह की दोस्ती के पक्ष में नहीं थे। 

विपक्ष के कई नेताओं ने तब दोनों को एक मंच पर लाने की कोशिश भी की थी, पर हर बार केजरीवाल पवार से मिलने से कन्नी काट गये। पर आज वही केजरीवाल उन्हीं पवार के घर में बैठ कर भविष्य की राजनीति की चर्चा कर रहे हैं।

दिल्ली में विपक्षी दलों की एक रैली में शरद पवार, अरविंद केजरीवाल और अन्य।ट्विटर/शरद पवार

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तो इसका क्या अर्थ निकाला जाये जिनको गरियाते थे, जिनको धकियाते थे, जिनका चेहरा देखना पसंद नहीं करते थे, अब उन्हीं से गलबहियाँ कर रहे हैं, तो क्या यह सवाल नहीं पूछना चाहिये कि पिछले चार सालों में कौन बदला देश बदला या बदल गयी देश की राजनीति 

  • जहाँ तक मुझे लगता है न तो देश बदला है और न ही बदली देश की राजनीति। तो फिर बचा क्या निष्कर्ष पानी की तरह साफ़ है- बदल गये हैं केजरीवाल।

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अब लोकपाल का ज़िक्र भी नहीं 

‘आप’ की राजनीति के मूल में था भ्रष्टाचार। क्योंकि ‘आप’ मानती थी कि भ्रष्टाचार ही भारत देश की सारी समस्याओं की जड़ है। अन्ना का आंदोलन भी लोकपाल की नियुक्ति की माँग को लेकर था। अब सरकार में आने के बाद न तो लोकपाल का ज़िक्र है और न ही शरद पवार के साथ बैठने में कोई हिचक है। याद दिला दें कि सरकार बनने के बाद लालू यादव ने केजरीवाल को एक कार्यक्रम के लिये पटना बुलाया था जहाँ एक मंच पर लालू यादव और केजरीवाल खड़े थे। लालू यादव ने केजरीवाल का हाथ पकड़ रखा था। इस तसवीर ने हंगामा खड़ा कर दिया था। टीवी चैनलों पर ख़ूब ख़बर चली और केजरीवाल को जवाब देना पड़ा था कि सरकार के कार्यक्रम में गये थे और लालू ज़बरन गले लग गए थे। 

  • यानी यह वह वक़्त था जब लालू और शरद के साथ खड़े होना केजरीवाल के लिये गुनाह था, पाप था। एक दिन वह है जब वह शरद पवार के साथ उनके घर में चुनाव की गोटियाँ फ़िट कर रहे हैं। यह फ़र्क़ सिर्फ समय का नहीं है और न ही स्थान का है। यह फ़र्क़ उनकी राजनीति में आये बदलाव का है।

सत्ता अपने रंग में रंग देती है

सत्ता का एक चरित्र होता है। वह धीरे-धीरे व्यक्तियों, परिस्थितियों और घटनाओं को अपने अनुरूप कर लेती है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर कहा करते थे कि वह राजनीति को बदलने आये और कब वह ख़ुद बदल गये पता ही नहीं चला। चंद्रशेखर निहायत तेज़तर्रार नेता थे। उन्हें भारतीय राजनीति में 'युवा तुर्क' का दर्जा दिया जाता है। लोगों को उनमें भारतीय राजनीति का सूर्य दिखता था। 1983 में उन्होंने भारत यात्रा की थी। वह प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन कर उभर रहे थे। 

  • 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या ने समय के चक्र को बदल दिया और निराश चंद्रशेखर धीरे-धीरे अपनी कुंठा में ‘बदल’ गये। वह भारत के भावी प्रधानमंत्री से भोड़सी आश्रम के ‘बाबा’ हो गये। क्रूर राजनीति ने तब अट्टहास लगाया था। वैसे ही जैसे आज राजनीति केजरीवाल पर अट्टहास लगा रही है। 

किसी नेता में अपने उसूलों पर चलने का माद्दा नहीं

यह पतन किसी राजनेता का नहीं है। यह इस देश की बदक़िस्मती है। गाँधी के बाद जिन-जिन से उसने आस लगायी उसने उसके साथ छल किया। छल किया, क्योंकि गाँधी की तरह अपने उसूलों पर चलने का माद्दा नहीं था, उसूलों के लिये सब कुछ क़ुर्बान करने का नैतिक बल नहीं था, देश काल को बदलने के लिये जो धैर्य होना चाहिये था वह धैर्य नहीं था, और सबसे बड़ी बात नैतिकता का लबादा एक झूठा आवरण था। जनता पार्टी के नेताओं को इस बात की जल्दी थी कि कैसे उन्हें सत्ता मिले, प्रधानमंत्री पद मिले। आपातकाल की लड़ाई उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिये एक मज़बूत ढाल था जो सत्ता मिलते ही टूट गया। वी. पी. सिंह भी अंदर से सत्ता के लिये ही लड़ रहे थे। प्रधानमंत्री बनते ही उनका नैतिक आवरण भी फट गया। जनता ने दोनों को उनके किये की सजा दी।

‘आप’ की कहानी थोड़ी अलग 

‘आप’ की कहानी थोड़ी अलग है। वह सत्ता की लड़ाई नहीं लड़ रही थी वह सत्ता से लड़ रही थी। सत्ता ने कहा, हमारी गोद में आ जाओ फिर देखता हूँ तुम्हारी औक़ात। दिल्ली में सरकार बनते ही सत्ता मन ही मन मुस्कायी होगी। जैसे-जैसे सत्ता ने अपनी जकड़ मज़बूत करनी शुरू की, आप आपस में ही लड़ने लगी। उसके उसूलों के चीथड़े उड़ने लगे, मुख्यमंत्री बने रहना, मंत्री बने रहना, एमएलए और एमपी बने रहना, पार्षद बने रहना और पार्टी में मिले पदों पर मज़बूती से जमे रहना सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गयी। 

सत्ता ने ऐसा मायाजाल बुना कि सबके परखच्चे उड़ गये। उसमें केजरीवाल क्या और आशुतोष क्या, सब नंगे थे। इसमें केजरीवाल को सिर्फ़ दोष देना बेमानी होगा।

दोषी वे सब थे जो सत्ता से कुछ पाना चाहते थे। सत्ता से खेलना चाहते थे। उन्हें क्या मालूम था कि सत्ता उनसे खेल रही है। गाँधी बनने का ढोंग आसान है, गाँधी बने रहना मुश्किल है। गाँधी, गाँधी बने रहे क्योंकि उन्होंने सत्ता को लात मारी।