ओलंपिक का महासमर समाप्त हो चुका है। भारत ने 4 कांस्य, दो रजत और एक स्वर्ण सहित कुल सात पदक अपनी झोली में भरे हैं। समापन से ठीक पहले नीरज चोपड़ा ने ऐसा भाला फेंका जो सीधा सोने पर लगा। सोना अपने नाम करते ही नीरज चोपड़ा अमर हो गए। वो सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहे हैं, नेताओं से लेकर फ़िल्मी सितारों तक हर कोई उन पर न्यौछावर हो रहा है।
13 करोड़ की नक़द धनराशि
ओलंपिक इतिहास में भारत के लिए पहला स्वर्ण हासिल करते हुए नीरज ना सिर्फ़ अमर हुए बल्कि अमीर भी हो गए। पदक जीतने के दो घंटे के भीतर ही उन्हें राज्य, केंद्र सरकार और विभिन्न समूहों की तरफ़ से लगभग 13 करोड़ की नक़द धनराशि दिए जाने की घोषणा कर दी गयी और सिर्फ नीरज ही क्यों ओलंपिक के लगभग हर पदक विजेता की झोली प्रशंसा के साथ-साथ धन से भी भर गयी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ये सारे ही इस प्रशंसा और पुरस्कार के हक़दार हैं। पिछले 5-6 ओलंपिक से पदक विजेताओं के करोड़पति बनने का सिलसिला जारी है जो कि इस क्रिकेटमय देश में एक शुभ संकेत है।
अब थोड़ा पीछे चलते हैं और बात करते हैं देश को पहला एकल ओलंपिक पदक दिलाने वाले महान एथलीट केडी जाधव के बारे में। ये महान पहलवान आजाद भारत के पहले ओलंपिक पदकधारी थे।
जाधव के दांव-पेच और उनके पराक्रम के बारे में जानकर गर्व से छाती चौड़ी हो गयी हो तो ये भी जान लीजिये उनका अंतिम समय तंगहाली और मुफ़लिसी में बीता और आज उनका परिवार गुमनामी में जी रहा है।
बेचने पड़े पदक
अगर इतने से ही आप शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं तो एक और चैंपियन माखन सिंह की कहानी भी सुन लीजिए। माखन सिंह वो महानायक हैं जिन्होंने 1962 के राष्ट्रीय खेलों में महान मिल्खा सिंह को मात दी थी। सन 62 के एशियन खेलों में भारत के नाम के आगे पदकों की संख्या बढ़ाने में अपना ख़ून पसीना एक करने वाले इस महान धावक को अंतिम समय में इलाज करवाने के लिए अपने पदकों को भी बेचना पड़ा था।
कुल्फ़ी बेचने को मजबूर
और अगर आपको लगता है कि ये घटनाएं पुरानी हैं और अब सूरत-ए-हाल जुदा हैं तो कभी भिवानी की सड़कों पर घूमने निकलिए और कुल्फ़ी का ठेला लगाने वाले दिनेश कुमार से मिलिए। दिनेश कुमार कभी बॉक्सर हुआ करते थे। उन्हें 2010 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आज उनके पास एक सरकारी नौकरी तक नहीं है। आज दिनेश कुमार जीवन यापन करने और और ट्रेनिंग के दौरान लिए गए कर्ज़े उतारने के लिए कुल्फ़ी बेचने को मजबूर हैं।
मजदूरी कर रहे ओलंपियन
2012 के लंदन ओलंपिक में देश की अगुवाई करने वाली पिंकी कर्माकर आज असम के चाय बागान में मजदूरी कर के जीवनयापन करने को मजबूर हैं। एक इंटरव्यू में पिंकी बताती हैं कि लंदन से वापस आने पर उनका कैसा भव्य स्वागत हुआ था। राजनेताओं, बड़ी-बड़ी हस्तियों समेत पूरा असम पलकें बिछाए एयरपोर्ट पर उनका स्वागत करने को खड़ा था। लेकिन आज किसी को परवाह ही नहीं कि पिंकी कर्माकर ज़िंदा भी है?
तो सवाल ये खड़ा होता है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सीने पर तिरंगा लगाये खिलाड़ियों का भविष्य क्या तभी सुरक्षित रहेगा जब वो ओलंपिक या राष्टमंडल मेडल लाएंगे? बिना ओलंपिक पदक जीते इन खिलाड़ियों के पास इतने पैसे भी नहीं होते कि वे एक सम्मानित जीवन जी सकें।
ट्रेनिंग पर हो खर्च
जितनी धन वर्षा खिलाड़ियों पर होती है अगर उसका आधा भी खिलाड़ियों की ट्रेनिंग पर खर्च हो तो निश्चित तौर पर प्रशंसकों को पदक तालिका में भारत का स्थान जानने के लिए पदक तालिका को नीचे से नहीं देखना होगा।
सोच कर ही सिहरन होती है कि क्या मीराबाई चानू, बजरंग पुनिया जैसे वर्तमान राष्ट्र नायकों के साथ भी क्या देश ऐसा ही व्यवहार करेगा? क्या माखन सिंह और केडी जाधव की तरह रानी रामपाल और लवलीना बोर्गोहैन को भी बिसरा दिया जाएगा?
वर्तमान में इन खिलाड़ियों को मिल रही प्रशंसा और इन पर हो रही धन वर्षा को देखकर ऐसा लगभग नामुमकिन जान पड़ता है लेकिन ऐसा अगर हो भी जाए तो बड़ी बात नहीं। आखिरकार अपने नायकों को शर्मिंदा करने का हमारा इतिहास तो रहा ही है।