पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के वफादार माने जाने वाले इमरान खान के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे का नाटकीय घटनाक्रम का पहला दौर समाप्त होने के बाद अब पाकिस्तान के राजनीतिक रंगमंच पर भारत, पाक और अंतरराष्ट्रीय राजनयिक पर्यवेक्षकों की नजरें टिकेंगी।
इमरान खान को सत्ताच्युत करने के लिये पाकिस्तान के 11 विपक्षी दलों के नेताओं ने अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को त्याग कर अभूतपूर्व राजनीतिक एकता का इजहार किया।
लेकिन पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों में यह बड़ा सवाल बना रहेगा कि क्या पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट के झंडे के नीचे एक मंच पर इकट्ठा हुए बिलावल भुट्टो (पाकिस्तान पीपल्स पार्टी). मरियम नवाज (पीएमएल-एन) और मौलाना फजलुर रहमान (जमीयत उलेमा- ए- इसलाम) और अन्य विपक्षी नेता नई सरकार के गठन के बाद आपस में कितना सौहार्द बनाए रखेंगे।
क्या इस विपक्षी एकता में सभी दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आड़े नहीं आएंगी। निश्चय ही मरियम नवाज औऱ बिलावल भुट्टो एक दूसरे के घोर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं और ये अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिये एक दूसरे को नीचा दिखाने से नहीं चूकेंगे।
शाहबाज शरीफ की अगुवाई में गठित होने वाली सरकार में किस दल को कितना प्रतिनिधित्व मिलता है, किस दल के नेता को कितना महत्वपूर्ण मंत्रालय मिलता है इसे लेकर भी नेताओं में टकराव हो सकता है। विपक्षी दलों की एकता का एकमात्र एजेंडा इमरान खान को सत्ता से बेदखल करना था और यह लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद सभी विपक्षी दल अपने अपने मतदाता वर्ग को रिझाने के लिये घोर राष्ट्रवादी रुख अपनाने को बाध्य होंगे।
चूंकि सभी विपक्षी दलों की प्राथमिकता अगले साल के अंत में होने वाले संसदीय चुनाव में जीत हासिल करने की होगी इसलिये स्वाभाविक है कि सभी दलों में एकीकृत सरकार के गठन के तुरंत बाद से आपसी होड़ तेज होगी। एक दूसरे के खिलाफ रणनीतियां शाहबाज शरीफ सरकार के गठन के बाद ही बननी शुरु होंगी।
चूंकि पाकिस्तान की राजनीति पर सेना का वर्चस्व रहता है औऱ जैसा कि इमरान खान के ताजा घटनाक्रम से और पिछले दशकों में हमने देखा है पाकिस्तान का कोई भी प्रधानमंत्री सेना प्रमुख के आर्शीवाद के बिना अधिक दिनों तक सत्तारुढ़ नहीं रह सकता, इसलिये भावी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को भी अगले चुनाव तक सत्ता में बने रहने के लिये मौजूदा सेना प्रमुख का वरदहस्त हासिल करना होगा।
न केवल सेना बल्कि पाकिस्तान के उग्रवादी गुटों और जेहादी तंजीमों की भी अप्रत्यक्ष मदद लेनी होगी। इमरान खान ने सत्ता सम्भालने के पहले से ही सेना औऱ जेहादी तंजीमों का वरदहस्त हासिल करने के लिये सार्वजनिक तौर पर बयान दिये थे।
यदि कोई राजनीतिक दल अपने दम पर पाक एसेम्बली में बहुमत हासिल कर भी लेता है तो क्या उसे पाक सेना स्वतंत्र तौर पर विदेश व रक्षा नीति तय करने देगी। पाक राजनीति पर जिस तरह पाक सेना हावी हो गई है उसके मद्देनजर हम कह सकते हैं कि पाकिस्तान में सीमित जनतंत्र ही है जिसमें चुनी हुई पाक सरकार की देश चलाने में सीमित भूमिका ही होगी।
इसलिये पाक के किसी भी भावी प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा करना बेमानी होगा कि वह पाकिस्तान की विदेश व घरेलू नीति में आमूल परिवर्तन लाए। इसके लिये पाकिस्तान की नागरिक सरकार को नीतियां तय करने की पूर्ण आजादी देनी होगी। सेना प्रमुखों को रिटायर होने के बाद भी अनंत काल तक सेना प्रमुख बने रहने का सपना छोड़ना होगा। जेहादी तंजीमों का देश की विदेश व रक्षा नीति में इस्तेमाल करने की नीति का त्याग करना होगा और भारत के साथ शांति से रहने के एजेंडा पर चलना होगा।
लेकिन शहबाज शरीफ ने भी सत्ता सम्भालने के एक दिन पहले रविवार को जम्मू कश्मीर मसले के हल के पहले भारत के साथ शांति नहीं होने का बयान दे कर सेना और जेहादी हलकों को भरोसा दिलाने की कोशिश की है कि राष्ट्रवादी एजेंडा से वह नहीं भटकेंगे।शरीफ ने जम्मू कश्मीर को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखा कर पाकिस्तानी अवाम, सेना और विशेषकर जेहादी तंजीमों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह कश्मीर मसले पर कड़ा रुख अख्तियार करते रहेंगे। उन्हें यह भी सिद्ध करना होगा कि वह भी सेना से नजदीकी रिश्ता रखते हैं।
इमरान खान नियाजी का पाकिस्तानी प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे का नाटकीय घटनाक्रम इस धारणा को पुष्ट् करता है कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्री पद पर वही राजनेता विराजमान रह सकता है जो वहां की सेना की गुडबुक में हो।
इमरान खान भले ही जनतांत्रिक तौर पर करवाए गए चुनाव में जीते हों उनकी पीठ पर सेना प्रमुख जनरल बाजवा का हाथ था, इसी वजह से इमरान को निर्वाचित प्रधानमंत्री नहीं बल्कि चयनित प्रधानमंत्री के तौर पर जाना गया लेकिन जिस दिन इमरान खान जनरल बाजवा की नजरों से गिर गए, उनका प्रधानमंत्री निवास से बाहर निकलना तय हो गया था।
नवम्बर, 2019 में जब जनरल बाजवा का कार्यकाल तीन साल के लिये बढ़ाने की सिफारिश प्रधानमंत्री की हैसियत से इमरान खान ने की थी तब पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इस सिफारिश को खारिज कर दिया था लेकिन पाकिस्तानी एसेम्बली में जनरल बाजवा को तीन साल का दूसरा कार्यकाल देने की सिफारिश की पुष्टि हुई क्योंकि इमरान खान का एसेम्बली में बहुमत था।
वही जनरल बाजवा तीन साल का तीसरा कार्यकाल भी चाहने लगे तो इमरान खान ने इसे नजरअंदाज किया और पाक सेना की खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद को पाकिस्तान का अगला सेना प्रमुख नियुक्त करने की चाल चलने लगे।जनरल बाजवा का दूसरा कार्यकाल आगामी नवम्बर में समाप्त होने वाला है लेकिन इमरान खान ने जनरल बाजवा को इसके पहले ही सेना प्रमुख के पद से हटाने की नाकाम कोशिश की थी। अंततः आईएसआई प्रमुख के पद पर जनरल नदीम अंजुम को नियुक्त करने की जनरल बाजवा की सिफारिश को मंजूरी देनी पड़ी।
मुम्बई पर 26-11 के आतंकवादी हमले की साजिश पाक सेना ने जेहादी तंजीमों की मदद से ही तैयार की थी। पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान आज भी इसी नीति पर चल रहा है और इसमें पाकिस्तान की जनतांत्रिक सरकार कोई दखल नहीं दे सकती।किसी भी राजनीतिक दल की सरकार बने यदि उसे पाक सेना मुख्यालय की ओर देख कर ही अपनी विदेश व घरेलू नीति तय करनी होगी तो स्वाभाविक है कि पाकिस्तान की राजनीति में आने वाले सालों में हम किसी बदलाव की तब तक अपेक्षा नहीं कर सकते जब तक कि पाक का सैन्य नेतृत्व ही इसकी इजाजत नहीं दे।