सरदार वल्लभ भाई पटेल देश के ऐसे नेता रहे हैं, जिन्हें हिंदूवादी कहा गया। गाँधी का भक्त कहा गया। राजा-रजवाड़ों का पिट्ठू कहा गया। पूंजीपतियों का आदमी कहा गया। सबने अपनी-अपनी सुविधा के मुताबिक़ उनकी व्याख्याएं की। लेकिन उस दौरान हिंदू महासभा एकमात्र ऐसी संस्था थी, जिसके नेता सरदार पटेल को जिंदा नहीं देखना चाहते थे।
सरदार अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते थे। 1947 के आसपास मुसलिम प्रतिनिधि जब गाँधी से मुलाक़ात करने आते थे तो वह पटेल की शिकायत करते थे। वह गाँधी से कहते थे कि सरदार हिंदुओं का पक्ष ले रहे हैं। गाँधी सिर्फ मंद-मंद हंसते और आश्वस्त करते कि मेरा सरदार ऐसा नहीं है। आख़िर में 15 जनवरी, 1948 को मृत्यु से 15 दिन पहले गाँधी ने अपनी प्रार्थना सभा में पटेल को लेकर अपने विचार रखे, जब माना जा रहा था कि नेहरू और पटेल में मतभेद चरम पर हैं, गाँधी ने कहा...
“कई मुसलमान दोस्तों ने शिकायत की थी कि सरदार का रुख मुसलमानों के ख़िलाफ़ है। मैंने कुछ दुख से उनकी बात सुनी, मगर कोई सफाई पेश नहीं की। उपवास शुरू होने के बाद मैंने अपने ऊपर जो रोकथाम लगा रखी थी, वह चली गई। इसलिए मैंने टीकाकारों को कहा कि सरदार को मुझसे और पंडित नेहरू से अलग करके और मुझे व पंडित नेहरू को खामख्वाह आसमान पर चढ़ाकर वे गलती कर रहे हैं। इससे उनको फायदा नहीं पहुंच सकता। सरदार के बात करने के ढंग में एक तरह का अक्खड़पन है, जिससे कभी-कभी लोगों का दिल दुख जाता है। सरदार का इरादा किसी को दुखी बनाने का नहीं होता है। उनका दिल बहुत बड़ा है। उसमें सबके लिए जगह है। मैंने जो कहा, उसका मतलब यह था कि अपने जीवन भर के वफादार साथी को एक बेजा इलजाम से बरी कर दूं। मुझे यह भी डर था कि सुनने वाले कहीं यह न समझ बैठें कि मैं सरदार को अपना जी-हुजूर मानता हूं। सरदार को प्रेम से मेरा जी-हुजूर कहा जाता था, इसलिए मैंने सरदार की तारीफ करते समय कह दिया कि वे इतने शक्तिशाली और मन के मजबूत हैं कि वे किसी के जी-हुजूर हो ही नहीं सकते। जब वे मेरे जी-हुजूर कहलाते थे, तब वे ऐसा कहने देते थे, क्योंकि जो कुछ मैं कहता था, वह अपने आप उनके गले उतर जाता था।” ( दिल्ली डायरी, नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद, मई 1948, पेज 359-60)।
दिलचस्प है कि एक तरफ मुसलिम और उदारवादी हिंदू सरदार के बारे में कहते थे कि उनका रुख मुसलमानों के ख़िलाफ़ है, वहीं हिंदू महासभा पटेल के ख़िलाफ़ लगातार आग उगल रही थी।
पटेल हिंदू महासभा की घृणा सूची में शामिल हो चुके थे। गाँधी जी की हत्या के महज कुछ दिन पहले हिंदू महासभा के एक नेता ने बिहार में एक सार्वजनिक जनसभा में कहा कि पटेल, नेहरू और आज़ाद को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। (पटेल, ए लाइफ़, लेखक- राजमोहन गाँधी। नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद, मई, 2017. पेज- 472)।
हालांकि पटेल ने देश में हर विचारधारा को बोलने और अपनी बात रखने का हक दे रखा था। इतना सब कुछ होने के बावजूद जब महाराष्ट्र में हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और गाँधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे से संबंधित ब्राह्मण समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा होने लगी तो उन्होंने बंबई सरकार के मुखिया बालासाहेब गंगाधर खेर की सुस्त कार्रवाई पर सख्त नाराजगी जताई और क़ानून का उल्लंघन करने वालों के ख़िलाफ़ सख्ती से पेश आने के निर्देश दिए।
हिंदूवादी तत्व भले ही पटेल की जान के दुश्मन बने हुए थे, लेकिन पटेल ने कभी भी उनके ख़िलाफ़ दुर्भावना नहीं दिखाई। आरएसएस के बारे में नेहरू का मानना था कि यह फासीवादी संगठन है, जबकि पटेल बार-बार कहते थे कि ये देशभक्त लोग हैं, जो दिशाहीन हो गये हैं।
पटेल बार-बार आरएसएस के लोगों से कांग्रेस में शामिल होकर मुख्य धारा में आने का आह्वान करते थे। पटेल ने अपनी एक जनसभा में कहा, “यदि कांग्रेस में काम करने वाले लोग ठीक तरह से काम करें तो आरएसएस वाले आजकल जिस तरह से काम कर रहे हैं, उस तरह से नहीं करेंगे। कांग्रेस वालों का काम है कि उनके साथ मिलें। उन्हें मोहब्बत से समझाएं और उन्हें गलत रास्ते से ठीक रास्ते पर लाएं। डंडे से यह काम नहीं होगा, क्योंकि जब हम हुकूमत से काम करना शुरू करें तो उससे और ख़राबियां पैदा होती हैं। डंडा तो चोर-डाकू के लिए है, जो फसाद करने वाले, गुनाह करने वाले हैं, उनके लिए है। अगर आप कहें कि आरएसएस वाले भी गुनाह करते हैं तो मैं कबूल करूंगा कि वे गुनाह करते हैं। लेकिन इस गुनाह के पीछे उनका स्वार्थ नहीं है। उनके दिल में जो भाव है, वह ठीक भाव है। अगर हम उनको ठीक रास्ते पर ले जा सकते हैं तो क्यों न ले जाएं” (भारत की एकता का निर्माण, सरदार पटेल के भाषण, पेज 68, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार प्रकाशन वर्ष 2015)
पुलिस, सेना हो गई थी सांप्रदायिक
सरदार पटेल पक्के गाँधीवादी और अहिंसा की राह पर चलने वाले व्यक्ति थे। स्वतंत्रता के समय की परिस्थितियां ऐसी नहीं थीं कि आरएसएस या हिंदू महासभा के ख़िलाफ़ बहुत ज्यादा सख्ती दिखाई जा सके। गाँधी और पटेल के तेवर दंगाइयों के ख़िलाफ़ सख्त थे, वहीं पटेल कभी वह सख्ती सार्वजनिक नहीं करते थे। इसकी बड़ी वजह यह थी कि बड़े पैमाने पर विस्थापन के दौरान भारत आने वाले शरणार्थी परेशान थे। पुलिस ही नहीं, सेना भी सांप्रदायिक हो चली थी और पटेल अपनी आंखों से देख रहे थे कि जिस सेना को मुसलिमों की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, वही उनके उत्पीड़न में लगी हुई थी। शायद ऐसी परिस्थितियों में पटेल नहीं चाहते थे कि आरएसएस के ख़िलाफ़ सख्ती दिखाकर सांप्रदायिक हो चुकी जनता ही नहीं, पुलिस और सेना की सहानुभूति भी आरएसएस की तरफ मोड़ दी जाए।
गाँधी जी की हत्या के बाद पटेल ने फ़रवरी, 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया। पटेल और नेहरू में आरएसएस को लेकर मतभेद मुखर थे। नेहरू ने कहा, “बापू की हत्या कोई अलग-थलग या अचानक हुई घटना नहीं है। यह आरएसएस के नेतृत्व में चलाए गए व्यापक अभियान का परिणाम है।”
सरदार गाँधी जी की हत्या को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। 27 फ़रवरी, 1948 को पटेल ने नेहरू से कहा, “मैं बापू की हत्या के मामले की जांच के बारे में रोजाना प्रगति रिपोर्ट लेता रहा। मैंने अपनी शाम का बड़ा हिस्सा संजीवी (ख़ुफ़िया प्रमुख और दिल्ली के आईजी ऑफ़ पुलिस) के साथ बिताया है और उस दिन की प्रगति जानने के साथ जो मसले उठते थे, उस पर निर्देश दिए हैं।” पटेल ने आगे कहा, “सभी दोषियों ने लंबा और विस्तृत बयान दिया है। इससे यह साफ-साफ सामने आता है कि आरएसएस इसमें शामिल नहीं था। यह हिंदू महासभा के धर्मांध लोगों का काम था, जिन्होंने पूरी साज़िश रची थी।” (पटेल, ए लाइफ़, लेखक- राजमोहन गाँधी पेज - 472)
आरएसएस को लेकर थे मतभेद
नेहरू का कहना था कि आरएसएस की विचारधारा अलग है, जो सरकार और कांग्रेस की विरोधी है और वे सेक्युलर राज्य के विचार का विरोध करते हैं। वहीं, पटेल का कहना था कि वे भी अपने लोग हैं। इस मामले में पटेल कहीं ज्यादा गाँधी के क़रीब थे। गाँधी ने 12 सितंबर 1947 के अपने प्रवचन में कहा था, “मैंने सुना है कि इस संस्था के हाथ खून से सने हुए हैं। संघ के गुरूजी ने मुझे भरोसा दिलाया है कि यह झूठ है। उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है। वह तो सिर्फ अपनी ताक़त भर हिंदू धर्म की हिफाजत करना चाहती है। उसका मक़सद शांति बनाए रखना है। उन्होंने (गुरुजी) मुझसे कहा कि मैं उनके विचारों को जाहिर कर दूं।” (दिल्ली डायरी, नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद, मई 1948, पेज-10)
गाँधी-पटेल ने दिया सुधरने का मौक़ा
इतना कुछ जानने के बावजूद गाँधी ने आरएसएस के लोगों को सुधरने का मौक़ा दिया था। गाँधी जिस जगह प्रार्थना करते थे, वहां रोज ही आरएसएस से जुड़े लोग आकर नारे लगाते थे कि प्रार्थना सभा में क़ुरान की आयतों का पाठ न हो। तब गाँधी अपनी प्रार्थना रोक देते थे। गाँधी कहते थे कि प्रार्थना का मक़सद किसी को चोट पहुंचाना नहीं है, अगर कोई प्रार्थना पर ऐतराज करता है तो मैं प्रार्थना नहीं करूंगा। आरएसएस के मामले में वही रास्ता पटेल ने अपना रखा था और उन्हें भरोसा था कि एक न एक दिन आरएसएस के लोगों का हृदय परिवर्तन होकर रहेगा।