गाँधीजी लिखते हैं, ‘मेरा दोस्त एक बार मुझे एक वेश्यालय में ले गया। उसने पहले ही मुझे समझा दिया था कि वहाँ क्या करना है, कैसे पेश आना है। सबकुछ पहले से ही तय था। पैसा भी दिया जा चुका था। मैं पाप के मुँह में जाने को तैयार बैठा था लेकिन ईश्वर की असीम कृपा से उसने मुझे ख़ुद से ही बचा लिया। मैं उस दुराचार के अड्डे पर जैसे अंधा और गूँगा बन गया। मैं उस औरत के बिस्तर पर उसकी बग़ल में बैठा रहा लेकिन मेरी ज़ुबान को जैसे लकवा मार गया था। स्वाभाविक था कि वह रातभर इंतज़ार नहीं कर सकती थी। नतीजतन उसने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया, गालियों और अपमानजनक शब्दों के साथ। मुझे लगा जैसे मेरी मर्दानगी तार-तार हो रही हो और मैं मारे शर्म के ज़मीन में गड़ा जा रहा था।’
गाँधीजी बताते हैं कि उनकी ज़िंदगी में ऐसे चार मौक़े और आए और उन सभी मौक़ों पर भगवान ने उन्हें बचा लिया। इनमें से एक घटना तब की है जब वह इंग्लैंड में बैरिस्टरी की पढ़ाई करने गए थे। गाँधीजी शाकाहारी थे और जब उन्हें पता चला कि कुछ अंग्रेज़ भी शाकाहार के प्रचार अभियान में लगे हुए हैं तो वह भी उनके साथ जुड़ गए। ऐसे ही एक शाकाहारी सम्मेलन में उन्हें और उनके एक साथी को आमंत्रित किया गया था। शहर था पॉर्ट्समथ। पॉर्ट्समथ में उन्हें जिस घर में ठहराया गया था, उसकी मालकिन वेश्या तो नहीं मगर नैतिकतावादी भी नहीं थी। गाँधीजी को इसका कोई आभास नहीं था न ही स्वागत समिति को इसकी कोई जानकारी थी।
शाम को जब दोनों मित्र सम्मेलन में भाग लेकर घर लौटे तो डिनर के बाद ब्रिज खेलने बैठ गए। घर की मालकिन भी खेल में शामिल हो गईं जैसा कि इंग्लैंड के अच्छे-अच्छे घरों में रिवाज़ था। ऐसे मौक़ों पर हँसी-मज़ाक और चुटकुलेबाज़ी भी चलती है लेकिन गाँधीजी के साथी और मकान मालकिन के बीच होने वाली चुटकुलेबाज़ी शिष्टता की सीमाएँ पार कर गईं।
गाँधीजी लिखते हैं, “मुझे नहीं पता था कि मेरा साथी इस कला में इतना माहिर है और मैं भी उनकी अशालीन वार्ता में शामिल हो गया। पत्तों और खेल को अपने हाल पर छोड़कर मैं अपनी मर्यादा लाँघने ही वाला था कि भगवान ने कृपा करके उस साथी के मुँह से यह चेतावनी उगलवा दी, ‘तुम्हारे अंदर यह शैतान कबसे पैदा हो गया, भले आदमी यहाँ से जाओ, तुरंत।’ मैं शर्मिंदा हो गया। मैंने उसकी चेतावनी पर ध्यान दिया और मन-ही-मन उस साथी का शुक्रिया अदा किया। अपनी माँ को दिया वचन याद करके मैं वहाँ से निकल गया और काँपते, थरथराते हुए कमरे में पहुँचा। मेरा दिल धौंकनी की तरह धड़क रहा था जैसे कोई शिकार किसी शिकारी से बचकर निकल आया हो।”
यह पहला मौक़ा था जब पत्नी के अलावा किसी और स्त्री ने गाँधीजी की कामुकता को जगाया था। वह रातभर जागते रहे। मन में नाना प्रकार के विचार आते रहे। क्या मैं यह घर छोड़ दूँ क्या यहाँ से भाग जाऊँ लेकिन वह भागे नहीं। वह एक और दिन वहाँ रहे और सम्मेलन के बाद पॉर्ट्समथ छोड़ दिया।
ऊपर माँ को दिए गए जिस वचन का ज़िक्र गाँधीजी ने किया है, उसकी यहाँ संक्षिप्त चर्चा ज़रूरी है। दरअसल जब बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए युवा गाँधी के लंदन जाने पर विचार किया जा रहा था तो उनकी माँ इसके सख़्त ख़िलाफ़ थीं। उन्हें लगता था कि विदेश में उनका बेटा बिगड़ जाएगा।
एक जैन मुनि की सलाह पर गाँधीजी ने अपनी माँ के सामने शपथ ली थी कि वह विदेश में रहते हुए माँस, मदिरा और स्त्रियों से दूर रहेंगे। इस शपथ के बाद ही उनकी माँ ने उनको विदेश जाने की अनुमति दी थी।
गाँधीजी के जीवन में ऐसी तीसरी घटना तब घटी जब वह इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास करके लौट आए थे और एक नौकरी का ऑफ़र मिलने पर दक्षिण अफ़्रीका जा रहे थे। तब तक उनकी माँ का देहांत हो चुका था यानी अब वह उस वचन से नहीं बँधे थे जो माँ ने इंग्लैंड जाने से पहले लिया था। जाना जहाज़ से था और बीच में कई बंदरगाहों पर रुकते-रुकते जाना था। ऐसे ही एक बंदरगाह पर रुकने के दौरान यह घटना घटी। यहाँ जहाज़ को आठ-दस दिन ठहरना था।
जब गाँधी जी सैर-सपाटे पर निकले...
जहाज़ के कप्तान से गाँधीजी की दोस्ती हो गई थी। वे एक नाव में बैठकर उनको और एक अन्य अंग्रेज़ दोस्त को लेकर सैर-सपाटे को निकले। गाँधीजी को नहीं पता था कि इस सैर-सपाटे का क्या मतलब है और न ही कप्तान को पता था कि गाँधीजी ऐसे मामलों में कितने अनाड़ी हैं। एक दलाल उन लोगों को कुछ अश्वेत महिलाओं के घरों को ले गया। आगे क्या हुआ, यह गाँधीजी की ही भाषा में पढ़िए -
‘हम सबको अलग-अलग कमरे में ले जाया गया। मैं शर्म के मारे वहाँ मौन खड़ा रहा। यह तो भगवान ही जानता है कि उस बेचारी औरत ने मेरे बारे में क्या सोचा होगा। जब कप्तान ने मुझे आवाज़ दी तो मैं वैसे ही चला आया जैसे कि गया था। उसने मेरा निरीह रूप देखा। पहले तो मुझे ख़ुद पर बहुत ही शर्म आई लेकिन चूँकि इस सारे मामले को मैंने केवल एक हादसे के रूप में लिया था, इसलिए धीरे-धीरे मेरी शर्मिंदगी समाप्त हो गई और मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उस औरत के देखकर मैं बिल्कुल विचलित नहीं हुआ। लेकिन मुझे इस बात को लेकर पीड़ा थी कि क्यों सबकुछ समझते हुए भी मैं ख़ुद को उस कमरे में जाने से रोक नहीं सका। यह मेरी ज़िंदगी की इस तरह की तीसरी परीक्षा थी। मैं इस बार भी बच निकला लेकिन इसका श्रेय मुझे नहीं था। मुझे श्रेय होता यदि मैं कमरे में घुसा ही न होता। महाकृपालु भगवान ने एक बार फिर मुझे बचा लिया।’
गाँधीजी ने बाक़ी दो घटनाओं का ज़िक्र नहीं किया है लेकिन उनके लिखे से साफ़ है कि वह वहाँ भी अपने एकनिष्ठता के मार्ग से डगमगाए नहीं होंगे। इन सारे मौक़ों पर ईश्वर ने उन्हें बचाया, ऐसा वह लिखते हैं लेकिन वह इसी से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे।
गाँधीजी के अनुसार पाप से बचना ही काफ़ी नहीं है, और यह मानकर ख़ुश नहीं हुआ जा सकता कि ईश्वर की कृपा से मैं हर बार पापकर्म से बच गया क्योंकि जब तक पाप का विचार है, तब तक व्यक्ति पूरी तरह से निर्मल नहीं कहा जा सकता। वे न केवल कर्म की शुद्धता, बल्कि मन और वचन की शुद्धता के लिए भी प्रयासरत थे।
इसी कारण बाद में उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और सेक्स से अपने-आप को पूरी तरह दूर कर दिया। 1906 के बाद उनमें और उनकी पत्नी में कभी शारीरिक संबंध नहीं हुआ हालाँकि 1919-20 में वह सरलादेवी नामक एक सामाजिक-राजनीतिक नेत्री के संपर्क में आए और उनसे वे इस तरह भावनात्मक स्तर पर जुड़ गए कि उन्हें अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ बताने लगे। पारिवारिक-सामाजिक दबावों के कारण उनको यह रिश्ता तोड़ना पड़ा। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपने संयम की परीक्षा लेने के लिए ब्रह्मचर्य के प्रयोग किए।
सरलादेवी से उनके रिश्ते और ब्रह्मचर्य से जुड़े उनके विवादास्पद प्रयोगों के बारे में हम विस्तार से बात करेंगे आगे की कड़ियों में।