गाँधीजी की डेढ़ सौवीं जयंती पर कई देखी-सुनी-पढ़ी बातें याद आयीं। सारी बातें और प्रसंग अत्यंत निकट और आसपास के लोगों से जुड़े हुए हैं, जिनको गाँधीजी का जादुई स्पर्श मिला या जो इस बेजोड़ नेता से जीवन और कर्म में प्रेरित हुए।
मेरे पिता श्री गणेश प्रसाद नायक ने खादी का व्रत 1930 में ले लिया था। तब वह सत्रह साल के थे। दो साल बाद खादी दुगनी महँगी हो गयी। पिता ने गाँधीजी को लिखा कि मेरा जैसा छात्र इस ग़रीबी, महँगाई में खादी का संकल्प कैसे निभाये उनका पोस्टकार्ड आया, 'डियर गणेश प्रसाद, ह्वेयर देअर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे। कट शार्ट यूअर एक्सपेंसेस, बापू’।
1933 में गाँधीजी संभवत: पहली बार जबलपुर आये थे। एक सभा में पिताजी गाँधीजी के सामने बैठ गए, वह उन्हें एकटक देखे जा रहे थे, तब गाँधीजी ने उनसे कहा, ऐसे मत देखो, ध्यान बँटता है। इसी समय एक सभा हमारे मोहल्ले दीक्षितपुरा के उपरैनगंज वार्ड में स्थित सिमरिया वाली रानी की कोठी में हुई। प्रसंगवश, माखनलाल चतुर्वेदी ने इसी कोठी से 'कर्मवीर’ निकाला था। तब उनका प्रेस भी यहीं था। गाँधीजी की यह सभा महिलाओं की थी। इसके बारे में मुझे मेरी माँ के ताऊजी के पुत्र मामा श्री जीवन नायक ने, जो उस समय ग्यारह वर्ष के थे, बताया था। इसी कोठी के पीछे गली में हमारा ननिहाल 'नायक निवास’ है। मामाजी अपनी माँ को लेकर वहाँ गये थे। भाषण के बाद गाँधीजी झोली फैलाकर एक-एक कतार में गये और चंदा लिया। झोली भरने पर वे जाकर एक जगह उसे उलट आते। घर लौटते हुए मामाजी को उनकी माँ ने बताया कि वह कान के झुमके दे आयी हैं।
दूसरे विश्व युद्ध में गाँधीजी ने जनता से अपील की थी कि भारत को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ युद्ध में घसीटा जा रहा है इसलिए वह युद्ध में धन-जन की कोई मदद न करे। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करते हुए सत्याग्रहियों का चुनाव अपने हाथ में लिया और सत्याग्रहियों की नैतिक व चारित्रिक मर्यादाएँ निश्चित कीं। सत्याग्रह की विधि निर्धारित की। विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही बनाया। पिता का नाम नगर की पहली सूची में था पर गोविंद दास और द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें बुलाकर कहा कि सूची के मुताबिक़ सत्याग्रह होने के बाद तो सत्याग्रह कराने वाला कोई न होगा इसलिए तुम बाद में सत्याग्रह करना तब तक सत्याग्रही तैयार करो और अपनी परीक्षा भी दे लो। नियम यह था कि सत्याग्रही पुलिस को सूचना देते थे। समय, स्थान बताते थे, पुलिस उन्हें सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार कर ले जाती थी। मार्च में पिताजी की परीक्षा हो गई। दूसरी लिस्ट तक पुलिस गिरफ़्तार करती रही, लेकिन फिर तीसरी लिस्ट के सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी बंद कर दी। सत्याग्रह के बाद भी गिरफ़्तारी रुक गयी। पिता नई-नई विधि से तब भी गिरफ़्तारी कराते।
पिता ने अपने सत्याग्रह का दिन तय कर लिया था पर इसके पहले मूलचंद यादव नाम के सत्याग्रही की गिरफ़्तारी आवश्यक थी। पिताजी ने रात में एक पत्र बनाया कि सरकारी कर्मचारी युद्ध में सहयोग न करें। इसकी कई प्रतियाँ टाइप करायीं। सत्याग्रही की यूनिफ़ॉर्म बनायी - सफ़ेद पेंट, सफ़ेद कमीज़, गाँधी टोपी और झोला। सत्याग्रही से कहा कि कचहरी की शांति भंग न करे, न कोई नारा लगाये। सिर्फ़ कहे कि गाँधीजी का संदेश देने आया हूँ। उसे सबसे पहले सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पूरे सम्मान के साथ पत्र देना था।
जब सत्याग्रही पत्र लेकर बाहर निकलने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे रोककर जेल भेज दिया, इसी की उम्मीद थी। इस सत्याग्रही की अनोखी विधि की अख़बारों में चर्चा हुई। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने इस विधि को गाँधीजी के विचारों के विपरीत बताकर उस सत्याग्रही को अमान्य कर दिया।
जब गाँधीजी बोले- बहुत कम सुत काता...
पिता ने गाँधीजी को पत्र लिखा कि सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी न होने से यह विधि अपनायी जोकि किसी भी तरह आपके उसूलों का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने गाँधीजी को मजिस्ट्रेट को दिये पत्र की कॉपी भी भेजी। इसके बाद पिता सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार हो गए। पहले वह जबलपुर जेल में रहे फिर नागपुर भेज दिये गए, जहाँ उन्हें सूचना मिली कि गाँधीजी ने प्रदेश कांग्रेस के फ़ैसले को रद्द करने का आदेश देते हुए सत्याग्रही को मान्य घोषित किया और कहा कि उस लड़के ने बहुत ही सूझबूझ से काम लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजाशंकर अग्निहोत्री ने प्रेस को इस फ़ैसले की सूचना दी थी। नागपुर जेल से छूटकर वह सीधे सेवाग्राम गए। दिन भर गाँधीजी की कुटी के बाहर खड़े रहे। शाम को महादेव देसाई मिले उन्होंने घूमते समय गाँधीजी से भेंट करने को कहा, तभी गाँधीजी कुटी से निकले और पिता पर नज़र पड़ी तो पूछा, कहाँ से आये हो नागपुर जेल से सुनकर बोले, तो भोजन कर लो। नागपुर जेल में कैदियों द्वारा काता तीन सेर सूत भेंट करने पर गाँधीजी बोले, 'बहुत कम काता।’
सत्याग्रह बंद करने को क्यों कहा
इत्तिफ़ाक यह हुआ कि भोजन की पांत में गाँधीजी पिताजी की बगल में आकर बैठ गए और दोनों में जैसे ही दाल परोसी गई उन्होंने लहसुन की भुसी की पुड़िया खोल कर अपनी दाल में और फिर पिताजी की दाल में डाल दी। पिताजी प्याज-लहसुन नहीं खाते थे पर उस दिन किसी तरह दाल पी। नागपुर जेल में लड़कर उन्होंने राजनैतिक कैदियों के लिए किचन खुलवाया था और जब वहाँ सब्जी में प्याज पड़ा तो उसे बंद करने के लिए उपवास कर दिया। अंत में उनके हिसाब की एक अलग छोटी किचन और बनी। जेल में उन्हें उपाधि दी गयी थी, 'कुछ झुकी कमर पर ज़ोर दिये/डिक्टेटरशिप का बोझ लिये/सुबह चार बजे उठ चरखा कातें/मुँह में मीठे बोल लिये।’ जेल में उपवास कर उन्होंने लोहे के तसले में खाना देना बंद करवाया था। दूध बंद होने पर सत्याग्रह शुरू करवाया था। भोजन के बाद टहलते हुए उन्होंने गाँधीजी को दूध बंद होने की बात बतायी। गाँधीजी ने कहा, तुम नागपुर वापस जाकर सत्याग्रह बंद करवाओ। घर जाकर इस पर वक्तव्य दो, वह ख़ुद भोजन में दूध की आवश्यकता पर सरकार को लिखेंगे। बाद में जेल में भोजन की जाँच पर कमीशन बना जिसने आठ ओंस दूध ज़रूरी माना। तब से जेल में 60 से 400 ग्राम तक दूध मिलने लगा।
विधवा विवाह: बापू का प्रोत्साहन
हमारे नाना गोपाल प्रसाद नायक स्वाभिमानी, स्वावलम्बी और स्वाध्यायी थे। 'सरस्वती’ के संपादक समालोचक और साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रिय छात्र रहे। उनकी एक चचेरी बहन सुमित्रा थीं, जो कम उम्र की थीं और एक साल में विधवा हो गयी थीं। उनके पिता ने सुमित्रा को इनके पास भेज दिया। सुमित्रा की हालत देख उनका हृदय विदीर्ण हो गया। प्रण किया कि जब तक इसका फिर विवाह नहीं करेंगे अन्न नहीं खायेंगे। नाना ने गाँधीजी को पत्र लिखकर संकल्प के बारे में बताया। उन्होंने कहा, निर्णय बेशक सही है पर विधवा-विवाह के लिए समाज तैयार नहीं है। यह क्रांतिकारी काम है। ब्राह्मण वर्ग तो कदापि तैयार न होगा। याद रहे कोई साथ न देगा। सगे-संबंधी मुँह फेर लेंगे। पर क्या विघ्न के भय से पीछे हट जाओगे संकल्प लिया है तो पूरा करो। हिम्मत रखो, भगवान पर भरोसा रखो।
अंतत: तीन साल बाद रानीपुर में विवाह हुआ। नाना तब वहीं स्टेशन मास्टर थे। पिता और भाइयों के सिवा कोई नहीं आया। जमींदार, जागीरदार आसपास के आये, मित्र मंडली आयी और धूमधाम से विवाह हुआ। इतने साल बाद जब नाना ने नमक वाला भोजन किया तो जीभ में छाले पड़ गए। शादी में विदा के समय 'सम्राट’ उपनामधारी कवि ने नाना को एक मानपत्र दिया, जिसकी कुछ पंक्तियाँ ये थीं: 'गोपाल तुम्हारी वीणा ने यह छेड़ी तान निराली है/ जिसकी धुन मोहक है सबको मदमस्त बनाने वाली है/ तुमने सचमुच नायक बन कर यह अनुपम सुयश कमाया है/ जो लता शुष्क थी उसका तुमने जीवन सरस बनाया है।’
गरबा में भी गाँधी-गाँधी!
हमारे नाना जबलपुर में वड़ोदरा की लड़कियों की प्रभात फेरी देखकर इतने प्रभावित हुए कि अपनी सात-आठ साल की बेटियों को वड़ोदरा पढ़ने भेज दिया। कई साल पहले इन्हीं शारदेय नवरात्र के दिनों में माँ ने मुझसे कहा था कि आजकल तो टीवी पर गरबा देखो तो सब कहीं ये फ़िल्मी गानों पर होते दिखते हैं। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि बहत्तर साल पहले हम छोटी-छोटी लड़कियाँ वड़ोदरा की स्कूल में यह गाते हुए गरबा करते थे, यह कहते हुए उन्होंने गुजराती की एक पंक्ति गाकर सुनायी जिसका अर्थ था कि 'ये गाँधी तो देश के लिए पागल हो गया है’ - इसे ही गाते हुए माँ और सहेलियाँ गरबा किया करती थीं। वड़ोदरा में भाषा, खानपान की दिक़्क़त थी तो नाना ने दोनों को इलाहाबाद में महादेवीजी की महिला विद्यापीठ में भेज दिया। सावित्री मौसी तो थोड़े समय रहीं पर माँ छठी से एम.ए. तक वहीं पढ़ीं और महादेवी की प्रिय छात्रा रहीं। यहीं जब वह छठी-सातवीं में ही थीं तब गाँधीजी हिंदी साहित्य सम्मेलन के किसी कार्यक्रम में आए। वहाँ स्कूल की छात्राओं के साथ माँ को 'वंदे मातरम्’ गाना था। जब वह गाँधीजी के सामने से निकलीं तो उन्होंने उनका हाथ पकड़कर पूछा, 'वंदे मातरम् गाओगी।’ हाँ, कहने पर पीठ पर एक धौल जमाते हुए गाँधीजी ने कहा 'ज़ोर से गाना।’ गाँधीजी की जब भस्मी गंगा में विसर्जन के लिए आयी तब माँ रामधुन गाती पैदल संगम तक गयी थीं।
हमारे जीवन मामा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से होते हुये मुंबई आ गये थे। वह अख़बारों में लिखते थे। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के समय अपने संस्मरण में उन्होने लिखा: 'सन् 1942 का अगस्त आ गया था। शुरू से ही बंबई के वातावरण में अकुलाहट छा रही थी। कांग्रेस के बड़े नेता आ रहे थे। माहौल में बेचैनी और छटपटाहट थी।
पहला हफ़्ता बीता कि एलान हुआ कल शिवाजी पार्क में सभा है, गाँधीजी बोलेंगे। भारी भीड़ उमड़ पड़ी। पर न गाँधीजी आए न सभा हुई। लेकिन उनका संदेश सब कहीं पहुँच गया- 'तुम्हीं सिपाही हो, तुम्हीं नेता हो। करो या मरो।’
सभी की ज़ुबान पर था, 'करो या मरो।’ फिर एक ख़बर आग की तरह फैली- 'गाँधीजी पकड़ लिये गए, सारे नेता गिरफ़्तार हो गए।’ एक सनसनी और बौखलाहट फिर चिल्लाहट में बदल गयी, 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो।’ सड़क को अवरुद्ध किया जाने लगा। रस्से बाँध कर खम्भों को सड़क पर लिटा दिया गया। घर का बेकार सामान सड़क पर आ गया। लड़के रातभर खंभे पीटते रहे, 'धन्न-धन्न।’ उस रात शायद ही कोई सोया।
सुबह यातायात ठप्प था। दोपहर में सेना आ गयी। लोगों को पकड़कर अवरोध उठाये जाने लगे।’ मामाजी से रहा नहीं गया तो वह जैसे-तैसे 'आराम,’ बिल्डिंग पहुँचे और पढ़ने वाले बच्चों के लिए घंटी बजाई तो दरवाज़ा खुलने से पहले दो सार्जेंटों ने बंदूक़ें अड़ा दीं और कहा नीचे चलकर सड़क साफ़ करो। तब तक दरवाज़ा खुल चुका था, मामाजी ने लड़कों से अपने मित्र उत्तम राव को सब बताने को कहा। नीचे कई लोग कतार में थे। बाद में एक ट्रक में लादकर कोतवाली लाकर छोटे-छोटे-से कमरे में कई-कई लोग ढूँस दिए गए। रात में मामाजी की तंद्रा तब खुली जब एक सिपाही ने उनसे कहा- बाहर चलो। बाहर उत्तमराव थे। लड़कों ने उन्हें बता दिया था। पुलिस अधिकारी ने मामाजी को उनके हवाले किया और उत्तमराव की बेबी आस्टिन में वह चल दिये।
रास्ते में उत्तमराव ने धीरे से कहा, पता चला है कि बापू पुणे में हैं। दो बजे गाड़ी है। अपन चलेंगे। उनका दर्शन करेंगे। मैं सुतार (बढ़ई) बनूँगा तुम मेरे मददगार। दूरबीन का इंतज़ाम है। तुम खाना खाकर एक घंटे सो लो। फिर दोनों ने ट्रेन पकड़ी। पौने दो घंटे में ठिकाने लगे। बाहर निकलकर तमिलभाषी उत्तमराव ने मराठी में बात कर एक टैक्सी वाले को तैयार किया और सीधे चलने को कहा, जब टैक्सी मुख्य सड़क पर आयी तो थोड़ा चलकर उतर गए और एक दिशा में इशारा करके बोले अपन को वहाँ टीले तक चलना है। पत्थर और झाड़ियाँ हैं, संभलकर। अपने पास 45 मिनट हैं। पसीने से लथपथ दोनों 38 मिनट में वहाँ पहुँचे। उत्तमराव ने दूरबीन तैयार की। साफ़्टवुड के छह टुकड़े थे, एक-दूसरे में फिट होने वाले। उनमें शीशे फँसाने के लिए खाँचे थे। सबको जोड़कर दूरबीन बन जाती थी। ऊपर लगे शीशे पर सामने की चीज़ का अक्स पड़ता था जो नीचे के शीशे में दिखायी देता था। मामाजी पास ही लेट गए। फिर एक कंकड़ उन्हें लगा। आँखें खोलीं तो उत्तमराव इशारे से बुला रहे थे। पौ फट चुकी थी। उजाला फैल गया था। यह गाँधीजी के सुबह की सैर का वक़्त होता है। उत्तमराव ने दूरबीन से सिर हटाया और कहा, 'देखो! भगवान का लाख-लाख शुक्र!’ अगस्त ’42 की वह नौ तारीख़ की सुबह थी। मैंने दूरबीन से देखा आगा खाँ महल के प्रांगण में सफ़ेद चादर ओढ़े गाँधीजी फुर्ती से टहल रहे हैं। बाद में लौटकर उत्तमराव ने यह ख़बर भेजी और उनका अख़बार संभवत: यह ख़बर पहले पहल देने वाला बना।
ये स्मृतियाँ बताती हैं कि गाँधीजी ने लोगों को किस गहराई तक प्रभावित किया था। आज के कठिन और उद्विग्न समय में गाँधीजी के साथ उन सबको याद करना बेहद ज़रूरी है... वैसे तो, इनकी जस की देह को जरा मरन नहीं होय!