गाँधीजी की शादी 13 साल की उम्र में ही हो गई थी जब वह स्कूल में पढ़ रहे थे। उनकी पत्नी उनसे कुछ महीने बड़ी थीं लेकिन हमउम्र ही कही जाएँगी। दोनों एक तरह से बच्चे ही थे और दोनों में झगड़ा भी ख़ूब होता था। कई-कई बार दोनों में बातचीत भी बंद हो जाती थी। गाँधीजी इसके बारे में लिखते हुए अपनी आत्मकथा में उन झगड़ों का कारण भी बताते हैं।
जिन दिनों गाँधीजी की शादी हुई थी, उन दिनों दांपत्य जीवन के बारे में शिक्षा देने वाले पर्चे एक-एक पैसे में बिकते थे। गाँधीजी ऐसे पर्चों को बड़े ध्यान से पढ़ते थे। इन पर्चों में पत्नी के साथ जीवनपर्यंत वफ़ादारी की सीख गाँधीजी के दिल में बस गई। लेकिन इसका एक उल्टा असर भी हुआ। वह यह कि यदि पति को पत्नी के प्रति वफ़ादार रहना चाहिए तो पत्नी को पति के प्रति पूरी वफ़ादारी निभानी चाहिए। इसने उनके मन में ईर्ष्या और संदेह का बीज बो दिया, हालाँकि पत्नी के चरित्र पर संदेह करने की कोई वजह थी नहीं। ख़ैर, वह कस्तूरबा की हर गतिविधि पर नज़र रखने लगे, आने-जाने पर रोक लगाने लगे। लेकिन पत्नी भी बेकार की टोकाटाकी पसंद करने वाली नहीं थीं। जितनी वह बंदिशें लगाते थे, उतना ही वह उनकी बातें नहीं मानतीं। भला मानती भी क्यों आख़िर मंदिर जाने या सहेलियों से मिलने में क्या हर्ज है
बिना वजह पत्नी के चरित्र पर शक करने की एक वजह वह दोस्त भी था जिसने गाँधीजी को माँस खिलाया था और वेश्यालय तक पहुँचाया था। अपनी आत्मकथा में उन दिनों को याद करते हुए गाँधीजी लिखते हैं -
‘कोई हिंदू पत्नी ही इतना अन्याय सह सकती है, और इसीलिए मैं स्त्रियों को सहनशीलता का अवतार मानता हूँ। किसी नौकर पर मिथ्यारोप लगाया जाए तो वह काम छोड़कर जा सकता है, उसी तरह एक बेटा अपने पिता का घर छोड़ सकता है और एक दोस्त अपनी दोस्ती को लात मार सकता है। पत्नी को यदि अपने पति पर शक है तो वह चुप रह जाएगी, लेकिन यदि पत्नी उसपर शक करे तो उसकी तो ज़िंदगी ही बर्बाद है। वह कहाँ जाएगी कोई हिंदू पत्नी अदालत में तलाक़ माँगने नहीं जाएगी। क़ानून के पास उसके लिए कोई इलाज नहीं है। मैंने अपनी पत्नी को जिस हताशा के मुहाने पर पहुँचा दिया, उसके लिए मैं ख़ुद को कभी नहीं माफ़ कर पाऊँगा।’
गाँधीजी का यह व्यवहार लंदन में बैरिस्टरी पास करके लौटने के बाद भी नहीं बदला। वह लिखते हैं - ‘पत्नी के साथ मेरे रिश्ते अब भी वैसे नहीं थे जैसे कि मैं चाहता था। इंग्लैंड में रहने के बाद भी मैं अपने ईर्ष्यालु स्वभाव से मुक्ति नहीं पा सका था। छोटे-से-छोटे मामले में मेरी तुनकमिज़ाजी और मेरा शक्कीपना पहले की तरह बरक़रार रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि उसको लेकर मेरे सारे सपने अधूरे रह गए। मैं चाहता था कि मेरी पत्नी पढ़ना-लिखना सीखे और मैं इस मामले में उसकी मदद करूँ, लेकिन मेरी कामलिप्सा हर बार आड़े आ जाती थी और मेरी इस कमी का ख़ामियाजा उसको भुगतना पड़ता था। एक बार तो मैंने इतनी हद कर दी और उसको मायके भेज दिया और तब तक वापस बुलाने को राज़ी नहीं हुआ जब तक उसकी हालत बिल्कुल दयनीय नहीं हो गई।’
लेकिन हद तो अभी होनी बाक़ी थी। बात दक्षिण अफ़्रीका की है जब अपने आदेश का पालन न करने पर गाँधीजी ने कस्तूरबा को घर से निकाल ही दिया था।
गाँधीजी चाहते थे कि वह जैसा सोचते और करते हैं, कस्तूरबा भी बिल्कुल वैसा ही सोचें और करें। इस क्रम में दोनों में अक्सर विवाद हो जाता था। ऐसे ही एक वाक़ये का उल्लेख करते हुए वह बताते हैं कि कैसे एक रोज़ वह पत्नी को घर से बाहर निकालने के लिए खींचकर दरवाज़े तक ले गए थे।
बात 1898 की थी जब गाँधीजी डरबन में रहते थे। वहाँ उनका घर पश्चिमी शैली में बना हुआ था और कमरों में नाली के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। हर कमरे में रात में इस्तेमाल करने के लिए एक मूत्रपात्र रखा होता था। उस मकान में उनके कुछ कर्मचारी भी रहते थे जो अलग-अलग जाति और धर्म के होते थे। पुराने कर्मचारी अपना मूत्रपात्र ख़ुद ही साफ़ कर लिया करते थे। लेकिन उन्हीं दिनों एक नया कर्मचारी आया हुआ था जो ईसाई होने से पहले अस्पृश्य जाति का था। गाँधीजी को लगा कि अभी यह नया-नया आया है तो जब तक कामकाज समझ न जाए, तब तक उसके कमरे की साफ़-सफ़ाई का काम हमें ख़ुद करना चाहिए।
गाँधीजी के कहने पर कस्तूरबा बाक़ी सभी कर्मचारियों के पात्र तो उठाया करती थीं लेकिन एक अस्पृश्य का मूत्रपात्र उठाना उनके लिए असह्य था। गाँधीजी के आदेश पर आख़िरकार उन्होंने उसे उठा तो लिया लेकिन जैसा कि गाँधीजी लिखते हैं - हाथों में पात्र लिए सीढ़ियों से उतरते समय क्रोध से भरी उसकी वाणी, ग़ुस्से से लाल आँखें और गालों पर बहती अश्रुधारा - आज भी वह तसवीर मेरी आँखों के सामने नाच उठती है।
कस्तूरबा पर क्यों ग़ुस्साए थे गाँधीजी
लेकिन गाँधीजी को यह व्यवहार मंज़ूर नहीं था। उनके अनुसार सेवाकार्य ख़ुशी-ख़ुशी होना चाहिए। उन्होंने अपनी आवाज़ तेज़ करते हुए कहा, ‘मैं अपने घर में यह बेहूदगी बर्दाश्त नहीं करूँगा।’
कस्तूरबा को यह बात तीर की तरह चुभ गई। वह बोलीं, ‘आप अपना घर सँभालो और मुझे जाने दो।’ उनका यह कहना था कि गाँधीजी ने उनका हाथ पकड़ा, खींचकर दरवाज़े तक ले गए तथा दरवाज़ा खोलकर उन्हें बाहर धकेलने लगे। कस्तूरबा रोती रहीं, ‘मैं कहाँ जाऊँगी यहाँ परदेस में न कोई मायके वाले न रिश्तेदार, कहाँ जाऊँगी मैं आपकी पत्नी हूँ तो क्या मुझे आपके लात-घूँसे खाने पड़ेंगे भगवान के लिए शांत हो जाइए। तमाशा मत बनाइए, दरवाज़ा बंद कर दीजिए।’
गाँधीजी कुछ पल पत्थर के बुत की तरह खड़े रहे मानो कुछ हुआ ही न हो, लेकिन अंदर-ही-अंदर बहुत शर्मिंदा थे और दरवाज़ा बंद कर दिया।
1898 में हुई इस घटना को याद करते हुए गाँधीजी 1926 में अपनी आत्मकथा में लिखते हैं,
‘आज मैं इस घटना को थोड़ा निर्लिप्त होकर बयान करने की स्थिति में हूँ क्योंकि यह उस दौर की बात है जिससे मैं सौभाग्य से निकल पाया हूँ। आज मैं कोई प्रेमांध, आसक्त पति नहीं हूँ, न ही मैं आज उसका शिक्षक हूँ। कस्तूरबा अगर चाहे तो वह मेरे साथ उतनी ही दुर्विनीत हो सकती है, जैसा कि मैं पहले उसके साथ हुआ करता था। हम अब एक-दूसरे के परखे हुए साथी हैं। कोई भी दूसरे को अपनी कामेच्छा पूरी करने का साधन नहीं समझता। मेरी अस्वस्थता के दौरान वह पूरी निष्ठा के साथ मेरी सेवा करती रही है बिना किसी प्राप्ति की आशा के। यह घटना 1898 की है जब ब्रह्मचर्य के बारे में मेरे मन में कोई धारणा नहीं थी। उन दिनों मैं पत्नी को पति की सहायिका, सखी और उसके सुख-दुख की संगिनी मानने के बजाय उसे पति की वासनापूर्ति का साधन समझता था जिसका धर्म था पति की हर आज्ञा का पालन करना। परंतु 1900 में मेरे विचारों में आमूल परिवर्तन आया और 1906 में उसने साकार रूप लिया।’
गाँधीजी यहाँ जिस परिवर्तन की बात कर रहे हैं, वह था उनका ब्रह्मचर्य का संकल्प जिसके तहत उन्होंने कस्तूरबा के साथ शारीरिक संबंध समाप्त करने का निश्चय कर लिया था।
यह अचानक नहीं हुआ था। 1900 में अपने पाँचवें बेटे के जन्म के बाद उन्होंने पत्नी से अपना बिस्तर अलग कर लिया ताकि उन्हें और संतानें न हों। वह इसके लिए गर्भनिरोधक उपाय भी अपना सकते थे लेकिन गाँधीजी गर्भनिरोध के बाहरी उपायों के विरोधी थे, इसलिए उन्हें यही सही लगा कि शारीरिक संबंधों में संयम बरता जाए। आगे चलकर उन्होंने इसे संकल्प के तौर पर स्वीकार कर लिया।
जैसा कि हमने पिछली कड़ियों में जाना, गाँधीजी शुरू से ही देह और मन के संघर्षों में पिसते रहे। किशोरावस्था में ही शादी हो गई और वह दैहिक सुख के आदी हो गए। वासना ने उनको इतना जकड़ लिया था कि बीमार पिता की सेवा करते हुए भी वह पत्नी के संग की कल्पना करते रहते। अपने पिता के अंतिम दिन की चर्चा करते हुए वह लिखते हैं -
“रात के 10:30-11 बजे थे। मैं पिताजी के पैर दबा रहा था। मेरे चाचा ने कहा कि तुम अब जाओ, मैं यहाँ हूँ। मैं ख़ुश हो गया और सीधे अपने कमरे में चला गया। पत्नी बेचारी सो चुकी थी। लेकिन जब मैं जाग रहा हूँ तो वह कैसे सो सकती है मैंने उसे जगाया। अभी पाँच-छह मिनट ही हुए होंगे कि नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया। मैं घबराया कि क्या बात है। उसने कहा, ‘उठ जाइए, पिताजी की हालत बहुत ख़राब है।’
मैं जानता था कि पिताजी की हालत बहुत ख़राब है, इसलिए मुझे अंदेशा हो गया कि ‘बहुत ख़राब’ से उसका क्या आशय है। मैं झटके से उठा और पूछा, ‘क्या बात है मुझे बताओ।’ उसने कहा, ‘पिताजी नहीं रहे।’
सबकुछ ख़त्म हो गया और मेरे पास हाथ मलने के सिवा कोई चारा नहीं था। मैं बहुत लज्जित और निकृष्ट महसूस कर रहा था। मैं भागकर पिताजी के कमरे में गया। मुझे साफ़ नज़र आ रहा था कि अगर पाशविक कामलिप्सा ने मुझे अंधा नहीं कर दिया होता तो मैं पिताजी के अंतिम क्षणों में उनसे दूर रहने के दुर्भाग्य से बच सकता था। मैं उनके पैर दबा रहा होता और उन्होंने मेरी बाँहों में अपना दम तोड़ा होता। …यह एक ऐसा कलंक था जिसे मैं कभी भी भुला नहीं पाया।”
गाँधी विशेषज्ञों का मानना है कि आगे चलकर गाँधीजी में सेक्स के प्रति जो वितृष्णा पैदा हुई, उसमें पिताजी की मृत्यु के समय की इस घटना का भी बड़ा योगदान था।
इसके अलावा वेश्याओं के साथ उनका जो कई मौक़ों पर आमना-सामना हुआ, उससे भी गाँधीजी को महसूस हुआ कि पत्नी के प्रति निष्ठावान होने की इच्छा के बावजूद वह अपनी कामलिप्सा पर क़ाबू नहीं कर पा रहे हैं और उन सभी मौक़ों पर ‘निष्कलंक’ बच निकलने के लिए वह ख़ुद को श्रेय देने के बजाय ईश्वर को धन्यवाद देते हैं।
अंत में इस कामरूपी दैत्य को निष्क्रिय करने का उन्हें एक ही उपाय सूझा कि उसके चारों तरफ़ ब्रह्मचर्य व्रत की दीवार खड़ी कर दी जाए। 1906 में यह दीवार बनाने के बाद वे इसे साल-दस-साल और मोटी, और मज़बूत करते गए।
उनकी ज़िंदगी में आगे क्या हुआ, इसके बारे में हम जानेंगे इस सीरीज़ की अगली कड़ी में।