आजादी का एक नाम अभय भी है। अभय का सिर्फ यही अर्थ नहीं होता कि हम किसी से न डरें बल्कि उसका एक अर्थ यह भी होता है कि हमसे भी कोई न डरे। अभय तभी संपूर्ण होता है। मनुष्य जितना अभय की तलाश करता है उतना ही उसे भयभीत करने वाले सक्रिय हो जाते हैं। अगर भयभीत करने वाले पीछे छूट गए तो उसे ठगने वाले आगे आ जाते हैं। इस संदर्भ में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का संसद में दिया गया भाषण बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा था `डरो मत डराओ मत’। उन्होंने अभय के लिए विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों और देवी देवताओं की अभय मुद्राएं भी प्रदर्शित की। तो क्या वही आजादी है। वह आजादी की पहली और अनिवार्य शर्त है।
ईसा पूर्व से लेकर इक्कीसवीं सदी तक आजादी का क्षितिज बहुत बड़ा हो चुका है। उसमें बहुत सारे तत्व शामिल हैं। उसमें खानपान, पहनावे से लेकर पूजा पद्धतियों, सरकार चुनने के तरीकों और अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर डिजिटल आजादी तक शामिल है। लेकिन कुछ बुनियादी चीजें तो हैं और हमेशा रहेंगी।
हाल में पड़ोसी देश बांग्लादेश में जो तख्तापलट हुआ उसकी तमाम किस्म की व्याख्याएं हैं। कोई विदेशी साजिश बता रहा है तो कोई भारत विरोधी अभियान बता रहा है तो कोई हिंदू विरोधी बता रहा है। तो कोई आरक्षण विरोधी आंदोलन बता रहा है तो कोई कट्टरपंथ का उभार कह रहा है। यह सारी चीजें हो सकती हैं। लेकिन एक बुनियादी चीज जिसका जिक्र बांग्लादेश के लोग कर रहे हैं लेकिन जिसका जिक्र भारत में कम किया जा रहा है और वो है आजादी का।
बांग्लादेश के लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहे थे। उनका मानव विकास सूचकांक भारत से भी बेहतर था। लेकिन वे अभय नहीं थे। उनकी आजादी छीनी जा रही थी। मनुष्य लाख भौतिकवादी, उपभोक्तावादी हो जाए लेकिन आजादी उसकी बुनियादी जरूरत है। उससे अगर आप ने सब कुछ देकर आजादी छीन ली तो एक न एक दिन वह विद्रोह जरूर करेगा।
इसीलिए 1857 में भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र ने जो फरमान जारी किया था उसकी पहली लाइन थी कि खुदा ने दुनिया में इंसान जो जितनी नियामतें बरकत की हैं उसमें सबसे बेशकीमती है आज़ादी। लेकिन आज़ादी छीनी तब जाती है जब लोग आज़ादी की परिभाषा को लेकर बंट जाते हैं।
हम 1857 की लड़ाई इसलिए नहीं जीत पाए क्योंकि उस समय हिंदू और मुस्लिम समाज में जितनी एकता होनी थी वह नहीं हो पाई। जब लोग आजादी का मूल अर्थ अभय से लेने की बजाय अपने अपने शासन से लेने लगते हैं और दूसरों को डराने दबाने से लेने लगते हैं तो आज़ादी विभाजित हो जाती है और कमजोर हो जाती है। इसीलिए भारत की गुलामी की एक वजह यह भी बताई जाती है कि यहां जाति और यौन के कटघरे बने हुए थे। सवर्ण अवर्णों को दबाता था तो पुरुष स्त्री को।
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आज़ादी ईर्ष्या और नफ़रत नहीं सिखाती। वह दूसरों के लिए सरोकार और प्रेम सिखाती है। आज़ादी का मतलब यह नहीं है कि सत्ता आज़ाद रहे और जनता गुलाम रहे।
आज़ादी का मतलब यह नहीं कि फौज और पुलिस को कार्रवाई की छूट रहे और जनता को सहने की। आज़ादी का अर्थ यह भी नहीं है जो धनवान है उसे हर प्रकार से धन जमा करने की आज़ादी हो और जो सामान्य जन है उसे अपने कर का सही मूल्य भी न मिल पाए। आजादी का मतलब यह भी नहीं कि भारत की जनता आजाद रहे और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनता गुलाम रहे। भारत की आजादी का मतलब दुनिया के कम से कम सौ देशों की आजादी से था। गांधी तो यूरोप को भौतिकवादी हिंसक सभ्यता से आजाद कराने का संकल्प किए हुए थे। आजादी का मतलब यह नहीं कि हिंदू आजाद रहें और मुसलमान गुलाम रहें। या सवर्ण आजाद रहें और अवर्ण गुलाम रहें। न ही उसका अर्थ पुरुषों की आजादी औऱ महिलाओं की गुलामी से है। न ही इसका मतलब यह है कि आदिवासियों की संपत्ति लूटी जाए और बाकी आबादी समृद्ध होती जाए।
वास्तव में आज़ादी का एक अर्थ बृहदारण्यक उपनिषद के उस श्लोक में निहित है जो महात्मा गांधी को बहुत प्रिय थाः—सर्वे भवंतु सुखिना सर्वे संतु निरामय, सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित दुःख भा भवेत्।।
गांधी जी ने आजादी के लिए जिस `स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया था उसे उन्होंने ऋग्वेद से लिया था। स्वराज्य का अर्थ है अपने ऊपर अपना राज। यानी आप के ऊपर कोई सरकार राज नहीं करेगी। बल्कि आप अपने ऊपर स्वयं ही राज करोगे। उसे ही वे रामराज्य कहते थे। लेकिन उनके लिए रामराज्य का अर्थ मौजूदा हिंदुत्व से निकले रामराज्य से अलग था। वे कहते थे रामराज्य का अर्थ यह नहीं कि अंग्रेज पूंजीपति चले जाएं तो यहां के पूंजीपतियों का राज आ जाए। या अंग्रेजी फौज चली जाए तो यहां की फौज राज करने लगे। इसे न तो स्वराज्य कहेंगे और न ही रामराज्य।
लेकिन आजादी के अर्थ को लेकर गांधी के समय के सारे नेता समान धरातल पर नहीं खड़े थे। जैसे आज आजादी और लोकतंत्र को लेकर भाजपा और कांग्रेस एक धरातल पर नहीं है। न ही एनडीए और इंडिया समूह एक धरातल पर हैं। गांधी आज़ादी की जो भी परिभाषा देते थे आंबेडकर उसे खारिज कर देते थे। गांधी मूलतः राजनीतिक आजादी के लिए लड़ रहे थे, जबकि आंबेडकर सामाजिक आजादी के लिए। गांधी को लगता था कि राजनीतिक लड़ाई कठिन है तो आंबेडकर को लगता था कि सामाजिक आजादी की लड़ाई कठिन है। आधुनिक भारतीय राजनीति की यह दोनों धाराएं लंबे समय तक टकराती रहीं लेकिन जब गांधी और आंबेडकर ने एक दूसरे को समझने की कोशिश की तो वे करीब आईं।
आज भी गांधी और आंबेडकर के अनुयायी उन दोनों के टकराव पर उसी तरह से बहस करते रहते हैं जिस तरह से गांधी और भगत सिंह के अनुयायी करते हैं। यह इतिहास में अपने को जड़ कर देने जैसा है और वर्तमान के लिए इतिहास के हठी संदेश कंधे पर उठाए घूमने जैसा है। विडंबना यह है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया तक भारत के तमाम बौद्धिकों की नियति यही है। वे इतिहास के प्रमुख और नायकत्व वाले पात्रों के विभेदों का अकादमिक पाठ करते हैं। लेकिन उनके संदेशों और संघर्षों की दार्शनिक एकता नहीं देखते। उन्होंने गांधी और आंबेडकर की आजादी के अर्थों का समन्वय करने का प्रयास ही नहीं किया।
उन्होंने यही दर्शाने की कोशिश की कि गांधी कितने बड़े या आंबेडकर कितने बड़े या गांधी कितने छोटे या आंबेडकर कितने छोटे। इस दौरान इतिहास उन लोगों को हाथों में चला गया जिनके पास नायकत्व के गुण ही नहीं थे। फिर वे आजादी के अर्थ को छोटा करने लगे। उनके लिए आजादी का अर्थ अपनी जलवाफरोशी रह गया। अपनी जीत का रिकार्ड कायम करना रह गया। अपनी सफलता रह गई और किसी को डराना, किसी को चिढ़ाना और किसी को धमकाना रह गया। कुछ लोगों के लिए आजादी का अर्थ सिर्फ आरक्षण रह गया तो कुछ लोगों को लिए सिर्फ धार्मिक जुलूस, भड़काऊ नारे और दूसरे धर्मों में छेड़छाड़ का कानून बनाना रह गए।
आंबेडकर ने आजादी के मूल अर्थ में बंधुत्व को रखा था। बंधुत्व यानी भाई भाई के बीच भय और अविश्वास का रिश्ता न हो बल्कि अभय का रिश्ता हो। क्योंकि उनका कहना था कि समता और स्वतंत्रता तो एक दूसरे को काटने वाले मूल्य हैं। इन्हें अगर कोई बचाएगा तो वह बंधुत्व का मूल्य। बंधुत्व के इसी मूल्य की रक्षा के लिए महात्मा गांधी नोआखाली गए और वहां के हिंदुओं को दंगाई मुसलमानों से बचाया। इसी की रक्षा के लिए दिल्ली आए और यहां के मुसलमानों को पाकिस्तान जाने के रोका। लेकिन इसी बंधुत्व की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी जान भी दे दी। क्योंकि वे मानते थे कि आजादी का मतलब किन्हीं मूल्यों के लिए अपनी जान दे देना है न कि किसी की जान ले लेना। इसलिए आजादी का मतलब है अधिकतम सहमतियों के समतल मैदान में एक नियम के तहत रहना, जीना और हंसना खेलना। न कि असहमतियों के गड़बड़झाले में एक दूसरे से भिड़े रहने। लेकिन आजादी का एक अर्थ असहमतियों के साथ जीने में भी है और उसके लिए आदर बनाए रखना ही आजादी का सम्मान है।