बचपन में वह बहुत सीधे-साधे थे। परिवार की लड़कियों के बीच खेल कर उनका बचपन बीता। इसका असर यह हुआ कि उनके बोलने का लहज़ा बहुत शालीन और मिज़ाज शर्मीला हो गया। यह बच्चा जब लड़का बना तब भी उसमें पुरुषों जैसी आक्रामकता और बेबाक़ी नहीं आयी। और कमाल यह है कि कम बोलने वाला और प्रेम विषय पर शायरी की शुरुआत करने वाला वह शख्स ऐसा क्रांतिकारी शायर बना जिसके मरने के 35 साल बाद भी उसकी शायरी जीवन के रणक्षेत्र में कठिन और विपरीत समय में सपनों और इंसान के आत्मसम्मान को बचाए रखने की प्रेरणा दे रही है।
यह शायर हैं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़। 1911 में पाकिस्तान के सियालकोट में जन्मे फ़ैज़ हालाँकि पाकिस्तान के नागरिक थे लेकिन उनके देश से अधिक उनके चाहने वाले भारत में हैं। फ़ैज़ एक सामंतवादी माहौल में पले-बढ़े लेकिन जब पिता का साया सिर से उठा तो पता चला कि पिता जितनी संपत्ति छोड़ कर गए उससे ज़्यादा क़र्ज़ भी छोड़ा। यहीं से जीवन की वास्तविकताओं से उनकी मुठभेड़ शुरू हुई।
दुनिया में कहीं भी जन संघर्ष हुआ तो फ़ैज़ की क़लम उस संघर्ष की पक्षधर हो गयी। फ़िलिस्तीन और ईरान के जन आंदोलन हों या अफ्रीका के। और तो और हर ख़तरे का सामना करने के बावजूद ख़ुद पाकिस्तान में राजनीतिक अत्याचार और धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ फ़ैज़ की आवाज़ सबसे बुलंद रही। उन्हें ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान की फ़ौजी तानाशाह सरकार से लड़ते हुए बिताना पड़ा। वह जेल में डाले गए। निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हुए फिर भी ज़िंदगी एक मक़सद के लिए जीते रहे। वह मक़सद था इंसान की बुनियादी आज़ादी और अत्याचार का विरोध।
फ़ैज़ का बचपन घोर मज़हबी माहौल में बीता लेकिन लाहौर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान रूसी और फ्रांसीसी साहित्य से दोस्ती हुई। धर्म को लेकर फ़ैज़ के जो विचार थे उनमें इस साहित्य ने उथल-पुथल मचा दी। उसी समय फ़ैज़ ने जीवन की कई ऐसी कठोर सच्चाइयों से सामना किया जिससे उनमें ख़ास नज़रिया विकसित हुआ। फिर कला और साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन ने उनके नज़रिये को इतना मज़बूत बना दिया कि जेल में रहने और निर्वासन का जीवन बिताने के बावजूद फ़ैज़ न कभी झुके न टूटे।
फ़ैज़ ने ज़िंदगी की गाड़ी खींचने के लिए कई काम किए। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वह सेना में भर्ती हुए और कर्नल के पद तक पहुँचे लेकिन युद्ध की समाप्ति के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उन्होंने शिक्षक का दायित्व भी निभाया और ‘पाकिस्तान टाइम्स’ अख़बार के संपादक भी रहे।
फ़ैज़ ने असमानता के विरोध में शायरी को हथियार बनाया। उनका यह हथियार इतना कारगर साबित हुआ कि पाकिस्तान में बार-बार फ़ैज़ की रचनाएँ हुक्मरानों को बेचैन करने लगीं।
विभाजन के बाद फ़ैज़ सहित पाकिस्तान के प्रगतिशील लोग देश में लोकतंत्र के आने का इंतज़ार करते रहे लेकिन लोकतंत्र को वहाँ आने भी नहीं दिया गया। यह फ़ैज़ के समाजवादी सपने पर क़रारी चोट थी। तब फ़ैज़ ‘पाकिस्तान टाइम्स’ नाम के अख़बार के संपादक बने। कुछ समय बाद सरकार ने इस अख़बार को बंद करवा कर फ़ैज़ को जेल में डाल दिया। जेल में फ़ैज़ ने अपनी चर्चित नज़्म लिखी- ‘मताए लौहो क़लम छिन गयी तो क्या ग़म है कि ख़ूने दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने’।
जेल से छूट कर लिखा- बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...
जेल से छूट कर फ़ैज़ पाकिस्तान ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष बन कर मज़दूरों के हित में काम करने लगे। अलग-अलग कामों के दौरान भी फ़ैज़ क्रांतिकारी नज़्में लिखते रहे। जिन्होंने उस समय के दमनकारी और मनहूस माहौल में हौसले का काम किया। उनकी शायरी का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा कि ललकार और आक्रामकता के बावजूद उनकी कविता नारों में नहीं बदली। मिसाल के लिए इन नज़्मों को देखा जा सकता है- ‘कहीं नहीं है कहीं भी नहीं है लहू का सुराग’ और ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे बोल जुबाँ अब तेरी है’।
बहरहाल, दो घटनाओं से फ़ैज़ की शायरी के असर को समझने में और मदद मिल सकती है। 1979 में उनकी लिखी नज़्म ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ को गायिका इक़बाल बानो ने एक सार्वजनिक समारोह में गाया तो लोगों में इतनी उत्तेजना फैल गयी कि जियाउल हक प्रशासन को वह कार्यक्रम रुकवाना पड़ा। और चालीस साल बाद दिल्ली में नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान जब छात्रों ने यह नज़्म गायी तो इस नज़्म को हिंदू-विरोधी क़रार दिया गया और अब आईआईटी कानपुर इसकी जाँच करवा रहा है। इससे अंदाज़ लगाइये कि फ़ैज़ क्या हैं और फ़ैज़ कौन थे।