दिल्ली पुलिस ने आप के निगम पार्षद ताहिर हुसैन के ख़िलाफ़ हत्या का मामला दर्ज कर लिया है। यह मुक़दमा मारे गए इंटेलीजेंस ब्यूरो के कर्मी अंकित शर्मा के परिजनों के बयान पर दर्ज किया गया है। अंकित शर्मा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि उन्हें एक बार नहीं 400 बार किसी नुकीली चीज से मारा गया। ज़ाहिर है यह एक आदमी का काम तो नहीं हो सकता।
कपिल मिश्रा के ख़िलाफ़ भी जाँच चल रही है। हाई कोर्ट पुलिस को इस बात के लिए फटकार भी चुका है। लेकिन सवाल है कि दिल्ली के दंगों की साज़िश क्या सिर्फ़ कपिल मिश्रा के बयान या ताहिर के घर की छत पर एकत्रित पत्थर के टुकड़ों, गुलेल और तेज़ाब, पेट्रोल बम आदि तक ही सीमित है नहीं, यह बात दिल्ली पुलिस भी जानती है इसलिए जाँच के लिए बनाई गई एसआईटी में एक नहीं चार तेज़तर्रार माने जाने वाले एसीपी हैं।
पहले बात ताहिर से शुरू करते हैं। अपने ऊपर लगाए गए तमाम आरोपों के जवाब में ताहिर ने कहा है कि वो घर पर नहीं थे और पुलिस की मदद माँग रहे थे। उनके अपने बयान ही उन्हें संदेह के घेरे में ला खड़ा करते हैं। पहली बात तो यह कि दुनिया का कोई क़ानून इस तर्क को सहजता से स्वीकार नहीं करता कि आपके घर में दंगे का सामान रखा जाए और आपको इसकी ख़बर न हो। सफ़ाई वाला तर्क देते समय ताहिर यह भी भूल गए कि उन्हें क्षेत्र की जनता ने निगम पार्षद चुना था और उनका सबसे पहला कर्तव्य था कि वह भड़के लोगों को शांत कराते। इस कोशिश की बजाय उन्होंने वहाँ से फरार होने का क़दम उठाया तो क्यों...। आख़िर ऐसा कौन था जो हिंसा भड़कने पर उनकी अनुपस्थिति में उनके घर में न केवल घुसा बल्कि उनकी छत पर सैकड़ों की संख्या में पत्थर, बोतल बम और तेज़ाब का इस्तेमाल भी करता रहा ताहिर को यह भी बताना होगा कि जब उन्हें अपने मकान के ग़लत इस्तेमाल का वीडियो देखने को मिला तो उन्होंने पुलिस को सूचना क्यों नहीं दी वे अभी तक किस स्थान पर छिपे हैं, यह बताने से गुरेज क्यों एसआईटी ऐसे सवालों का जवाब उनसे जानना चाहेगी। ये सवाल उन्हें परेशानी में भी डालेंगे क्योंकि पुलिस पूछताछ से पहले और बहुत कुछ जाँचती है और अपनी जानकारी में ऐसी बातें और सबूत रखती है जिसके सामने आप झूठ आसानी से नहीं बोल सकते।
सड़क से लेकर ताहिर की छत और समय-समय पर होने वाली फ़ायरिंग के वीडियो और ख़बरें आपने देख और पढ़ ली होंगी। ये सारी बातें एक बात की तरफ़ तो साफ़ इशारा करती हैं कि दिल्ली में जो तीन दिन हुआ वह न तो नागरिकता क़ानून को लेकर भड़की हिंसा थी और न ही विरोध के दौरान अचानक आई उग्रता। भीड़ के पास अचानक भड़कने की कोई वजह नहीं थी। न तो पुलिस ने कुछ कहा था और न ही किसी और स्तर पर ऐसी बात कही गई थी कि भीड़ अचानक उग्र हो गई।
इसका मतलब साफ़ है कि दिल्ली हिंसा सोची-समझी साज़िश का हिस्सा है। साज़िश भी छोटी नहीं काफ़ी बड़ी। मेरी इस बात की पुष्टि पत्थरों के ढेर, कारतूसों के खोखे, बोतल बम, तेज़ाब आदि तो कर ही रहे हैं, हमालावरों के शिकार हुए लोगों की चोटें और हमला करने के तरीक़े भी कर रहे हैं।
बड़ी साज़िश मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जिस तरह के हथियार इस्तेमाल किए गए वह अचानक एकत्रित नहीं हो सकते। इसकी तैयारी काफ़ी दिनों से की जा रही होगी। हालाँकि अभी यह जाँच का विषय है लेकिन वर्तमान हालात बड़ी साज़िश का संकेत दे रहे हैं। अब सवाल यह कि इस साज़िश का सुराग क्यों नहीं लगा मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि दिल्ली पुलिस की लोकल इंटेलीजेंस बिल्कुल नाकाम हो चुकी है। दिल्ली का उत्तर पूर्वी हिस्सा घनी-पतली गलियों का संजाल समेटे हुए है। यहाँ सबसे बड़ी ज़रूरत लोकल इंटेलीजेंस की होती है लेकिन इन तंग गलियों में पुलिसकर्मी जाने की ज़रूरत समझते ही नहीं। न ही उनका संपर्क इन गलियों में लोगों से है। नतीजा ख़ुफ़िया नाकामी के रूप में सामने आता है। पिछले तीन साल के दौरान दिल्ली पुलिस में स्थानीय स्तर पर काम करने वाले पुलिसकर्मियों का नैतिक बल तेज़ी से गिरा है। इसकी वजह से लोकल बीट प्रणाली भी प्रभावित हुई है। निचले स्तर के पुलिसकर्मियों में वरिष्ठ अफसरों के प्रति समर्पण की भावना में कमी आई है।
बहरहाल, पुलिस की उपरोक्त कमी की चर्चा यहाँ इसलिए ज़रूरी है क्योंकि किसी मामले की जाँच मिलने वाली ख़ुफ़िया जानकारी पर निर्भर करती है। दिल्ली पुलिस के पास इस समय सीसीटीवी फुटेज और लगाए गए आरोप-प्रत्यारोप के अलावा कोई सबूत नहीं है। इनसे शिनाख्त हुए उपद्रवी तो पकड़े जाएँगे लेकिन जिनकी पहचान नहीं हो सकी उनका क्या
बात दिल्ली हिंसा की जाँच की हो रही है तो आप एक सवाल पर ग़ौर फरमाइए, देश में कितने दंगे हुए हैं जिसमें शामिल दोषियों और साज़िशकर्ताओं के ख़िलाफ़ जाँच एजेंसी पहुँच पाती है। जवाब नकारात्मक है।