समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है कि राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के चौथे सम्बोधन के बाद भी उम्मीदों की रोशनी किस तरह से ढूँढी जानी चाहिए तीन सप्ताह के ‘लॉकडाउन’ को लगभग तीन सप्ताह (19 दिन) और बढ़ा दिया गया है। चालीस दिन और एक सौ तीस करोड़ लोग। जैसे कि एक चलता-फिरता राष्ट्र किसी जादूगर ने देखते-देखते सड़कों से ग़ायब कर दिया हो। बीस अप्रैल या तीन मई के बाद क्या होगा अभी कुछ भी साफ़ नहीं है। लोगों को सिर्फ़ इतना ही पता है कि उन्हें क्या करने को कहा गया है। यह काफ़ी चौंकाने वाला दिलासा हो सकता है कि अगर अमेरिका और यूरोप के देशों में ज़िंदगी और मौत को लेकर लड़ाई ऐसे ही चलती रहती है तब भी हम तो तीन मई के बाद कम्फ़र्ट ज़ोन में आ ही जाएँगे।
प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में आश्वस्त किया है कि 20 अप्रैल से चुने हुए क्षेत्रों में छूट का प्रावधान ‘हमारे ग़रीब भाई-बहनों की आजीविका को ध्यान में रखते हुए किया गया है। जो रोज़ कमाते हैं, रोज़ की कमाई से ज़रूरतें पूरी करते हैं, वही मेरा वृहत परिवार है।’ चिंता का मुद्दा भी अब यही बन गया है कि क्या ये लाखों लोग जिनका कि ज़िक्र प्रधानमंत्री ने किया है ‘लगभग’ तीन या एक सप्ताह की भी तकलीफ़ें और बर्दाश्त करने की हालात में बचे हैं या कि उनके सब्र के बांधों में जगह-जगह से दरारें पड़ना शुरू हो गई हैं
ईमानदारी की बात तो यही है कि ‘इस समय’ असली देश वह नहीं है जो ‘अपने घरों’ में बैठकर प्रधानमंत्री को सुन रहा था बल्कि वह है जो उसके ठीक बाद हज़ारों-लाखों की तादाद में मुंबई के बांद्रा इलाक़े में ‘अपने’ घरों को वापस भेजे जाने की माँग करता हुआ जमा हो गया था।
जिसे बाद में पुलिस द्वारा लाठियाँ भांजकर खदेड़ा गया। और यह भी देखिए कि जो कुछ हुआ उसे लेकर पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने किस तरह से उद्धव ठाकरे पर राजनीतिक हमला बोला।
तकलीफ़ की बात यह है कि सरकार ने तब कोई ईमानदार संज्ञान नहीं लिया जब दस अप्रैल को ओडिशा के सैंकड़ों मज़दूरों ने घर भेजे जाने की माँग को लेकर सूरत शहर में आगज़नी की थी। कई मज़दूर अगले दिन गिरफ़्तार भी किए गए थे। ग्यारह अप्रैल को दिल्ली के कश्मीरी गेट इलाक़े में तीन रैन बसेरे के मज़दूरों के दो गुटों के बीच भोजन को लेकर हुए संघर्ष के बाद कुछ शरारती तत्वों द्वारा आग के हवाले कर दिए गए थे। कहा जा रहा है कि ‘लॉकडाउन’ के कारण कोई छह लाख प्रवासी मज़दूर इस समय बीच रास्तों में बने इक्कीस हज़ार अस्थायी शिविरों में फँसे हुए हैं। ये सभी अपने घरों को वापस लौटना चाहते हैं।
अमेरिका के 35वें राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनेडी ने 20 जनवरी 1961 को अपने शपथ-ग्रहण समारोह में देशवासियों से कहा था : ‘मत पूछो कि तुम्हारा देश तुम्हारे लिए क्या कर सकता है पूछो कि तुम अपने देश के लिए क्या कर सकते हो!’ इस बात को तो साठ साल हो गए हैं। इस बीच अमेरिका भी पूरा बदल गया है और बाक़ी दुनिया भी, जिसमें कि हम भी शामिल हैं। वे लोग जो इस समय बांद्रा, सूरत, दिल्ली या अन्य जगहों पर अपने ख़ाली पेट बजा रहे हैं, वे जानना चाहते हैं कि देश उनके लिए क्या कर रहा है