‘महंगाई मुक्त भारत’ और ‘कांग्रेस मुक्त भारत’- ये दोनों एक जैसे अभियान इस मायने में हैं कि न तो महंगाई कभी खत्म हो सकती है और न ही कांग्रेस से भारत को मुक्त किया या कराया जा सकता है। कांग्रेस का ‘महंगाई मुक्त अभियान’ वास्तव में समझ से परे है। महंगाई का विरोध, महंगाई भगाओ, महंगाई डायन जैसी बातें तो जनता को समझ में आती रही हैं लेकिन ‘महंगाई मुक्त भारत’ क्या जनता समझ पा रही है या जनता को समझ में आएगी?- यह महत्वपूर्ण सवाल है।
क्या ‘महंगाई मुक्त भारत’ के रूप में हम ऐसी अर्थव्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं जो वास्तव में महंगाई मुक्त हो? डॉ मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का कहना होता था कि महंगाई अर्थव्यवस्था का श्रृंगार होती है, पेड़ पर रुपये नहीं उगा करते।
तमाम आलोचनाओं के बावजूद डॉ मनमोहन सिंह को कोई गलत नहीं ठहरा सकता। अगर महंगाई से जूझने की शक्ति जनता में हो तो निश्चित रूप से यह महंगाई देश की जीडीपी को बढ़ाने वाली होती है, अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाली होती है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि महंगी दाल और महंगे प्याज के कारण भारत में सरकारें बदली हैं। कहने का अर्थ यह है कि महंगाई का मुद्दा ज्वलंत मुद्दा जरूर है और जनता महंगाई के खिलाफ आंदोलनों में भाग लेती रही है। फिर भी ये आंदोलन महंगाई को नियंत्रित करने के लिए होते रहे हैं न कि महंगाई मुक्ति के लिए? महंगाई सभी सरकारों में व्याप्त रहने वाला बाज़ार का स्थायी स्वभाव है। फिर भी महंगाई के कारण बेचैनी और जनता की प्रतिक्रिया में समय-समय पर अंतर की मूल वजह अलग है।
महंगाई का मुद्दा विपक्ष उठा क्यों रहा है, इसका मकसद क्या है- यह जनता हमेशा जानना चाहती है। जनता को राहत दिलाना प्राथमिकता है या फिर महंगाई को राजनीतिक रूप से भुनाना- इसे जनता जल्द समझ भी लेती है।
महंगाई का मुद्दा इस रूप में भी समझने की जरूरत है कि हाल के तमाम चुनावों में जनता ने महंगाई के बावजूद सत्ताधारी दल को आरोपों से बरी किया है। इसके कारणों को समझना होगा। जब तक इस वजह को नहीं समझा जाता है विपक्ष का आंदोलन विरोध की परंपरा से आगे नहीं बढ़ सकता।
सत्ता के समर्थक ही नहीं आम मतदाता भी अक्सर ऐसे कहते सुने गये हैं कि महंगाई किस सरकार में नहीं थी, महंगाई कब थमी है जो अब थमेगी, जब 70 साल में महंगाई नहीं थमी तो 7 साल में उम्मीद क्यों करते हैं, महंगाई देश के लिए जरूरी है, महंगाई जीडीपी के लिए जरूरी है, दुनिया में महंगाई बढ़ी है तो भारत में भी बढ़ी है, कोरोना के कारण महंगाई थोड़ी ज्यादा है...वगैरह-वगैरह। इन सवालों को नजरअंदाज करके महंगाई के विरुद्ध जनमत तैयार नहीं हो सकता। विपक्ष को जवाब देना होगा।
...सखी सैंयां तो
महंगाई पर बहुचर्चित गीत के बोल याद कीजिए- “सखी सैंयां तो खूब ही कमात है, महंगाई डायन खाए जात है”। यह गीत लोकप्रिय इसलिए हुआ था कि इसमें सच्चाई बयां हो रही थी। तब डॉ मनमोहन सिंह की सरकार थी। महंगाई भी थी। महंगाई दर दोहरे अंक के स्तर को पार कर चुकी थी। फिर भी उस महंगाई से लड़ने की क्षमता सैंयां यानी पति में थी। सारी कमाई महंगाई डायन खा रही थी- यही तब की चिंता थी।
आज की चिंता और गंभीर हो चुकी है लेकिन उस चिंता को ज़ुबान नहीं मिल पा रही है। आज रोज़गार में रहने वाली आबादी लगातार घट रही है। इसका सीधा सा मतलब है कि जो लोग रोजगार में हैं उन पर आश्रितों की संख्या और इस कारण दबाव लगातार बढ़ रहा है। महंगाई का असर कमाऊ व्यक्ति पर पड़ रहा है। आश्रितों का जीना मुहाल होता जा रहा है फिर भी अगर उनके दिमाग में यह बात बैठ रही है कि महंगाई बाज़ार या अर्थव्यवस्था का स्थायी स्वभाव है और इसका प्रकोप खत्म नहीं हो सकता तो यह उनकी गलती नहीं है।
यह मनोदशा आम हो चली है। इसी मनोदशा को तोड़ना राजनीति की प्राथमिकता होनी चाहिए। रोज़गार की आवाज़ और महंगाई से लड़ने का जज्बा पैदा करने की जरूरत है। महंगाई मुक्ति अभियान के बजाए महंगाई से लड़ने का जज्बा कैसे पैदा किया जाए- यह वक्त की आवश्यकता है।
“महंगाई मुक्त भारत” के बजाए नारा होना चाहिए था- “रोज़गार लाओ, महंगाई भगाओ” “तुम हमें काम दो हम तुम्हें दाम देंगे”, “महंगाई से लड़ेंगे,नौकरी भी करेंगे”, “महंगाई-बेरोजगारी पर हल्ला बोल”...।
जनता को यह बात समझाना पड़ेगा कि महंगाई से लड़ाई करनी होगी। इस लड़ाई के दो तरीके हैं- कीमत पर नियंत्रण और रोजगार का सृजन। सिर्फ कीमत पर नियंत्रण से बात नहीं बनती क्योंकि कुछ समय बाद फिर कीमतें अनियंत्रित हो जाती हैं। इसलिए रोजगार बढ़ाना ही रास्ता है। जब आमदनी बढ़ेगी तो महंगाई से लड़ने की ताकत आ जाएगी।
ऐसा लगता है कि महंगाई का विरोध करने की परंपरा का निर्वाह करने को कांग्रेस सड़क पर उतरी है। महंगाई से मुक्ति दिलाने का दावा क्या कांग्रेस कर सकती है? कतई नहीं। फिर जनता इस नारे के साथ क्यों गोलबंद हो? यही कारण है कि महंगाई मुक्ति अभियान में जनता की शिरकत नहीं है। सिर्फ कांग्रेस के कार्यकर्ता इस अभियान में परंपरागत रूप में नज़र आ रहे हैं।
दोष जनता पर दिया जाएगा कि वह महंगाई के विरोध में आंदोलन में शरीक नहीं होती। कहा जाएगा कि जनता के लिए महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। चुनाव नतीजों को बताकर इन कथनों की पुष्टि भी कर ली जाएगी।जबकि, सच्चाई यह है कि महंगाई के विरोध में हुए या होते रहे आंदोलन इसलिए अपने मकसद से दूर रहे क्योंकि खुद आयोजकों को अपने मकसद का पता नहीं था।
जनता की शिरकत के बगैर कोई आंदोलन सफल नहीं हो सकता। जनता तब शिरकत करती है जब उसे आंदोलन समझ में आता है।
एक बार जब जनता आंदोलन समझ जाती है तो आयोजकों को वह अपनी भागीदारी से चौंका देती है और आंदोलन ऐतिहासिक रूप से सफल हो जाता है। यही आंदोलनों का स्वभाव रहा है। यही आंदोलनों का स्वाद रहा है। इस स्वाद को कांग्रेस भूल गयी लगती है।