छत्रपति शाहूजी महाराज क्यों कहते थे जाति प्रथा खत्म हुये बग़ैर दलितों की मुक्ति संभव नहीं
मराठा छत्रपति शिवाजी आज हिंदुत्ववादियों के लिए प्रतीक पुरुष हैं। जबकि शिवाजी का राज तिलक करने के लिए कोई ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ था। तब काशी से गंग भट्ट नामक एक ब्राह्मण को बुलाया गया था। हिंदुत्व के विचारक और अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगकर जेल से रिहा हुए वी. डी. सावरकर ने शिवाजी की इस आधार पर आलोचना की थी कि उन्होंने पराजित शत्रुदल की बंधक बनाई गई स्त्रियों को ससम्मान उनके राज्य वापस क्यों भेज दिया। ऐसे मराठा क्षत्रप शिवाजी की छवि को आज कट्टर हिंदू धर्म रक्षक के तौर पर गढ़ा जा रहा है। मुगल बादशाह औरंगज़ेब से टकराने वाले शिवाजी का इस्तेमाल आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों के विरुद्ध एक धर्मरक्षक राजा के रूप में कर रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि शिवाजी ख़ुद हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवाद से प्रताड़ित थे। अपनी वीरता और पराक्रम से स्वतंत्र राज्य स्थापित करने वाले शिवाजी को मराठा ब्राह्मणों ने क्षत्रिय मानने से इंकार कर दिया था।
दरअसल, शिवाजी शूद्र कुन्वी जाति के थे। कुन्वी जाति को उत्तर भारत की हिन्दी पट्टी में कुर्मी कहा जाता है। छत्रपति शिवाजी की तीसरी पीढ़ी में 26 जून 1874 को छत्रपति शाहूजी महाराज का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम यशवंतराव था। तीन वर्ष की उम्र में ही उनकी माँ का देहान्त हो गया। 17 मार्च 1884 को कोल्हापुर की रानी आनंदीबाई ने उन्हें गोद ले लिया। इसके बाद 2 जुलाई 1894 में शाहूजी महाराज कोल्हापुर स्टेट के राजा बने।
बहुजन नायक शाहूजी महाराज ने सत्ता संभालने के बाद दलित और पिछड़ों के हित में अनेक क्रांतिकारी फ़ैसले किए। 1901 में उन्होंने कोल्हापुर राज्य की जनगणना करा कर अछूतों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को सार्वजनिक किया। वर्तमान संदर्भ में इस फ़ैसले की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है। तमाम बहुजन या दलित सामाजिक संगठन लगातार जातिगत जनगणना की माँग कर रहे हैं। ताकि देश में दलितों की वास्तविक स्थिति का खुलासा हो सके। एक साल बाद 1902 में शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में दलितों और पिछड़ों को 50 फ़ीसदी आरक्षण लागू किया। भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर है जब जाति के आधार पर आरक्षण दिया गया। शाहूजी महाराज आरक्षण के बड़े पैरोकार थे।
पहली बार ब्राह्मणवादी व्यवस्था में दलितों के पढ़ने-लिखने और सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। इसी आधार पर बाबा साहब ने भारतीय संविधान में दलित, आदिवासी और पिछड़ों के लिए आरक्षण का विशेष प्रावधान किया। कथित दलित तबक़े के लिए विशेष आरक्षण के अधिकार की जो व्यवस्था संविधान में की गई, वास्तव में उसके सूत्रधार शाहूजी महाराज ही हैं। इसीलिए शाहूजी महाराज को आरक्षण व्यवस्था का जनक माना जाता है।
पेशवाई दौर से ही मराठा राज्य में चितपावन ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। शाहूजी महाराज के कोल्हापुर राज्य में आरक्षण लागू होने से पहले राज्य के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पदों पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार 500 क्लर्कों में से 490 ब्राह्मण थे। शाहूजी महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू करने के बाद, 1912 में कुल 95 अधिकारियों में से केवल 35 पदों पर ही ब्राह्मण रह गए थे। यही कारण है कि मराठा ब्राह्मणों ने शाहूजी महाराज और उनकी नीतियों की बहुत आलोचना की।
ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले से शाहूजी महाराज बहुत प्रभावित थे। ज्योतिबा फुले की 'गुलामगिरी' उनकी सबसे प्रिय किताब थी। उन्होंने अपने राज्य में 'सत्यशोधक समाज' आंदोलन चलाया।
1911 में उन्होंने अपने संस्थान में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। फूले दंपति द्वारा दलितों और स्त्रियों की शिक्षा के लिए किए गए काम से प्रेरित होकर शाहूजी महाराज ने अपने राज्य में आधुनिक शिक्षा का बीजारोपण किया। उन्होंने अपने राज्य में 1912 में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाया। इसके बाद 25 जुलाई 1917 को शाहूजी महाराज ने प्राथमिक शिक्षा को निशुल्क भी कर दिया। उन्होंने 500 से 1000 तक की जनसंख्या वाले प्रत्येक गाँव में स्कूल खोले। स्त्री शिक्षा पर उन्होंने विशेष ज़ोर दिया। विदित है कि यूपीए सरकार ने 2009 में लगभग इसी पैटर्न को प्राइमरी और जूनियर शिक्षा पर लागू किया। लेकिन शाहूजी महाराज ने एक क़दम और आगे बढ़कर ग़रीब और पिछड़े-दलित बच्चों के लिए निशुल्क छात्रावास भी खोले। इन छात्रावासों का नामकरण उन्होंने शिवाजी के नाम पर किया- ‘शिवाजी मराठा बोर्डिंग हाउस'। 15 अप्रैल 1920 को नासिक में एक छात्रावास का शिलान्यास करते हुए शाहूजी महाराज ने कहा-
‘जातिवाद का अंत ज़रूरी है। जाति को समर्थन देना अपराध है। हमारे समाज में सबसे बड़ी बाधा जाति है।’
मंदिर और मठों की संपत्ति लोगों के लिए
कोरोना महामारी के वैश्विक संकट के समय भारत में आर्थिक संकट इतना विकट है कि खजाना लगभग खाली है। ऐसे समय में कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवी मंदिर और मठों की संपत्ति को सरकारी खजाने में जमा करने की बात कह रहे हैं। आख़िर, धर्म स्थलों की संपत्ति का लोगों के हित में उपयोग होना ही चाहिए। सभी धर्म मानवसेवा को सर्वोपरि मानते हैं। इसलिए धर्म स्थलों पर दान दी गई संपत्ति को अगर देश हित में इस्तेमाल किया जाए तो इससे जन कल्याण होगा। आश्चर्यजनक रूप से शाहूजी महाराज ने 9 जुलाई 1917 को एक आदेश जारी करके कोल्हापुर राज्य के सभी धार्मिक स्थलों की आय और संपत्ति पर राज्य का अधिकार स्थापित कर दिया। पिछले साल दक्षिण भारत में मंदिरों के पुजारियों में ग़ैर ब्राह्मणों को नियुक्त किया गया।
लेकिन शाहूजी महाराज ने एक सदी पहले कोल्हापुर राज्य में पिछड़ी जाति के मराठा पुजारियों की नियुक्ति का आदेश पारित किया था। इन पुजारियों के प्रशिक्षण के लिए उन्होंने 1920 में एक विद्यालय भी खुलवाया।
छुआछूत उन्मूलन
शाहूजी महाराज ने दलितों और स्त्रियों के अधिकारों के लिए ठोस क़दम उठाए। 1919 में उन्होंने अछूतों को इलाज के लिए अस्पताल में दाखिल होने का अधिकार दिया। इसके पहले अन्य सार्वजनिक स्थानों की तरह किसी अछूत का अस्पताल में भी प्रवेश वर्जित था। इसी साल उन्होंने एक आदेश द्वारा प्राइमरी स्कूल से लेकर कॉलेजों तक में दलितों के साथ होने वाले अन्याय और दुर्व्यवहार को समाप्त कर दिया। अब जाति के आधार पर स्कूल में बच्चों के साथ भेदभाव नहीं हो सकता था। इसी तरह उन्होंने सरकारी नौकरियों में दलितों के साथ होने वाले अन्याय और छुआछूत को समाप्त किया। इस निर्णय के पीछे एक घटना मानी जाती है।
जाति प्रथा उन्मूलन
दरअसल, उनके राजमहल में कर्मचारियों के लिए बने क्वार्टर में गंगाराम कांबले नामक एक दलित कर्मचारी रहता था। एक दिन मराठा सैनिक संताराम और ऊँची जाति के कुछ कर्मचारियों ने गंगाराम कांबले की यह कहते हुए पिटाई कर दी कि उसने तालाब के पानी को छूकर अपवित्र कर दिया है। शाहूजी महाराज को ख़बर होने पर उन्होंने ऊँची जाति के कर्मचारियों की घोड़े के चाबुक से पिटाई की और नौकरी से निकाल दिया। गंगाराम कांबले को पैसा देकर उन्होंने चाय की दुकान खुलवाई। स्वयं शाहूजी महाराज उसकी दुकान पर चाय पीने जाते थे। गंगाराम ने अपनी चाय की दुकान का नाम सत्यसुधारक रखा। इस घटना के बाद शाहूजी महाराज ने छुआछूत को मानने वाले किसी भी अधिकारी और कर्मचारी को सख़्त आदेश दिया कि वे या तो अपनी आदत बदल लें अथवा 6 माह के भीतर नौकरी से इस्तीफ़ा देकर चले जाएँ। 15 जनवरी 1919 को उन्होंने आदेश पारित करते हुए कहा-
‘उनके राज्य के किसी भी कार्यालय और गाँव पंचायतों में भी दलित-पिछड़ी जातियों के साथ समानता का बर्ताव हो, यह सुनिश्चित किया जाए। छुआछूत को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उच्च जातियों को दलित जाति के लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करना ही चाहिए। जब तक आदमी को आदमी नहीं समझा जाएगा, समाज का चौतरफ़ा विकास असंभव है।’
दलितों की आर्थिक पराधीनता को समाप्त करने के लिए शाहूजी महाराज ने 1917 में 'बलूतदारी प्रथा' को समाप्त किया। इस प्रथा के अनुसार थोड़ी-सी ज़मीन के बदले किसी दलित को परिवार सहित पूरे गाँव की मुफ्त सेवा करनी पड़ती थी।
इसी तरह शाहूजी महाराज ने 1918 में 'वतनदारी' नामक एक और प्रथा का अंत किया। उन्होंने राज्य में भूमि सुधार व्यवस्था लागू की। इसके तहत अब अछूतों को भी भूस्वामी बनने का अधिकार मिल गया। दलितों की तरह शाहूजी महाराज ने स्त्रियों को भी आर्थिक अधिकार प्रदान किया। कोल्हापुर राज्य में उन्होंने 11 नवंबर 1920 को मिताक्षरा न्याय सिद्धांत समाप्त कर दिया। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है। मिताक्षरा न्याय सिद्धांत द्वारा स्त्रियों पर बहुत प्रतिबंध लगाए गए थे। इसे समाप्त करके शाहूजी महाराज ने स्त्रियों को पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार प्रदान किया। दरअसल, यह बाबा साहब आंबेडकर द्वारा लाए गए हिंदू कोड बिल का पूर्व रूप है।
दलित और पिछड़ों के मुक्तिदाता शाहूजी महाराज को बहुत छोटी उम्र प्राप्त हुई। महज 48 साल की उम्र में 6 मई 1922 को उनका देहांत हो गया। लेकिन इसके पहले ही उन्होंने डॉ. अंबेडकर को पिछड़ों के मुक्तिदाता के रूप में देख लिया था। आंबेडकर की प्रतिभा को देखकर शाहूजी महाराज ने उन्हें अपनी अधूरी शिक्षा पूरी करने के लिए विदेश भेजा। बाबा साहब द्वारा संपादित पहले अख़बार 'मूकनायक' के प्रकाशन के लिए शाहूजी महाराज ने आर्थिक सहयोग दिया था। 1920 में दलितों की एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए शाहू जी महाराज ने कहा था, ‘मुझे लगता है आंबेडकर के रूप में तुम्हें तुम्हारा मुक्तिदाता मिल गया है। मुझे उम्मीद है वह तुम्हारी ग़ुलामी की बेड़ियाँ काट डालेंगे।’ ख़ुद बाबा साहब आंबेडकर शाहूजी महाराज के दलितों-पिछड़ों और स्त्रियों के लिए किए गए कामों से बहुत प्रभावित थे। आंबेडकर ने कहा था, “शाहूजी महाराज 'सामाजिक लोकतंत्र का आधार स्तंभ' हैं। हमें उनका जन्मदिन त्योहार की तरह मनाना चाहिए।”
आज शाहूजी महाराज की जयंती है। उन्हें नमन।