उत्तर प्रदेश सरकार का 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल करना विशुद्ध राजनीतिक खेल है। इन 17 जातियों में कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिन्द, भर, राजभर, धीमर, वाथम, तुरहा, गोड़िया, मांझी और मछुआ शामिल हैं। निश्चित रूप से यह राजनीतिक मामला है। इसकी शुरुआत अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने की थी, जिस पर कोर्ट ने अमल करने पर रोक लगा दी थी। उसके बाद मायावती ने भी अपनी सरकार में इन पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल किए जाने की सिफ़ारिश केंद्र सरकार से की थी।
ज़ाहिर है कि एसपी और बीएसपी ही नहीं, बीजेपी भी इसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। इसलिए राजनीतिक स्तर पर इस फ़ैसले का विरोध कोई भी पार्टी नहीं करेगी। यह अलग बात है कि फिलहाल इसका श्रेय बीजेपी को मिलेगा और लाभ भी।
क्या अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों की पहचान करने के संवैधानिक प्राविधान संविधान-निर्माताओं ने राजनीतिक लाभ लेने के लिए किए थे या उनका सामाजिक-आर्थिक विकास करने के लिए
जब ये 17 जातियाँ अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) में शामिल थीं, और वहाँ आरक्षण भी 27 प्रतिशत था, तो वहाँ उनको आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिला जाहिर है कि इस पर इन जातियों के राजनेता वही घिसा-पिटा राजनीतिक जवाब देंगे कि ओबीसी का सारा आरक्षण यादवों ने ले लिया। यही आरोप अनुसूचित जातियों में भी वाल्मीकि आदि जातियों के नेता जाटवों और चमारों पर लगाते हैं। जब वाल्मीकि आदि अति दलित जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है, तो इन नई 17 जातियों को कैसे मिल जायेगा जब इन्हें ओबीसी के अंतर्गत ही लाभ नहीं मिला, तो अनुसूचित जातियों में कैसे मिल जायेगा, जहाँ आरक्षण भी मात्र 18 प्रतिशत है तब इन जातियों के नेता भी वाल्मीकि व अन्य जातियों के नेताओं की तरह चमारों पर आरोप लगायेंगे। कुल मिलाकर स्थिति वही रहनी है, जो आज है।
यह 17 जातियों की उन्नति का मामला नहीं है, बल्कि यह उनकी अवनति का मामला है। विडम्बना यह है कि ये 17 जातियाँ अनुसूचित जातियों से छुआछूत करती हैं।
अगर इन जातियों के नेता ओबीसी से निकल कर सबसे निचले पायदान पर आने को अपनी जीत मान रहे हैं, तो मानना पड़ेगा कि उनके नेता आरएसएस की राजनीति के ज़बरदस्त शिकार हैं, और उन में समुदाय के उत्थान की कोई चेतना नहीं है।क़ानूनन जातियों को ओबीसी या अनुसूचित वर्ग में शामिल करने का अधिकार संसद को है। राज्य सरकारें सिर्फ़ केंद्र सरकार को अपनी सिफ़ारिश भेज सकती हैं। पर यहाँ उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने संविधान के विरुद्ध काम किया है। क्योंकि मामला आने वाले चुनावों में (उपचुनावों में भी) इन जातियों के वोट प्राप्त करने का है।
आरएसएस भी इन जातियों को अपना जबरदस्त राजनीतिक समर्थक मानता है। इसलिए योगी सरकार का यह निर्णय, जो केंद्र में भी लागू किया जा सकता है, राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के सिवा कुछ नहीं है।
दरअसल, संवैधानिक प्रक्रिया के तहत जातियों की पहचान करने के लिए आयोग बनाए गए थे, जिनके सदस्यों ने देश भर में घूम कर अनुसूचित और पिछड़ी जातियों की पहचान की थी। अनुसूचित जातियों की पहचान करने के लिए जो मानदंड तय किए गए थे, उनमें तीन मुख्य थे। पहला, जो गो माँस खाते हैं, दूसरा जो अछूत माने जाते हैं यानी जिनके छूने से लोग दूषित हो जाते हैं और तीसरा जिनका पौरोहित्य ब्राह्मण नहीं करते।
इस दृष्टि से अनुसूचित जातियों में वे जातियाँ शामिल नहीं की जा सकतीं, जो अछूत नहीं हैं, सछूत हैं। उपरोक्त सभी 17 जातियाँ सछूत जातियाँ हैं यानी इनमें से किसी के भी साथ छुआछूत का व्यवहार नहीं किया जाता है। ये जातियाँ गो माँस नहीं खाती हैं और इनका पौरोहित्य भी ब्राह्मण के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार इन 17 सछूत जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल करना पूरी तरह से असंवैधानिक है।
सरकारों ने आरक्षण को राजनीतिक हथियार बनाया हुआ है, जबकि यह कमजोर वर्गों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान का वैधानिक उपाय है।
पिछड़ों की हुई उपेक्षा
अनुसूचित जातियों के अधिकारों की लड़ाई डॉ. आंबेडकर ने लड़ी थी, जो उनके निर्विवाद मसीहा थे। इसलिए राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग का गठन उन्हीं के समय में हो गया था। परन्तु पिछड़ी जातियों का कोई राष्ट्रीय नेता न होने के कारण उनका आयोग बनाने से लेकर उसकी सिफ़ारिशें लागू करने तक में उपेक्षा की गई। संविधान की धारा 340 में पिछड़ी जातियों की पहचान करने और उनके उत्थान की सिफ़ारिशें करने के लिए आयोग गठित करने की व्यवस्था की गई थी। यह आयोग 1950 में ही बन जाना चाहिए था, पर राष्ट्रपति ने इसका गठन 1953 में किया, जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर थे। 1955 में इस आयोग की रिपोर्ट पेश हुई, पर तत्कालीन गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पन्त ने यह कहकर कि इस रिपोर्ट के मुताबिक़ तो पूरा देश ही पिछड़ा हुआ है, रिपोर्ट को खारिज कर दिया। फिर दो दशकों तक नया आयोग बनाने की कोई सुध सरकार ने नहीं ली। 24 साल बाद 1979 में मोरारजी देसाई ने दूसरा आयोग गठित किया, जिसके अध्यक्ष बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल थे। इस आयोग ने 1980 में इंदिरा गाँधी को अपनी रिपोर्ट सौंपी। पर उन्होंने भी उसे लागू नहीं किया, और दस साल तक वह अलमारी में धूल खाती रही।यह रिपोर्ट 1990 में अलमारी से बाहर निकली, जब राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। और उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए ही सही, मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया और 27 प्रतिशत आरक्षण के द्वारा पिछड़ी जातियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान का रास्ता खुला। इस प्रकार पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा संविधान लागू होने के 40 साल बाद मिली।
कांग्रेस ने पिछड़ों की सुध क्यों नहीं ली और वी. पी. सिंह ने क्यों ली यही वह सवाल है, जो आज की कड़ी को भी जोड़ता है। अस्सी के दशक में राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलने लगी थीं। उससे पहले तक कांग्रेस के सिंहासन के चारों पाए मजबूत थे। कांग्रेस के सामने कोई जातीय चुनौती नहीं थी। अनुसूचित जातियाँ, पिछड़ी जातियाँ, मुसलमान उसे आँख बंद करके वोट देते थे और सवर्णों की तो वह पार्टी ही थी।
बीजेपी लाई मंडल के ख़िलाफ़ कमंडल
किन्तु अस्सी के दशक में कांशीराम की राजनीति ने दलित-पिछड़ों को जगा दिया। इसने पिछड़ी जातियों के हित में मंडल की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए पूरे देश में आन्दोलन खड़ा कर दिया। इन्हीं राजनीतिक परिस्थितियों में 1990 में वी. पी. सिंह ने ऐतिहासिक फ़ैसला लिया और आयोग की सिफ़ारिशें लागू कर दीं। 52 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़े समुदाय को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला। तुरंत आरएसएस और बीजेपी ने मंडल के ख़िलाफ़ कमंडल का आन्दोलन खड़ा कर दिया।लालकृष्ण आडवाणी ने रामरथ यात्रा निकाली और बीजेपी-आरएसएस ने मंडल के ख़िलाफ़ राष्ट्रव्यापी आंदोलन किया। स्कूल-कॉलेजों में पिछड़ों के आरक्षण के विरोध में सवर्ण छात्रों ने आत्मदाह किये। दलित छात्रावासों पर हमले हुए। दलित वर्ग के छात्रों को बेरहमी से मारा गया और वी. पी. सिंह के पुतले फूंके गए।दलित और पिछड़ी जातियों का कांग्रेस से मोह भंग हुआ और मंडल का राजनीतिक लाभ बहुजन राजनीति को मिला। इस प्रसंग को यहाँ देने का मक़सद यह बताना है कि अगर बीजेपी और आरएसएस को सचमुच पिछड़ों के विकास की चिंता है, तो 1990 में उन्होंने उनके आरक्षण के ख़िलाफ़ हिंसक आन्दोलन क्यों चलाया था और वी. पी. सिंह को गद्दार क्यों कहा था
बीजेपी ने इन 17 अति पिछड़ी जातियों को उनके विकास के लिए अनुसूचित जातियों में शामिल नहीं किया है, बल्कि यह उनके प्रति एक झूठी हमदर्दी दिखाकर उनका वोट हासिल करने की रणनीति है।
क्या पूछा जा सकता है कि पिछड़ी जातियों में 27 प्रतिशत आरक्षण के अंतर्गत इन जातियों का विकास क्यों नहीं हुआ और अनुसूचित जातियों में 18 प्रतिशत के अंतर्गत उनका विकास किस आधार पर हो जायेगा ऐसी कौन सी जादू की छड़ी बीजेपी के पास है, जिससे वह पिछड़े से अनुसूचित जाति बनते ही उनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान कर देगी
आरक्षण का लाभ वे जातियाँ लेती हैं, जो उसके योग्य होती हैं, और योग्यता उन्हें धर्म से जोड़ने से नहीं, बल्कि शिक्षा से जोड़ने से आती है। जब उनमें शिक्षा का ही विकास नहीं होगा, तो वे चाहे जिस वर्ग में भी शामिल हों, उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा।
अनुसूचित जातियों में ऐसी कई जातियाँ हैं, जिनका उदाहरण दिया जा सकता है। वाल्मीकि समुदाय को देखिए, उनकी संख्या कम नहीं है, पर उनमें शिक्षा की दर सबसे न्यूनतम स्तर पर है। धोबी भी ऐसी ही जाति है। लिपिक की नौकरी के लिए भी अनुसूचित जातियों के हजारों आवेदन पत्रों में चमारों की संख्या ही सर्वाधिक होती है। मुझे अधीक्षक के रूप में, उत्तर प्रदेश के अनेक सरकारी छात्रावासों का अनुभव है। मेरे पूरे सेवाकाल में मेरे समक्ष एक भी वाल्मीकि का आवेदन पत्र भर्ती के लिए नहीं आया। सारे आवेदन पत्र जाटव, चमारों के होते थे, ललितपुर में एक-दो धोबी और जौनपुर में कुछ खटीकों ने भी प्रवेश लिया था।
अति पिछड़ों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने से अनुसूचित जातियों को कोई एतराज नहीं है। वे किसी भी दलित-पिछड़ी जाति के सामाजिक और आर्थिक विकास की दुश्मन नहीं हैं। पर क्या बीजेपी वास्तव में दलित वर्गों का विकास चाहती है
अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब बीजेपी ने विश्वविद्यालयों में विभाग को इकाई मानकर आरक्षण प्रणाली लागू की थी, जिसका उद्देश्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण को कम करना था। इसका व्यापक जनविरोध हुआ, तब जाकर उस प्रणाली को ख़त्म किया गया, लेकिन तब तक सभी पदों को सामान्य वर्ग के लोगों से भर दिया गया था। यह घटना बीजेपी के ‘सबका साथ सबका विकास’ की कलई खोलने के लिए काफ़ी है। असल में, बीजेपी और आरएसएस की स्थिति मुँह में राम और बगल में छुरी वाली है।