सावरकर को भारत रत्न की वकालत: राष्ट्र-विरोधी विरासत की पुष्टि

12:55 pm Oct 20, 2019 | शमसुल इसलाम - सत्य हिन्दी

आरएसएस के राजनैतिक जेबी संगठन बीजेपी ने महाराष्ट्र चुनाव में जारी अपने संकल्प पत्र में हिंदुत्व विचारधारा के जनक वीर सावरकर को भारत रत्न दिलाने का वादा किया है। उनके साथ दलित आंदोलन के मूल दिग्गज सिद्धाँतकारों में से दो, ज्योतिबा फुले और उनकी जीवन संगनी सावित्री बाई फुले के लिए भी भारत रत्न दिलाने का संकल्प लिया गया। ध्यान देने वाली बात यह है कि महाराष्ट्र के साथ ही हरियाणा में भी चुनाव हो रहे हैं लेकिन बीजेपी ने यहाँ के चुनावी घोषणा पत्र में ऐसा कोई संकल्प नहीं लिया है।

महाराष्ट्र के चुनाव में आरएसएस/बीजेपी का यह वादा दो तरह से चौंकाने वाला है। पहले यह कि सावरकर जिन्होंने अपने पीछे राष्ट्र-विरोधी और समाज-विरोधी विरासत छोड़ी वह कैसे देश के सर्वोच्च सम्मान के क़ाबिल माने जा सकते हैं। यह सच है कि सावरकर के राजनीतिक जीवन की शुरुआत एक समावेशी भारत के ‘मुक्ति योद्धा’ के तौर पर हुई लेकिन काला पानी जेल में क़ैद ने उन्हें अँग्रेज़ शासकों के प्रशंसक में बदल दिया और उन्होंने बाक़ी जीवन हिंदुत्व विचारधारा जो जातिवाद, हिन्दू अलगाववाद और अंग्रेज़परस्ती पर टिकी थी, के प्रसार में लगा दिया। उन्होंने साझे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को धर्म के आधार पर बाँटने में मुख्य भूमिका निभायी जो विदेशी शासक चाह रहे थे। इस काम में उन्होंने जिन्ना और मुसलिम लीग से भी हाथ मिलाए।

दूसरी चौंका देने वाली बात यह है कि आरएसएस/बीजेपी ने हिन्दुत्ववादी सावरकर के साथ ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले को भी जोड़ दिया। यह करके इन्होंने ‘हिन्दू राष्ट्र’ के पितामह सावरकर को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध समतावादी समाज के दो बड़े विचारकों के बराबर खड़ा कर दिया। यह फुले दंपति का ही घोर अपमान नहीं बल्कि समस्त दलित आंदोलन और उनके समतामूलक दर्शन का अपमान है।

सावरकर को भारत रत्न का मतलब सवतंत्रता आंदोलन के महान शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों को कलंकित करना होगा।

इस हिंदुत्ववादी 'वीर' ने अँग्रेज़ शासकों की सेवा में अपने क्रांतिकारी इतिहास के बारे में क्षमा माँगते हुए एक या दो नहीं, बल्कि छह माफ़ीनामे 1911, 1913, 1914, 1915, 1918 और 1920 में पेश किए। इनमें 1913 और 1920 के माफ़ीनामे के ही पाठ मौजूद हैं। इनके अध्ययन से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि सावरकर किस हद तक अँग्रेज़ों के साथ खड़े होने के लिए तैयार थे।

1913 का माफ़ीनामा इन शर्मनाक शब्दों के साथ ख़त्म हुआ-

‘...इसलिए, सरकार अगर अपने विविध उपकार और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अँग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूँगा… इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वे सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथ-प्रदर्शक मानते थे वापस आ जाएँगे।

सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंत:करण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा। मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा, बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभाव के दरवाज़े के सिवा और कहाँ लौट सकता है आशा करता हूँ कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।’

1920 का माफ़ीनामा भी कुछ कम शर्मसार करने वाला नहीं था। इस का अंत इन शब्दों के साथ हुआ-

‘...मुझे विश्वास है कि सरकार ग़ौर करेगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूँ। सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत व इसके प्रति प्रतिबद्ध हूँ, उत्तर की ओर से तुर्क-अफ़ग़ान कट्टरपंथियों का ख़तरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितियों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का ईमानदार सहयोगी, वफ़ादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिए सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूँगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बरबाद कर दिया, मेरी ज़िंदगी का यह बेहद ख़ेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहाई मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता, दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहरायी तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊँगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूँगा। अक्सर जहाँ ताक़त नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।’

शासकों को क्षमा याचना भेजना कोई जुर्म नहीं है लेकिन…

यह सच है कि काला पानी जेल के क़ैदी अगर अँग्रेज़ सरकार को अर्ज़ियाँ सौंपते थे, तो इसमें कोई ग़लत बात नहीं थी। यह सब तरह के क़ैदियों को प्राप्त महत्वपूर्ण क़ानूनी अधिकार था। काला पानी में क़ैद किए गए कई इंक़लाबी थे जिन्होंने अँग्रेज़ सरकार को अर्ज़ियाँ पेश कीं।  सावरकर के अलावा ऋषिकेश कांजी लाल, बरिंद्रघोष (अरविन्द घोष के भाई) और नन्द घोष ने भी लिखित याचनायें पेश की थीं।

केवल 'वीर' सावरकर और बरिंद्र घोष ने अपनी याचिकाओं में रिहाई की भीख माँगते हुए, अपने क्रांतिकारी इतिहास के बारे में माफ़ी माँगी और आगे से अँग्रेज़ों का साथ देने का वादा भी किया था।

आज़ादी की लड़ाई के प्रसिद्ध नेता बाल गंगाधर तिलक को बग़ावती लेखन के लिए छह वर्ष की सज़ा काटने के लिए 1908 में माण्डले जेल (बर्मा) भेज दिया गया था। उन्होंने भी 1912 में फ़रवरी 12 और अगस्त 5 की तारीख़ों में दो 'मर्सी पीटिशन' इंग्लैंड के राजा को भेजी थी।   इनमें उन्होंने न तो किसी तरह का रोना-धोना किया, न ही कोई माफ़ी माँगी बल्कि राजा को पूरा सम्मान देते हुए लिखा-

‘महामहिम से अपने मामले में दयावान विचार करने की विनती करते हुए यह बताना चाहता हूँ कि उसने सज़ा के 6 सालों में से 4 साल अर्थात 2/3 सज़ा काट ली है। अब वह 56 साल के हैं, मधुमेह के पुराने मरीज़ हैं और उनका परिवार हाल ही में एक बहुत क़रीबी रिश्तेदार की मौत के कारण गंभीर परेशानियों में है। इसलिए, याचिकाकर्ता  वफ़ादारी और विनम्रता से प्रार्थना करता है कि महामहिम कृपापूर्ण आवेदनकर्ता की सज़ा को माफ़ कर देंगे या उसमें कटौती करेंगे।’

सावरकर को क्या हुआ फ़ायदा

सावरकर को अँग्रेज़ शासकों के सामने सम्पूर्ण समर्पण के लाभ भी हासिल हुए। उनकी 50 साल की सज़ा में से गोरे शासकों ने 37 साल की सज़ा में छूट दे दी। वह 13 साल से भी कम क़ैद में रहे, जिनमें से 10 से भी कम साल उन्होंने काला पानी जेल में बिताए। इसके साथ ही रिहाई की इस शर्त के बावजूद कि वह राजनैतिक क्षेत्र से दूर रहेंगे उन्हें हिन्दू महासभा को संगठित करने की छूट दी गयी। शासकों का उद्देश्य बहुत साफ़ था। ऐसा करके सावरकर देश में मज़बूत होते आज़ादी के आंदोलन को ‘हिन्दू राष्ट्र’ को संगठित करने के नाम पर तोड़ने का स्वागत योग्य काम कर रहे थे! यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि काला पानी जेल के इतिहास में, जेल के बंदियों में से वह इकलौते ऐसे क़ैदी थे जिन पर अँग्रेज़ों ने इतने खुले दिल से अहसान किए!

देश के लोगों के सामने एक बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसे किसी शख़्स को भारत रत्न मिलना चाहिये जिसने वीरता के नाम पर अँग्रेज़ों की सरपरस्ती स्वीकारी और आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर किया।