जब रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद दलित क्रोध भड़का था तब क्रिया-प्रतिक्रिया में या सामान्य ढंग से भी दलितों पर अत्याचार के कई मामले सामने आए और सबने मिलकर एक हवा बनाई। यह हवा ऐसी थी कि शासन कर रही भाजपा और उसके पीछे खड़ा संघ परिवार चिंतित हुआ और उन सबने मिलकर इस ग़ुस्से को संभालने के अनेक प्रयत्न किए। इन सबकी चर्चा यहाँ करना उद्देश्य नहीं है पर इसमें रोहित को गैर दलित साबित करने का प्रयास भी शामिल था। अंतिम नतीजे की बात तक यह प्रयास जारी था। लेकिन इस लेखक समेत काफी सारे राजनैतिक पंडित यह मान बैठे कि यह प्रसंग चाहे जहां पहुंचे भाजपा को अब दलित वोट पाने में दिक्कत होगी और उसमें गिरावट तो होगी ही।
लेकिन 2019 आम चुनाव के मतदान के जातिवार विश्लेषणों से यह जाहिर हुआ कि भाजपा को मिलने वाले दलित वोटों में अच्छा खासा इजाफा हो गया है। भाजपा ने राजनैतिक रूप से इसके लिए कोई बड़ा प्रयास भी नहीं किया था। यह संभवत: पुलवामा या मोदी सरकार द्वारा गरीबों के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों का असर था। और यह प्रतिक्रिया पूरी तरह सामान्य थी-इसमें कोई दलित एंगल न था जबकि आक्रोश दिखाने वाला पूरा जमात आंबेडकरवादियों का था और यह चुनावी परिणाम भाजपा की जगह इस जमात की आम दलित से दूरी को दिखा रहा था। जाहिर तौर पर इसमें पढ़े-लिखे, आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी पाने और जीवन में कुछ सुधार करने वाले वर्ग के लोग ज्यादा थे और कथित ‘अर्बन नक्सल’ समूहों का समर्थन इस नाराजगी को ज्यादा बड़ा दिखा रहा था।
पर संसद के अंदर गृह मंत्री अमित शाह द्वारा बाबा साहब आंबेडकर के प्रति की गई टिप्पणी पर जो नया बवाल उभरा है उसको मैनेज करने की जैसी तैयारी भाजपा दिखा रही है वह पुराने दौर से काफी आगे की चीज है। इसका एक कारण तो यह है कि अभी तक उसकी गोद में बैठे बसपा समेत लगभग सारे गैर-भाजपाई दल अचानक बाबा साहब के अपमान को मुद्दा बना रहे हैं और उसका असर जमीन पर भी दिखता है। यह मामला आंबेडकरवादी दलित जमात और मोदी को एकदम नापसंद करने वाले बौद्धिक जमातों भर की नाराजगी या सक्रियता का नहीं रह गया है।
एक तो सारे दल अपनी-अपनी शक्ति भर जमीन पर भी इस नाराजगी को राजनैतिक हवा दे रहे हैं। दूसरे दिल्ली विधान सभा चुनाव के पास होने से तीनों प्रतिद्वंद्वी दल- भाजपा, आप और कांग्रेस इसे ज्यादा जोर-शोर से उठा रहे हैं। और बसपा ही नहीं एनडीए में शामिल गैर भाजपा दल भी इस सवाल पर उसको समर्थन नहीं दे रहे हैं, बल्कि चिराग पासवान और राम दास आठवले जैसे लोग तो अपनी नाराजगी दिखाने में किसी से पीछे नहीं हैं। अभी तक इंडिया और एनडीए से दूर रहने वाले दल भी इस सवाल पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने में देर नहीं कर रहे हैं।
अब भाजपा का चुनाव जीतना कभी भी दलित वोटों पर आश्रित नहीं रहा है। ब्राह्मण-बनिया के अपने पारंपरिक आधार से बढ़ते हुए उसने हिन्दुत्व का सवाल ऊपर किया या राष्ट्रवाद का झण्डा उठाया और इन सवालों पर उसने दलितों समेत बाकी हिन्दू समाज से अच्छा खासा समर्थन हासिल किया। पहली मोदी सरकार बनवाने में रामविलास पासवान, उदित राज और रामदास आठवले की भूमिका महत्वपूर्ण थी। पर कायदे से उसे कांग्रेस के ब्राह्मण, दलित और मुसलमान जैसा गठजोड़ कराने की आवश्यकता नहीं रही।
लेकिन बाबा साहब के सवाल पर अगर पूरा दलित समाज और आरक्षण ख़त्म करने जैसे काल्पनिक या वास्तविक दर से ओबीसी समाज का कुछ भी हिस्सा उससे खिसकता है तो भाजपा को मुश्किल होगी।
इसलिए वह हर अवसर पर बाबा साहब का नाम ज्यादा जोर शोर से लेने लगी थी और साथ ही कांग्रेस के दलित प्रेम को नकली बताने की मुहिम भी चलाने में आगे थी। पर इसमें वह यह बात शायद भूल गई कि बाबा साहब की याद सिर्फ रस्म अदायगी या दिखावा नहीं है। असल में दलितों और कमजोरों की जो स्थिति अभी भी बनी हुई है उसमे आंबेडकर का दर्शन और तरीका ही मुक्ति का सबसे बढ़िया रास्ता लगता है- दलित सवाल पर काफी ज्यादा काम करने वाले गांधी भी इस रेस में पिछड़ते गए हैं।
इसलिए जब भाजपा नेतृत्व ने अतिशय हड़बड़ी में संविधान लागू होने की जगह लिखे जाने वाले दिन को ही मुख्य आयोजन का अवसर बनाया और पचहत्तरवां साल भी वक्त से पहले मनाने का फैसला किया तो उसने बाबा साहब के नाम पर अपनी दावेदारी भी सबसे बड़ी करने की रणनीति रखी। इसके लिए कांग्रेस के आंबेडकर प्रेम को छोटा या नकली बताना भी ज़रूरी था। और जब एक साथ संसद के साथ पचासों चैनलों पर प्रस्तुत होकर गृहमंत्री अमित शाह ने वह हल्की बात कर दी जो दलित समूह ही नहीं विपक्ष को भी अपमानजनक लग गया तब बात बिगड़ गई। और फिर जब बिगड़ी को बनाने की कोशिश की गई तो मामला और खराब हुआ। विपक्षी सांसदों का रास्ता रोकना हो, धक्का-मुक्की के बाद सिर फूटने का प्रसंग (जिसे फिल्मी अंदाजा में बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया) या फिर संसद की पंचायत को थाने में ले जाने और एफआईआर लिखाने का शर्मनाक फैसला, यह सब बिना रणनीति के नहीं हुआ। विपक्ष के नेता का आचरण थानेदार और दारोगा से तय कराने का रिकॉर्ड हो या राहुल की सदस्यता एक बार फिर लेने का मन, सबसे भाजपाई रणनीति हल्की और कमजोर ही दिखती है। राहुल या विपक्ष ने क्या किया यह छोटा सवाल बन गया।
और संसद का सत्र बीतने के साथ ही राहुल जिस तरह परभणी के दलित उत्पीड़न के सवाल को उठाने गए या कांग्रेस की हर इकाई अचानक सक्रिय दिखी वह तैयारी का कम राजनैतिक लाभ लेने की कुशलता का नमूना लगता है। अचानक इंडिया गठबंधन के अंदर दिख रही दरारें भी ढक सी गई हैं।
दिल्ली चुनाव की लड़ाई में भी बाबा साहब का मान-अपमान मुद्दा है तो आज हर दल को अपनी स्थिति स्पष्ट करने का दबाव है। पिछले काफी समय से भाजपा का सहायक सी बन गई बसपा भी खुलकर विरोध पर आ गई तो एनडीए के हर घटक दल को गृह मंत्री के बयान से दूरी स्पष्ट करनी पड़ रही है, भले ही वे सीधे सीधे कार्रवाई की मांग नहीं कर रहे हैं जैसा कि कांग्रेस या इंडिया गठबंधन के लोग कर रहे हैं। उधर संघ प्रमुख भी अपने असंख्य बाजुओं वाले संगठन को संभाल या अजमेर जैसे मुद्दे उठाकर ‘भटकने’ न देने पर तत्पर लगते हैं। इन सबसे दबाव तो बन ही रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह प्रसंग रोहित वेमुला मामले की तरह मैनेज हो जाएगा, खुद ब खुद शांत पड़ेगा या कोई बड़ा फैसला करवाकर केंद्र की राजनीति को नई दिशा देगा।