दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) की भारी जीत हुई है। माना जा रहा है कि इस जीत का मुख्य कारण पिछली सरकार का अच्छा कामकाज रहा है जिसकी वजह से बीजेपी की सांप्रदायिकता की राजनीति - यानी हिंदुओं और मुसलमानों को बाँटने की रणनीति की हार हुई।
चुनाव परिणामों और उसके पहले के ट्रेंड से यह भी स्पष्ट है कि मुसलमानों ने 'आप' को एकमुश्त वोट दिया है। दिल्ली में मुसलमानों का जो वोट पहले कांग्रेस को जाता था, वह इस बार 'आप' को गया है। वजह यह नहीं है कि दिल्ली के मुसलमान कांग्रेस से नाराज़ हैं। वजह यह है कि वे जानते थे कि दिल्ली में कांग्रेस के मुक़ाबले 'आप' के जीतने की कहीं ज़्यादा संभावना है और ऐसी हालत में कांग्रेस को वोट देने से 'आप' को मिलने वाले वोट कम होते और अंततः बीजेपी को ही लाभ पहुँचता। वे बीजेपी को किसी भी सूरत में विजयी देखना नहीं चाहते थे।
यहाँ एक सवाल पूछा जा सकता है। हम जानते हैं कि बीजेपी हिंदुत्व के नाम पर वोट माँगती है और बड़ी संख्या में हिंदू उसे केवल इसीलिए वोट देते हैं कि वह हिंदुओं के हितों की बात करती है और इसीलिए उसे सांप्रदायिक पार्टी कहा जाता है। ऐसे में जब मुसलमान अपने हितों की रक्षा करने वाली किसी पार्टी को एकमुश्त वोट देते हैं तो उस पार्टी को सांप्रदायिक क्यों नहीं माना जाए
सवाल को थोड़ा और विस्तार दें तो वह यह है कि अगर हिंदुओं के हितों की बात करने के कारण बीजेपी सांप्रदायिक पार्टी हो जाती है तो मुसलमानों के हितों की बात करने पर आम आदमी पार्टी, कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस को सांप्रदायिक पार्टी क्यों नहीं कहा जाए। इस सवाल में दम है और ख़ुद बीजेपी इसी तर्क के आधार पर ग़ैर-बीजेपी पार्टियों को छद्म धर्मनिरपेक्षवादी (सूडो-सेक्युलर) ठहराती आई है।
इस सवाल का जवाब हमें भारत में भी मिल सकता है और भारत के बाहर भी। पहले भारत के कुछ राज्यों की बात करते हैं जैसे महाराष्ट्र, बंगाल, तमिलनाडु आदि। महाराष्ट्र में मराठियों का बहुमत हैं, बंगाल में बंगालियों का और तमिलनाडु में तमिलों का। इन तीनों राज्यों में क्रमशः मराठी, बंगाली और तमिल बहुसंख्यक हैं। बाक़ी सब अल्पमत में हैं। इनमें हिंदीभाषी भी हैं जिनके बारे में भी हम बात करेंगे।
एक बात बताइए, इन तीनों राज्यों में भाषाई अल्पसंख्यक, ख़ासकर हिंदीभाषी किन दलों को वोट देते होंगे महाराष्ट्र का तो साफ़ है। वे या तो बीजेपी को वोट देते होंगे या कांग्रेस को। कारण भी स्पष्ट है। वहाँ शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम की दो पार्टियाँ हैं जो हिंदुत्व की राजनीति के साथ-साथ मराठी पहचान और मराठी हितों की भी राजनीति करती हैं। उनकी राजनीति के केंद्र में मराठी माणूस और मराठी भाषा-संस्कृति हैं। हिंदीभाषी उनके लिए अवांछित हैं क्योंकि (उनके अनुसार) हिंदीभाषी महाराष्ट्र में आकर मराठियों का रोज़गार छीन रहे हैं। अगर उनका बस चलता तो वे सारे ग़ैर-मराठीभाषियों को महाराष्ट्र से निकाल बाहर करते।
अगर कोई पार्टी या पार्टियाँ आप के साथ ऐसा भाव रखें तो आप किनके साथ जाएँगे उन पार्टियों के साथ जो ऐसी राजनीति करती हैं या उनके साथ जो ऐसा नहीं करतीं। निश्चित रूप से महाराष्ट्र में हिंदीभाषी शिवसेना या मनसे के बजाय कांग्रेस, बीजेपी या एनसीपी का ही साथ देते होंगे।
ग़ैर-बंगालियों के साथ भेदभाव
अब आते हैं बंगाल में। बंगाल में भी ग़ैर-बंगालियों के प्रति ऐसा ही वैमनस्य भाव है। हालाँकि किसी भी पार्टी ने कभी भी इसे अपनी राजनीति का मूल आधार नहीं बनाया। परंतु यह एक निर्विवाद सत्य है कि समृद्ध ग़ैर-बंगाली तबक़ा ग़रीब या मध्यवर्गीय बंगाली आबादी की आँखों में हमेशा से खटकता रहा है। ख़ुद हिंदीभाषी भी वहाँ ख़ुद को क्षेत्रीय दलों के साथ कभी नहीं जोड़ पाए। उनका समर्थन हमेशा राष्ट्रीय दलों के साथ रहा। पहले कांग्रेस उन्हें प्रिय थी, आज बीजेपी है।
लेफ़्ट फ़्रंट को हराने के लिए भले ही हिंदीभाषियों ने बीच में तृणमूल का साथ दिया हो लेकिन आज जब तृणमूल वहाँ सत्तारूढ़ है और बीजेपी एक सशक्त विपक्ष के तौर पर उभरी है तो हिंदीभाषियों का विशाल बहुमत बीजेपी के साथ जुड़ गया है।
अगला राज्य है तमिलनाडु। इस राज्य की राजनीति में उत्तर भारत का विरोध एक स्थायी भाव है और यह सभी क्षेत्रीय दलों में समान रूप से व्याप्त है, इसीलिए ग़ैर-तमिलों, ख़ासकर उत्तर भारतीयों के पास महाराष्ट्र या बंगाल की तरह यहाँ कोई विकल्प नहीं है जिसका वे हाथ थामें। मुझे तमिलनाडु के बारे में ज़्यादा ज्ञान नहीं है कि दोनों प्रमुख दलों - द्रमुक और अन्नाद्रमुक, में से वे किसे पसंद करते हैं। लेकिन मेरी समझ यह है कि यदि उनके पास विकल्प होता तो वे कांग्रेस या बीजेपी में से ही किसी को चुनते।
अब आते हैं मूल सवाल पर। यदि महाराष्ट्र, बंगाल या तमिलनाडु में हिंदीभाषी वहाँ के क्षेत्रीय दलों का समर्थन न करके बीजेपी या कांग्रेस का साथ देते हैं तो क्या उनके इस रुख की निंदा की जा सकती है
मेरा जवाब है ‘ना’ और अगर आप भी मेरी तरह हिंदीभाषी हैं तो मेरी समझ में आपका जवाब भी ‘ना’ में ही होगा। हिंदीभाषी इन तीन राज्यों में राष्ट्रीय दलों का समर्थन इसलिए करते हैं कि उन्हें लगता है कि क्षेत्रीय दल उनके मुक़ाबले स्थानीय लोगों को, स्थानीय भाषा को और स्थानीय संस्कृति को वरीयता दे रहे हैं। बात केवल वरीयता देने या स्थानीय लोगों को फ़ायदा पहुँचाने तक सीमित रहती, तब भी ठीक था लेकिन कई बार बात बाहर से आए लोगों को नुक़सान पहुँचाने तक आ जाती है। जैसे मुंबई में हिंदीभाषियों की टैक्सियों में तोड़फोड़ कर दी जाए या तमिलनाडु में उनकी दुकानों पर ताला लगा दिया जाए।
बीजेपी को हराने वाले का साथ
जो स्थिति इन तीन राज्यों में हिंदीभाषियों की है, वही हाल देशभर में मुसलमानों का है। बीजेपी ने शुरू से ऐसी राजनीति की है जो हिंदुओं और हिंदुत्व के चारों तरफ़ घूमती है। यही नहीं, उसकी राजनीति मुसलमानों के प्रति द्वेष और टकराव पर भी आधारित है। ऐसे में मुसलमान वही कर रहा है जो ऊपर बताए गए तीन राज्यों में हिंदीभाषी कर रहे हैं। वह जगह और वक़्त के अनुसार उस दल का हाथ थामता है जो बीजेपी को हराने का सामर्थ्य रखता हो। जैसे - बंगाल में तृणमूल, तेलंगाना में टीआरएस, उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी, बिहार में आरजेडी, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात आदि में कांग्रेस।
ऐसा नहीं है कि यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित है। दुनिया के जिस किसी भी देश में धार्मिक, भाषाई या नस्लीय श्रेष्ठता की राजनीति करने वाले दल होंगे, वहाँ दूसरे धर्म, भाषा या नस्ल वाले लोग दबाव में रहने के कारण ऐसे किसी भी दल का हाथ थाम लेंगे जो बहुसंख्यकवाद की राजनीति न करता हो, जो सभी धर्मों, भाषाओं और नस्लों को बराबर सम्मान देने के पक्ष में हो। अगर अमेरिका है तो वह डेमोक्रैट्स का साथ देगा, अगर ब्रिटेन है तो लेबर के साथ जाएगा।
पड़ोसी देशों में भी यही हाल
अपने पड़ोसी देशों को ही देख लें। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदू भुट्टो की पार्टी का साथ देते हैं क्योंकि इमरान ख़ान की पार्टी में ऐसे लोग हैं जो कहते हैं - हिंदू बात से नहीं, लात से मानते हैं। बांग्लादेश में उनका समर्थन हसीना वाजेद की पार्टी को जाता है क्योंकि वह विपक्षी दल के मुक़ाबले हिंदुओं के प्रति उदार है। श्रीलंका में तमिलभाषी अल्पसंख्यकों ने भी पिछले चुनावों में राजपक्षे के मुक़ाबले प्रेमदासा को समर्थन दिया क्योंकि राजपक्षे की राजनीति कट्टर सिंहल-समर्थक और तमिल विरोधी रही है।
डर के कारण गोलबंद होने की मजबूरी
ऊपर के उदाहरणों से हमने क्या जाना यही कि जिस भी देश में बहुसंख्यकवाद की राजनीति होती है, वहाँ अल्पसंख्यक भयभीत और आशंकित होकर उस दल का हाथ थाम लेता है जो धार्मिक संकीर्णता की राजनीति नहीं करता हो या दूसरे के मुक़ाबले कम संकीर्ण हो। अल्पसंख्यकों की यह गोलबंदी भयजनित है, प्रतिक्रियास्वरूप है। इसीलिए इस गोलबंदी को हम उस अर्थ में सांप्रदायिक नहीं कह सकते जिस अर्थ में बहुसंख्यक गोलबंदी की राजनीति करने वाले को कहते हैं।
बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक गोलबंदी में यही सबसे बड़ा अंतर है। बहुसंख्यक गोलबंदी का मूल तत्व है - आत्ममोह, श्रेष्ठताबोध और इससे जनित परनिंदा, परद्वेष और परपीड़ा जबकि अल्पसंख्यक गोलबंदी का एक ही मूल तत्व है - सुरक्षा की चाह।
जब तक बहुसंख्यकवादी राजनीति - चाहे वह भाषा की हो, क्षेत्र की हो या धर्म की - अल्पसंख्यकों को निशाना बनाती रहेगी, उन्हें भयभीत करती रहेगी, तब तक अल्पसंख्यक अपने बचाव के लिए किसी शक्तिशाली विरोधी दल का हाथ थामते रहेंगे। दुनिया में यही होता आया है और दिल्ली में भी यही हुआ है। जिस दिन और जिस समाज में बहुसंख्यकवाद की राजनीति ख़त्म हो जाएगी, उस दिन और उस समाज में अल्पसंख्यकों की ऐसी गोलबंदी भी अपने-आप समाप्त हो जाएगी।