देश भर से मज़दूरों और ग़रीब तबक़े में असंतोष होने की ख़बरें आ रही हैं। लॉकडाउन ने उनकी कमर तोड़ दी है, उनके सामने भूखे मरने की नौबत आ चुकी है। मगर केंद्र सरकार कुछ नहीं कर रही। उसके गोदाम अनाज से भरे हुए हैं, चूहे उसे खा रहे हैं, वह सड़ रहा है। मगर उन लोगों को नहीं मिल रहा जो भूखे हैं, भूख से मर रहे हैं।
एक ग़ैर सरकारी संगठन स्वैन के सर्वे के मुताबिक़ करीब 96 फ़ीसदी लोगों तक किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं पहुँची है। यह सर्वे 13 अप्रैल को करवाया गया था यानी लॉक डाउन घोषित होने के बीसवें दिन। सोचा जा सकता है कि सरकार ने कितनी सुस्त रफ़्तार से ग़रीबों की मदद के लिए क़दम उठाए। इसमें उसकी संवेदनहीनता और अगंभीरता दोनों झलकती है।
ऐसा तब है जबकि अनाज की कोई कमी नहीं है। सरकार चाहती तो अपनी इस घोषणा पर तत्काल अमल कर सकती थी कि वह हर ग़रीब परिवार को पाँच किलो चावल या गेहूँ और एक किलो दाल हर महीने देगी। लेकिन ज़ाहिर है कि सरकार में इच्छाशक्ति का अभाव है या उसे ग़रीबों की कोई परवाह ही नहीं है। उसकी रुचि थाली-ताली बजवाने में ज़्यादा थी, अपनी झूठी कामयाबी के ढोल पीटने में ज़्यादा थी और वह उसी में लगी रही।
बढ़ रहा है असंतोष
यह सही है कि हमारा डिलीवरी सिस्टम अरसे से चौपट पड़ा है, मगर लॉकडाउन से पहले सरकार को इसे दुरुस्त करने की योजना भी बनानी चाहिए थी, जो उसने नहीं बनाई। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि उसने इस दिशा में सोचा ही नहीं। नतीजा हम देख ही रहे हैं। हर तरफ असंतोष बढ़ रहा है और यह कभी भी हिंसक रुख़ अख़्तियार कर सकता है।
90 लाख टन अनाज का स्टॉक
अगर आपको पता चले कि सरकारी गोदामों में कितना अनाज भरा पड़ा है तो शायद आप अपना सिर पीट लेंगे। सरकारी आँकड़े कहते हैं कि गोदामों में 90 लाख टन अनाज का स्टॉक है, जो कि बफर स्टॉक का तीन गुना है। इसमें 39 लाख टन गेहूँ है, करीब 28 लाख टन चावल है और 23 लाख टन धान है। बफर स्टॉक यानी सूखा, बाढ़, अकाल जैसी मुसीबतों के समय काम आने वाला भंडार।
लेकिन अनाज भंडार यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि अभी रबी की बंपर फसल आने वाली है, जिसे रखने के लिए न किसानों के पास जगह होगी और न सरकार के पास। किसानों की मदद के लिए सरकार को समर्थन मूल्य में अनाज तो ख़रीदना ही पड़ेगा, तब वह क्या करेगी। क्या वह इस अनाज को खुले में सड़ने के लिए छोड़ देगी।
लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। सबसे बेहतर तो यह होगा कि भारत के उन तीन महान अर्थशास्त्रियों की सलाह पर अमल किया जाए जिनमें से दो नोबल पुरस्कार विजेता हैं।
अमर्त्य सेन, रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी ने सुझाव दिया है कि अनाज को यह चिंता किए बिना तेज़ी से बाँटा जाना चाहिए कि यह कुछ ग़लत लोगों के पास भी जा सकता है। अभी तो एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि ज़रूरतमंदों को कैसे अनाज मिले।
अस्थायी कार्ड से दें राशन
इन अर्थशास्त्रियों ने यह सुझाव भी दिया है कि चूँकि बहुत सारे लोगों के पास राशन कार्ड नहीं हैं या ये बनने की प्रक्रिया में हैं, इसलिए अस्थायी कार्ड बनाकर वितरण शुरू कर देना चाहिए। मुफ़्त अनाज की मात्रा दोगुनी कर देनी चाहिए और यह योजना कम से कम छह महीनों तक जारी रहनी चाहिए। इससे लोगों में थोड़ी निश्चिंतता आएगी, क्योंकि पहले से ही बेरोज़गारी का डर भी उनके अंदर समाया हुआ है। इसमें कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के इस सुझाव को भी जोड़ा जा सकता है कि अनाज हर हफ़्ते दिया जाए और साथ में एक किलो चीनी भी दी जाए। चीनी का स्टॉक भी देश में भरपूर है।
हाल ही में विश्व श्रम संगठन ने कहा है कि कोरोना का संकट भारत के चालीस करोड़ लोगों को ग़रीबी में धकेल सकता है। लेकिन अगर सरकार समझदारी से काम ले और खुलकर मदद करे तो बहुत सारे लोगों को ग़रीबी के मकड़जाल में फँसने से बचाया जा सकता है।
मिड डे मील को भी छात्रों के घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। वास्तव में कुछ राज्य सरकारें तो ऐसा कर भी रही हैं।
मोदी सरकार की डायरेक्ट कैश ट्रांसफ़र योजना की रफ़्तार भी सुस्त है और वह सारे ज़रूरतमंदों को मिल भी नहीं रही। इस मामले में भी सरकार को तीनों विद्वान अर्थशास्त्रियों के सुझाव को मानते हुए उसका दायरा बढ़ाना चाहिए।
सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार के इस असंवेदनशील रवैये या नाकामी की वज़ह से लोगों में असंतोष बढ़ता जा रहा है और वह किसी भी रूप में फूटकर बाहर आ सकता है। इससे क़ानून-व्यवस्था की समस्या तो खड़ी होगी ही, कोरोना से लड़ने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं वे भी नाकाम हो जाएंगे। इसलिए बहुत ज़रूरी है कि सरकार अपने अनाज भंडार ग़रीबों के लिए खोले और मदद देने के मामले में कोई कंजूसी या लापरवाही न करे।