भारत की संसद का गठन भारत के नागरिकों के बिना संभव नहीं है। संसद का यह प्राथमिक दायित्व है कि वो नागरिक मुद्दों को प्राथमिकता दे। भले ही इस बात की परंपरा रही हो कि नई संसद राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा करेगी, लेकिन यदि कोई मुद्दा भारत के भविष्य से जुड़ा हो, लाखों छात्रों और उनके करोड़ों परिजनों की आकांक्षाओं और चिंताओं से जुड़ा हो तो परंपरा को कुछ समय के लिए टाला भी जा सकता है। संसदीय लोकतंत्र में परंपरा निभाई जाए यह तो एक आवश्यक विषय है ही लेकिन परंपरा और राजनैतिक हितों के ऊपर नागरिक हित रखे जाएँ यह इससे भी आवश्यक विषय है।
27 जून को, संसद की कार्यवाही के पांचवें दिन जब लोकसभा बैठी तब लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी ने नीट-स्नातक(NEET-UG) परीक्षा में धांधली के मुद्दे पर स्थगन प्रस्ताव की मांग की। उनकी इस मांग को नवनिर्वाचित लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने यह कहकर खारिज कर दिया कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा को रोककर स्थगन प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता और न ही नीट के मुद्दे पर चर्चा हो सकती है। पर सवाल यह है कि क्या राहुल गाँधी द्वारा पेश किया गया स्थगन प्रस्ताव नियम सम्मत था? और क्या राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा को रोका नहीं जा सकता?
स्थगन प्रस्ताव सिर्फ लोकसभा में लाया जा सकता है, राज्यसभा में नहीं। स्थगन प्रस्ताव लाने के लिए पहली जरूरी बात यह है कि प्रस्ताव का विषय केंद्र सरकार के कामकाज और कार्यक्षेत्र से संबंधित हो और यह बात प्रस्ताव में बताई गई हो कि आखिर केंद्र सरकार संविधान और कानून के अनुपालन में कैसे और किस हद तक असफल रही है। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जिस मुद्दे पर स्थगन प्रस्ताव लाया जा रहा है उससे संबंधित तथ्य सामने हों। इस प्रस्ताव में कम से कम 50 सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होती है। अगली आवश्यकता यह है कि मुद्दा लोकमहत्व का हो और उसका महत्व इतना अधिक हो कि संसद की कार्यवाही को इसके लिए रोका जा सके, साथ ही इसका संबंध हाल में ही घटी किसी घटना से होना चाहिए। स्थगन प्रस्ताव के लिए नियमों और सिद्धांतों के साथ साथ एक परंपरा भी जुड़ी हुई है। परंपरा यह है कि जिस दिन राष्ट्रपति का अभिभाषण हो उस दिन स्थगन प्रस्ताव नहीं लाना चाहिए। यह भी परंपरा है कोई नियम नहीं।
राहुल गाँधी नीट-स्नातक के मुद्दे को लेकर स्थगन प्रस्ताव लाए थे। यदि इस मुद्दे को स्थगन के नियमों और परंपराओं पर परखा जाए तो यहपूरी तरह खरा उतरता है। नीट का विषय पूरी तरह केंद्र सरकार का विषय है। नीट का संचालन केंद्र सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली नेशनल टेस्टिंगएजेंसी (NTA) द्वारा किया जाता है। सरकार अपने दायित्वों का निर्वहन करने में असफल हो गई है, वह नीट की परीक्षा में हुई धांधली को पहले तो स्वीकार ही नहीं कर रही थी बाद में किया भी तो परीक्षा स्थगित नहीं की गई। यह मुद्दा निश्चित रूप से जनहित से जुड़ा मुद्दा है और हाल ही में घटी हुई घटना पर आधारित है। राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद होने वाली चर्चा और स्थगन प्रस्ताव के बीच कोई संबंध नहीं है। बात सिर्फ परंपरा की है। लेकिन जब मुद्दा अत्यंत व्यापक हो और राष्ट्रीय महत्व का हो तब अभिभाषण पर होने वाली चर्चा को स्थगित क्यों नहीं कर दिया जाना चाहिए?
नीट-2024 की परीक्षा में 24 लाख से अधिक परीक्षार्थी बैठे थे। नीट में हुई धांधली से न सिर्फ इन लाखों छात्रों का भविष्य कुचला जा रहा है बल्कि इनसे जुड़ी करोड़ों आशाओं को भी सरकार अपने रवैये से कुचल रही है। नीट को लेकर सीबीआई की जांच शुरू हो गई है, गिरफ्तारियाँ हो रही हैं और बड़ी मशक्कत के बाद, विपक्ष के तमाम विरोध के बाद NTA के मुखिया को बदला गया। यदि छात्र, अभिभावक और समूचा देश केंद्र सरकार से सवाल न करता तो यह मुद्दा कब का दब गया होता। इसलिए सरकार के नजरिए से कुछ भी देखना न्यायसंगत नहीं होगा।
नीट-स्नातक 2024 की परीक्षा सिर्फ इसमें बैठने वाले परीक्षार्थियों से ही जुड़ी हुई नहीं है। इसका संबंध भारत की 140 करोड़ आबादी के स्वास्थ्य से भी है। स्वास्थ्य सेवाओं में आने वाले लोग यदि भ्रष्टाचार के माध्यम से आएंगे तो पूरे देश का भविष्य संकट में आ जाएगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी हाल ही में अपनी एक टिप्पणी में यह बात कही है। न्यायालय का कहना है कि व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद हो कि एक भी अवांछित व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं का हिस्सा न बनने पाए क्योंकि ऐसा एक व्यक्ति भी हजारों की जिंदगी दांव पर लगा सकता है।
सरकार का पक्ष है कि यदि विपक्ष नीट पर चर्चा करना चाहता है तो उसे राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हो रही चर्चा में भाग लेना चाहिए और उसी में नीट का मुद्दा भी उठा देना चाहिए और सरकार उसका जवाब दे देगी। लेकिन सरकार के मंत्री से यह कहना है कि दोनो में छोटा किन्तु मौलिक अंतर है। राष्ट्रपति का अभिभाषण संविधान के अनुच्छेद-87 के अंतर्गत आता है। अभिभाषण के बाद सरकार द्वारा ‘धन्यवाद प्रस्ताव’ लाया जाता है जिसमें अभिभाषण पर चर्चा होती है। भले ही इसमें सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए जाने का मौका हो लेकिन जैसा कि इसका नाम है धन्यवाद प्रस्ताव, तो इसमें सरकार की निंदा का कोई औपचारिक दृष्टिकोण नहीं होता। जबकि स्थगन प्रस्ताव लाए जाने का उद्देश्य ही सरकार की प्रत्यक्ष निंदा करना होता है। कार्यपालिका पर नियंत्रण के लिए इसे संसदीय प्रक्रिया में एक असाधारण उपाय माना जाता है।
सरकार को आलोचना के लिए तैयार रहना चाहिए और इसके लिए संवैधानिक पद पर बैठे लोकसभा अध्यक्ष को निष्पक्ष तरीके से काम करना चाहिए न कि सरकार की शील्ड बनकर। NTA नरेंद्र मोदी सरकार का उत्पाद है और इसका पूरा विन्यास इसी सरकार ने 2017 में रचा था। तब से लेकर अब तक यह संस्था अपनी अक्षमता के लिए लगातार चर्चा में बनी रही है। नीट-2024 इसकी अक्षमता का कोई पहला वाक़या नहीं है। चाहे असम के नील नक्षत्र दास का 2020 का मामला हो, जिसमें इस छात्र ने परीक्षा सेंटर से मिल कर एक सब्स्टिटूट से अपनी परीक्षा दिलवा दी थी और 99.8 पर्सेन्टाइल ले आया था, या फिर छिंदवाड़ा की विधि सूर्यवंशी का, जिसमें विधि को नीट-स्नातक 2020 में मात्र 6 अंक दिए गए थे। जिसके बाद विधि ने आत्महत्या कर ली थी और बाद में पता चला कि विधि के 590 अंक थे।
ऐसी अनगिनत अक्षमताएं NTA के चरित्र के साथ जुड़ी हैं जिन्हे केंद्र सरकार के चरित्र से अलग होकर नहीं देखा जा सकता। इसी केंद्र सरकार में वर्तमान में कृषि मंत्री बने मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं। जिनके शासनकाल में मध्यप्रदेश में व्यापम घोटाला हुआ। यह प्रवेश परीक्षा और नौकरी भर्ती घोटाला है जिसे मध्यप्रदेश के शिक्षा विभाग द्वारा कई अन्य लोगों के साथ मिलकर अंजाम दिया गया था। इस घोटाले में मध्यप्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री और बीजेपी विधायक का बहुत बड़ा हाथ था।
NTA के कारनामे, असफलताएं और लीपापोती व हाल में हुए नीट समेत तमाम अन्य परीक्षा भ्रष्टाचार को देखें तो ऐसा लगता है कि NTA का इस्तेमाल ‘व्यापम के राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार’ के एक प्रयोग के तौर पर किया जा रहा है। सब कुछ सरकार के नाक के नीचे हो रहा है लेकिन बिना विरोध और प्रदर्शन के सरकार अपने गिरेबान में झाँकने तक को तैयार नहीं। यह न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि मनमाना और असंवेदनशीलता से भरपूर रवैया है, जिसे अब रोके जाने की जरूरत है।
लोकसभा में स्थगन प्रस्ताव का उद्देश्य भी यही था कि सरकार की निंदा की जा सके, उसे उत्तरदायी बनाया जा सके और यह संदेश दिया जा सके कि भारतीय लोकतंत्र जनहित के मुद्दों को लेकर खामोशी अख्तियार नहीं करने जा रहा है साथ ही यह भी कि सरकार को किसी भी किस्म की मनमानी नहीं करने दी जा सकती। यह अलग बात है कि स्थगन प्रस्ताव को स्वीकार करना या न करना लोकसभा अध्यक्ष का विवेकाधिकार है। और उन्होंने अपने इस अधिकार का प्रयोग करके इसे अस्वीकार कर दिया है। मेरी नजर में यह एक गलत कदम है और यह संदेश दे रहा है कि अध्यक्ष सरकार की शील्ड बन रहे हैं। ऐसा संदेश देश में पहुँचे, इससे लोकसभा अध्यक्ष को ओम बिरला को बचना चाहिए था।
(लेखक कुणाल पाठक स्तंभकार हैं और लखनऊ पोस्ट डॉट कॉम के सह संस्थापक हैं)