करगिल की जंग के दौरान दिलीप कुमार ने पाक प्रधानमंत्री को क्या कहा था?

05:00 pm Jul 07, 2021 | विजय त्रिवेदी - सत्य हिन्दी

फ़िल्म अभिनेता दिलीप कुमार एक नायक की तरह जिए और नायक की तरह चले गए। एक ऐसा हीरो जिसने आज़ादी के करीब पहुँचते हिन्दुस्तान के साथ जब अपना फ़िल्मी सफर शुरू किया तो उनके नज़रिए से मुल्क़ का नौजवान दिखने लगा।

ट्रैजेडी किंग की भूमिका निभाने वाला शख्स असल जिंदगी में हमेशा मुस्कराने वाला इंसान रहा। फिल्मों के उनके सफर पर तो ज्यादातर लोग जानते हैं, लेकिन हम उनके ग़ैर- फ़िल्मी सफर की चर्चा कर रहे हैं। 

पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी ने अपनी किताब ‘नीदर ए हॉक नार ए डव’ में लिखा है कि कारगिल जंग के वक्त वाजपेयी ने फ़िल्म अभिनेता दिलीप कुमार की भी नवाज़ शरीफ़ से फोन पर बात करवाई थी।दिलीप कुमार भी वाजपेयी के साथ लाहौर बस में गए थे और पाकिस्तान ने 1997 में अपने सबसे बड़े सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से दिलीप कुमार को नवाज़ा था।

इसके बाद बात 1999 की है, लाहौर यात्रा में गले मिलकर लौटे प्रधानमंत्री वाजपेयी कारगिल पर पाकिस्तानी घुसपैठ की ख़बर के बाद आगे की रणनीति बना रहे थे। पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री कसूरी के मुताबिक़, एक दिन प्रधानमंत्री निवास पर फोन की घंटी बजी।

नवाज़ शरीफ़ से शिकायत

एडीसी ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को बताया कि भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी बात करना चाहते हैं। फोन पर वाजपेयी ने शिकायत की कि लाहौर आमंत्रित करने के बाद शरीफ़ ने उनके साथ उचित व्यवहार नहीं किया। वाजपेयी की इस शिकायत पर शरीफ़ हैरान दिखाई दे रहे थे।वाजपेयी ने कहा कि एक तरफ लाहौर में गर्मजोशी से उनका स्वागत किया जा रहा था, दूसरी तरफ पाकिस्तान ने कारगिल कब्ज़ाने में देर नहीं लगाई।

शरीफ़ ने फ़ोन पर कहा- 'वाजपेयी जी आप जो कह रहे हैं, उसका मुझे इल्म नहीं है। मुझे थोड़ा वक़्त दीजिए। मैं अपने आर्मी चीफ जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ से बात करके आपको तुरंत फ़ोन करता हूँ।'

नवाज़ शरीफ़, पूर्व प्रधानमंत्री, पाकिस्तान

क्या कहा दिलीप कुमार ने?

लेकिन शरीफ़ के टेलीफोन बंद करने से पहले वाजपेयी ने शरीफ़ से कहा कि मैं चाहता हूं कि आप उस शख्स से बात करें जो मेरे बगल में बैठा है और मेरी और आपकी बातचीत सुन रहा है। नवाज़ शरीफ़ ने वाजपेयी के बाद फोन पर जो आवाज़ सुनी, उसने उन्हें चौंका सा दिया।वह आवाज़ थी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के फिल्म प्रेमियों के साथ-साथ करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करने वाले फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार साहब की।

दिलीप कुमार की आवाज़ सुनकर शरीफ़ बहुत हैरान हुए। दिलीप कुमार ने कहा,

मियां साहिब, आपने हमेशा अमन के बड़े समर्थक होने का दावा किया है इसलिए हम आपसे जंग की उम्मीद नहीं करते। तनाव के हालात में भारतीय मुसलमान बहुत असुरक्षित हो जाते हैं, इसलिए हालात को काबू रखने में बराय मेहरबानी कुछ कीजिए।


दिलीप कुमार, फ़िल्म अभिनेता

जेल में अनशन

ताज़िंदगी कांग्रेसी और सेक्युलर विचारधारा के साथ रहे दिलीप कुमार की यूं तो राजनीति में शुरुआत फ़िल्मों में आने से पहले ही उस वक़्त हो गई थी, जब उन्हें अंग्रेजी जानने की वजह से पुणे में ब्रिटिश एयरफोर्स कैंटीन में मैनेजर की नौकरी मिल गई।

दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। इसी दौरान उसी कैंटीन में एक आयोजन के दौरान उन्होंने यानी मुहम्मद युसुफ़ ख़ान ने भारत की आज़ादी की लड़ाई के समर्थन में ज़ोरदार भाषण दिया। यूसुफ़ ख़ान को एक दिन के लिए पुणे की यरवदा जेल में भेज दिया गया। वहां उन्हें पता चला कि सरदार पटेल और दूसरे स्वतंत्रता सेनानी जेल में अनशन कर रहे हैं, तो उन्होंने भी गंदी प्लेट में मिले खाने को इंकार कर दिया। अगले दिन सवेरे उन्हें जेल से रिहाई मिल गई।

यूसुफ़ खान के पिता ग़ुलाम सरवर ख़ान और दादा हाजी मुहम्मद ख़ान पेशावर में कांग्रेस पार्टी के मेम्बर थे। पेशावर में ही 11 दिसम्बर 1922 को युसुफ ख़ान का जन्म हुआ था। दिलीप कुमार पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बड़े फैन और दोस्त जैसे रहे।

जवाहर लाल नेहरू, पूर्व प्रधानमंत्री

नेहरू से दोस्ती

दरअसल दोनों का करियर भी एक साथ ही आगे बढ़ा। लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों में, दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म 1944 में आई थी और 1964 तक उनकी कुल 63 फिल्मों में से 36 फ़िल्में आई थीं। नेहरू और कांग्रेस विचारधारा से जुड़ती हुई दिलीप कुमार की फ़िल्में आईं  1957 में 'नया दौर' और 'गंगा जमुना'।

पंडित नेहरू के कहने पर 1962 के चुनाव में उन्होंने नॉर्थ बॉम्बे से वी. के. कृष्ण मेनन के चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया। फिर 1979 में दिलीप कुमार मुंबई के शेरिफ़ बने और साल 2000 से 2006 के बीच राज्यसभा में सांसद। नेहरू के अलावा राजनीति में दिलीप कुमार के जो दोस्त रहे उनमे कांग्रेस नेता रजनी पटेल, शरद पवार और बालासाहेब ठाकरे हैं।

फ़िल्म के सेट पर नेहरू

'नेता-अभिनेता' किताब के लेखक रशीद किदवई के मुताबिक़, नेहरू से दोस्ती तो इस कदर रही कि 1959 में ‘पैगाम’ फिल्म की शूटिंग मद्रास में हो रही थी और तब सेट पर अचानक प्रधानमंत्री नेहरू पहुंच गए और उन्होंने दिलीप कुमार को बांहो में भर लिया। नेहरू ने कहा कि 'पता चला कि तुम यहाँ हो तो मैं मिलने चला आया।' सेट पर उस वक्त लोगों को लगा था कि फिल्म की हीरोइन वैजयंतीमाला से मिलने नेहरू आए हैं। 

फिल्म 'गंगा जमुना' को कुछ साम्प्रदायिक इमोशन की वजह से जब सेंसर बोर्ड ने पास करने से रोक दिया तो दिलीप कुमार ने नेहरू से बात की और उनके आदेश पर यह फ़िल्म रिलीज हुई। रजनी पटेल ने ही दिलीप कुमार के सपनों के कल्चरल सेंटर को ज़मीन पर उतारा जो 1972 में वर्ली में  नेहरू सेंटर बना।

1979  में जब दिलीप कुमार मुंबई से दूर महाबलेश्वर में छुट्टियां मना रहे थे तब रजनी पटेल ने उन्हें बताया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार और रजनी पटेल ने उन्हें बॉम्बे का शेरिफ बनाने का फ़ैसला किया है।

पुराने दोस्त पवार के लिए 1967 में दिलीप कुमार ने बारामती में चुनाव प्रचार भी किया था। इससे पहले भी कई बार यह प्रस्ताव उन्हें मिला था, लेकिन फ़िल्मों में व्यस्तता की वजह से वे ठुकराते रहे थे।

'निशान ए इम्तियाज़'

शिवसेना नेता बालासाहेब ठाकरे से यूं तो दिलीप कुमार की लंबी दोस्ती रही ,लेकिन 1998 -99 में उनके रिश्ते खराब हो गए, जब पाकिस्तान ने दिलीप कुमार को सर्वोच्च सम्मान 'निशान ए इम्तियाज़' देने की घोषणा की। ठाकरे ने इस सम्मान को लेने पाकिस्तान जाने का जब विरोध किया तो राजनीतिक हंगामा भी खूब हुआ। तब उन्होंने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से सलाह ली।

अपनी आत्मकथा में दिलीप कुमार ने लिखा है कि वाजपेयी ने कहा कि आपको ज़रूर जाना चाहिए। एक कलाकार को राजनीति और भौगोलिक सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता और आपको यह सम्मान मानवीय सेवा के लिए मिल रहा है।

दिलीप कुमार 1998 में सुनील दत्त के साथ यह सम्मान लेने पाकिस्तान गए। फिर कारगिल युद्ध के दौरान ठाकरे ने उनसे यह सम्मान लौटाने की मांग भी की, लेकिन दिलीप कुमार ने इनकार कर दिया। फिर बाद में दोनों के रिश्ते सुधर गए। बाल ठाकरे से दिलीप कुमार की मुलाक़ात 1966 में शिवसेना बनाने से पहले हुई थी।

 

दिलीप कुमार आमतौर पर राजनीति से दूर रहे लेकिन 1993 के मुंबई दंगों ने उनकी सेक्युलर सोच को हिला दिया। दंगों के बाद उन्होंने पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए काफी काम भी किया। वे फ़िल्म जगत के लोगों के उस प्रतिनिधिमंडल के साथ दिल्ली में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से मिलने भी आए और मुंबई को बचाने की मांग की।

निशाने पर दिलीप कुमार

लेकिन उन्हें निशाना बनाने का यह पहला मसला नहीं था। साठ के दशक में एक बार कोलकाता पुलिस उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का आरोप लगाते हुए उनके मुंबई के घर में पहुंच गई। फिर पता चला कि किसी पाकिस्तानी जासूस की डायरी में बहुत से सेलेब्रिटीज का नाम है, उसमें दिलीप कुमार का नाम भी था और यह हंगामा काफी दिनों तक चलता रहा, जिसने उन्हें बेहद दिली तकलीफ पहुंचाई। 

सोनिया गांधी के कांग्रेस अधयक्ष बनने के बाद 1998 के लोकसभा चुनाव में दिलीप कुमार ने डॉ मनमोहन सिंह के समर्थन में दक्षिण दिल्ली सीट पर प्रचार भी किया। 

पूरी ज़िंदगी अपने असली नाम से अलग रह कर भी दुनिया भर के फ़िल्म दीवानों के दिलों पर राज करने वाले यूसुफ़ ख़ान के दिलीप कुमार बनने की कहानी यूं तो थोड़ी फ़िल्मी है,लेकिन असल में वह एक मुसलमान हीरो को खुले दिल से स्वीकार नहीं कर पाने की आशंकाओं की सचाई भी है।

देविका रानी से मुलाक़ात

दिलीप कुमार ने अपने अनुभवों का ज़िक्र अपनी आत्मकथा ‘द सब्सटैंस एंड द शैडो’ में भी किया है। युसुफ ख़ान उस दिन चर्च गेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन के आने का इंतज़ार कर रहे थे, जहां उन्हें अपने परिचित साइकोलोजिस्ट डॉक्टर मसानी मिल गए। 

डॉक्टर साहब उस वक्त बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे। डॉक्टर साहब के कहने पर यूसुफ खान उनके साथ हो लिए। किस्मत कैसे बदलती है उसकी कहानी है देविका रानी से यूसुफ ख़ान की वो मुलाक़ात। 

दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि डॉक्टर मसानी ने जब उस जमाने के मशहूर प्रोडक्शन हाउस बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी से उनके काम की बात की तो देविका रानी ने उनसे पूछा कि क्या तुम्हें उर्दू आती है? क्या तुम एक्टर बनना चाहते हो?

 डॉक्टर मसानी ने बताया कि उनका परिवार फलों का कारोबार करता है। यूसुफ खान ने कहा कि उन्हे एक्टिंग के बारे में कुछ नहीं पता तो देविका रानी ने पूछा क्या तुम्हें फलों के कारोबार के बारे में पता है? जवाब था- सीख रहा हूं तो देविका रानी ने कहा तो फिर यह भी सीख लोगे। देविका रानी ने उन्हें 1250 रूपए महीने की तनख्वाह पर रख लिया। उन्हें लगा कि यह साल भर की तनख्वाह है। 

करीब 1942 की बात है कि एक दिन देविका रानी ने उन्हें स्टुडियों में बुलाकर कहा कि मैं तुम्हें हीरो के तौर पर लॉंच करना चाहती हूं और इसके लिए स्क्रीन नेम यदि बदल दिया जाए तो बेहतर होगा। देविका रानी ने नाम सुझाया – दिलीप कुमार, यूसुफ़ ख़ान को उस वक्त कोई जवाब नहीं सूझा, लेकिन थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा कि नाम तो अच्छा है लेकिन क्या बदलना ज़रूरी है। देविका रानी जवाब में मुस्करा भर दी और यूसुफ़ ख़ान की पहचान दिलीप कुमार में तब्दील हो गई।

दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि देविका रानी ने कहा कि यह स्क्रीन नेम अच्छा रहेगा और इसमें एक सेक्युलर अपील भी होगी। उस वक़्त तो हिन्दू मुसलमानों के बीच इतनी कड़वाहट नहीं दिखती थी,लेकिन कुछ साल बाद भारत और पाकिस्तान दो मुल्क बन गए।

स्क्रीन नेम क्यों?

हालांकि ऐसा नही था कि उस वक्त सिर्फ़ मुसलिम कलाकारों को नाम बदलना पड़ रहा था। तब बहुत से कलाकारों ने अपने स्क्रीन नाम बदल लिए थे और उसमें पहला प्रमुख नाम था-कुमुद लाल गांगुली जो 1936 में 'अछूत कन्या' फ़िल्म के साथ 'अशोक कुमार' नाम से हिट हो गए। दिलीप कुमार की पहली फिल्म आई 1944 में 'ज्वार भाटा', जो चली तो नहीं लेकिन उन्हें स्क्रीन नेम मिल गया था।

उस ज़माने की सबसे हिट त्रिमूर्ति दिलीप कुमार के साथ राजकपूर थे जिनका असली नाम सृष्टि नाथ कपूर था और धर्मदेव पिशोरीमल आनंद बन गए सुपर स्टार देवानंद। उसी जमाने के गुरुदत्त का असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था।

दिलीप कुमार ने अपने पूरे फिल्मी करियर में सिर्फ एक बार मुसलिम किरदार निभाया- मुगले आज़म में शहजादे सलीम के तौर पर।

आख़िरी फ़िल्म

दिलीप कुमार को 1991 में पद्मभूषण, 1994 में दादासाहब फाल्के सम्मान और 2015 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। वो आख़िरी बार 1998 में फिल्म 'किला' में नज़र आए।

दिसम्बर 2015 में  तब के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने मुंबई में उनके घर जाकर देश के दूसरे सबसे बड़े सम्मान से सम्मानित किया था। उस वक्त उनके साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस भी मौजूद थे। फ़िल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार हासिल करने वाले वे पहले अभिनेता थे और उन्होंने आठ बार यह पुरस्कार मिला।