लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया जिस दौर में एक भ्रष्ट व्यवस्था का पहरेदार और पैरोकार बन चुका हो और पत्रकारिता सिर्फ एक धंधा बन कर रह गई हो, उस समय रामेश्वर पांडेय का निधन सिर्फ निजी स्मृतियों में बसे किसी बेहद आत्मीय व्यक्ति, एक वरिष्ठ पत्रकार और एक संपादक के गुज़र जाने की वजह से दुखद नहीं है। यह परिस्थितियों से हार न मानने वाली जिजीविषा और अथक जुझारूपन से बने ऐसे व्यक्तित्व का अचानक लोप हो जाना है जिसमें अभी बहुत कुछ करने की इच्छा और क्षमता बाक़ी थी, सिर्फ अपने आपको साबित करने या बाज़ार में सर्कुलेशन में बने रहने के लिए नहीं, बल्कि पत्रकारिता के क्षरण को अपनी तरफ से रोकने की भरसक कोशिश के लिए भी। इस नाते रामेश्वर पांडेय का निधन दोहरा आघात है।
रामेश्वर जी जिस दौर में पत्रकारिता में आए थे, तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था। अख़बार थे और पत्रिकाएँ थीं। हिंदी की प्रिंट पत्रकारिता में आने वाले लोग आम तौर पर या तो किसी जनसंघर्ष से जुड़ाव और झुकाव की वजह से पत्रकार बनते थे या उनके भीतर व्यवस्था को लेकर खदबदाहट रहती थी जो उनकी निजी राजनैतिक चेतना और विचारधारा के हिसाब से अभिव्यक्त होती थी। पत्रकारिता प्रोफेशन तो थी लेकिन उसमें मिशन की भावना भी बची हुई थी। पत्रकारिता जनपक्षधरता से जुड़ा काम था। समाजवादी, वामपंथी, गांधीवादी, दक्षिणपंथी सभी तरह के लोग न्यूज़ रूम का हिस्सा होते थे। धारदार पत्रकारिता के लिए एक्टिविज्म को एक अतिरिक्त योग्यता का सम्मानजनक दर्जा हासिल था। आंदोलनों से निकले पत्रकार आज की तरह अर्बन नक्सल नहीं कहे जाते थे। रामेश्वर पांडेय भी वामपंथी सोच से प्रभावित पत्रकार थे।
रामेश्वर जी का स्मरण करते हुए अस्सी के दशक के लखनऊ की पत्रकारिता का दौर याद आ रहा है। लखनऊ में जब ‘शान ए सहारा’ अख़बार निकलना शुरू हुआ तो रामेश्वर जी उसकी संपादकीय टीम का हिस्सा बने। बाद में ‘आज’ अख़बार से भी जुड़े। मैं और मेरी मित्रमंडली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के साथ शहर की सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हो रहे थे। तब रामेश्वर जी समेत ऐसे तमाम वरिष्ठों से मिलने के संयोग बने जिन्होंने पढ़ने के साथ-साथ लिखने के लिए प्रेरित किया, हौसला बढ़ाया, मौके दिए, मदद की। उन दिनों की बड़ी दिलचस्प यादें हैं।
हम लोग नौसिखिये थे। चाय की गुमटियों पर वरिष्ठों के बीच होने वाली बातचीत गंभीरता से सुनते थे और ये भी पढ़ लें, वो भी पढ़ लें की इच्छा लिए लौटते थे। ये सब अनौपचारिक क़िस्म के स्टडी सर्किल जैसा था जो हमारे लिए काफी कारगर साबित हुआ।
रामेश्वर जी हिंदी के ख़लीफ़ा, हाई-फाई संपादकों की कैटेगरी में कभी नहीं रहे। ग़ालिब ने अपने एक मशहूर शेर में जिस फाकामस्ती का जिक्र थोड़े गर्व के साथ किया है, वह आजीवन रामेश्वर जी की पहचान रही। वैसे ये उस दौर के तमाम पत्रकारों की ख़ासियत रही जिनमें से बहुत से लोग अब हमारे बीच नहीं हैं। रामेश्वर जी बिना गुरुडम लादे हुए ट्रेनिंग देने वाले वरिष्ठ थे। मुझे यक़ीन है कि इस बात की तस्दीक़ हर वह व्यक्ति करेगा जिसने कभी न कभी उनके साथ काम किया हो।
हर प्रोजेक्ट के साथ नयी संपादकीय टीम बनाना और पूरे जोश के साथ जुट जाना उनकी ख़ासियत थी जो उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक तमाम संस्करणों की शानदार शुरुआत और सफलता की वजह रही।
जब मैं पहली बार दिल्ली आया तो मेरा ठिकाना लक्ष्मीनगर में रामेश्वर जी का घर ही बना। ऑटोवाला मुझे ग़लती से लक्ष्मीनगर की जगह लक्ष्मीबाई नगर ले गया। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो होते नहीं थे। एक पान वाले की दुकान से उन्हें फ़ोन करके बताया तो पहले तो खूब ठठाकर हँसे फिर बोले प्यारे पैसे हैं कि नहीं। हमने कहा हैं, तो बोले सीधे कोई ऑटो रिक्शा पकड़ो और उसको बोलो विकास मार्ग आईटीओ होते हुए लक्ष्मीनगर ले चले।
उनके साथ उस जगह की ढेर सारी यादें हैं। दिन में ख़बरों और अनुवाद के काम के लिए मशक्कत, देर रात तक तमाम विषयों पर चर्चाओं का दौर और रात के खाने में तवे वाली रोटी और अरहर की दाल के लिए शकरपुर के भजगोविंदम ढाबे पर जाना। ट्रेन रिजर्वेशन के लिए कड़कड़डुमा आरक्षण केंद्र का पता रामेश्वर जी ने ही बताया। कड़कड़डुमा को वह अपनी विशेष शैली में कडकडडुम्मा कहते थे। उन्होंने ही एक अभिभावक की तरह दिल्ली में रहने, चलने फिरने के तौर तरीक़ों के बारे में हिदायतें दीं और यह भी समझाया कि यहां बसें बहुत तेज़ रफ्तार से चलती हैं, चढ़ते-उतरते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। फिर जब टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकारिता संस्थान में दाखिल हो गये तब भी उनके अड्डे पर गाहे-बगाहे बैठकी का सिलसिला जारी रहा।
हम जैसे नये लोगों के लिए रामेश्वर जी का प्रिय संबोधन था - प्यारे। खुद भी बहुत प्यारे इनसान थे। उस दौर के तमाम वरिष्ठों की तरह बहुत दोस्ताना और मददगार। खाने और पीने दोनों के शौकीन। पान खाने की आदत की वजह से होंठ और दाँत लाल रहते थे। बहुत प्यारी मुस्कुराहट थी उनकी, बच्चे जैसी सरल। बहुत खुल कर हंसते थे। अपने ऊपर भी हंसने का जिगर रखते थे। जिन दिनों वह लखनऊ में राजाजीपुरम में रहते थे तो उनके घर अक्सर आना जना होता था। एक बार उनके घर गया तो देखा बर्तन मांज रहे हैं। पूछने पर हंसते हुए अलीबाबा और मारियो पूजो के गॉडफ़ादर की कहानी को मिलाकर गुनाह छुपाने वाला किस्सा सुनाकर बोले-“प्यारे, पत्नी के आने से पहले गुनाहों के निशान मिटा रहा हूं।”
मैं पूरा माजरा समझ गया कि भाभी जी की गैर मौजूदगी में वहां क्या क्या हुआ होगा। अपनी बात कहकर रामेश्वर जी और जोर से हंसे। मैंने अनुभव किया कि वे अपनी तमाम बाहरी व्यस्तताओं और सक्रियता के बावजूद घर परिवार में भी गहरे रमे हुए थे। पत्नी -बच्चों से बहुत लगाव रखने वाले।
मेरे जानने वाले तीन वरिष्ठ पत्रकार रामेश्वर पांडेय, प्रमोद झा और उपेंद्र मिश्र गहरे मित्र थे। तीनों पूर्वी उत्तर प्रदेश से थे और अस्सी के दशक में लखनऊ में पत्रकारिता में सक्रिय थे और तीनों का ही मेरा और मेरी पूरी मित्र मंडली से बहुत आत्मीयता वाला रिश्ता था- वरिष्ठों के साथ-साथ बड़े भाइयों जैसा। उपेंद्र जी और प्रमोद जी जा चुके हैं। रामेश्वर जी के निधन से उस तिकड़ी की आखिरी कड़ी भी टूट गई।
रामेश्वर जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
अफसोस कि अब पत्रकारिता में ऐसे फक्कड़ मिज़ाज लोग खत्म होते जा रहे हैं। एक पूरी पीढ़ी जिसने अपने पीछे के लोगों को आगे बढ़ने में मदद की, अब खत्म होने को हैं।