बड़े लोगों की कहानियों में अक्सर दिल की चोट का बड़ा अहम किरदार होता है। ज़िंदगी में कभी कहीं कोई ऐसी बात हो जाती है जो दिल को ऐसी लग जाती है कि ज़िंदगी का रास्ता ही बदल जाता है। अनंत तक पहुँचते आध्यात्मिक सुरों के सर्जक और साधक पंडित जसराज की भावविभोर कर देने वाली गायकी की कहानी भी एक चुभते हुए क़िस्से से शुरू हुई थी।
हरियाणा के हिसार ज़िले के एक छोटे से गाँव पीली मंडोरी में 28 जनवरी, 1930 को जन्मे पंडित जसराज को तीन साल की उम्र में उनके शास्त्रीय संगीत गायक पिता पंडित मोतीराम ने सुर सिखाने शुरू ही किये थे कि नियति ने अपना क्रूर खेल दिखा दिया। महज़ चार साल की उम्र में पंडित जसराज के सिर से पिता का साया उठ गया। पिता के गुज़र जाने के बाद जसराज के संगीत गुरु बने उनके उनके भाई पंडित प्रताप नारायण और पंडित मणिराम। पंडित जसराज अपने भाइयों की शागिर्दी में तबले पर हाथ आज़माने लगे।
हाथ सध गया तो सात बरस की उम्र में स्टेज पर आ गए और तबले की थाप उन्हें लाहौर तक ले गई।
सात साल तक बाल नहीं कटवाए
एक बार उन्होंने कुमार गंधर्व के गायन में तबले पर संगत की। कुमार गंधर्व की गायकी पर पंडित अमरनाथ की एक टिप्पणी का प्रतिवाद करने पर उन्हें ताना सुनने को मिला कि तुम मरा हुआ चमड़ा बजाते हो, तुम्हें राग की क्या समझ। बात बहुत कड़वी और तीखी थी। पंडित अमरनाथ ख़ुद एक महारथी थे लेकिन उनकी बात जसराज को इतनी चुभी कि मन ही मन उन्होंने तय कर लिया कि अब तो गाना ही सीखना है। इसी धुन में सात साल तक बाल नहीं कटवाए।
गायकी की लगन बढ़ाने वाला मोड़ आया एक बहुत दिलचस्प घटना से। हैदराबाद में स्कूल जाते वक़्त उन्होंने एक रेस्तरां से बेगम अख़्तर की आवाज़ में बहज़ाद लखनवी की यह ग़ज़ल सुनी-
दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वर्ना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे
और संगीत की दीवानगी का एक सिलसिला शुरू हो गया। सुरों के सफ़र में अलौकिकता का साथ मिला तो एक के बाद एक मील के पत्थर तय होते गये। गुजरात के साणंद के महाराजा जयवंत सिंह वाघेला अच्छे गायक भी थे। उन्होंने पंडित जसराज को आध्यात्मिक गायकी की ओर प्रेरित और प्रशिक्षित किया। कृष्ण की उपासना से उनकी रागदारी ने अनोखी दैवीय आभा पाई।
ख़ुद पंडित जसराज का कहना था कि मैं तो हनुमान और राम का भक्त था लेकिन कृष्ण मुझे हाथ पकड़ कर खींच कर अपनी तरफ़ ले गये। फिर तो दुनिया ने पंडित जसराज की आवाज़ में कृष्ण उपासना का सिद्ध मंत्र सुना- ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’। उनके गाये मधुराष्टक, शिवाष्टक, स्तुतियाँ को लोकप्रियता मिली।
पंडित जसराज ने आध्यात्मिक गायन के ज़रिए शास्त्रीय संगीत की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाई। संगीत समारोहों में पंडित जसराज बेहद तल्लीनता के साथ अपने सुरों में डूब कर गायन प्रस्तुत करते थे।
उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे वह अपनी सुधबुध खो बैठे हों। वह दृश्य अपने समूचेपन में एक अद्भुत आलोक का सृजन करता था। उनसे ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ और ‘मेरो अल्लाह मेहरबान’ सुनना दिव्य होता था। कार्यक्रम ख़त्म होने के बहुत बाद तक वह गायन, वो आलाप भीतर गूंजता-घुमड़ता रहता था।
वाजपेयी ने कहा था रसराज
पंडित जसराज सिर्फ भारत में ही नहीं, बाहर के देशों में भी लोगों को अपनी गायकी का क़ायल किया। पंडित जसराज संभवत: इकलौते शास्त्रीय गायक हैं जिन्होंने सातों महाद्वीपों में कार्यक्रम प्रस्तुत किये। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें रसराज कहा था। रसराज यानि कृष्ण का पर्याय।
गायन के दौरान पंडित जसराज।
जुगलबंदी की अनोखी शैली
मेवाती घराने के पंडित जसराज ख़याल गायकी के महारथी थे लेकिन उनकी ठुमरियों का रंग भी निराला है। उन्होंने जुगलबंदी की अनोखी शैली ईजाद की जिसे जसरंगी का नाम मिला जो दरअसल पंडित जसराज की गायकी के रंग से ही निकला है। उन्होंने संगीत को लोकप्रिय बनाने के लिए अर्ध शास्त्रीय संगीत शैली हवेली संगीत को भी बढ़ावा दिया। फिल्मों के लिए भी गाया मगर ज़्यादा नहीं जबकि उनकी पत्नी मधुरा जसराज दिग्गज फिल्मकार और अभिनेता वी. शांताराम की बेटी हैं।
पंडित जसराज बहुत सहजता और आत्मीयता से मिलते थे। पद्म विभूषण थे, उनको यूं तो अपने स्टार स्टेटस का भी अहसास था, हस्ती वो थे लेकिन बहुत मिलनसार शख्स थे। उनकी शख्सियत में अजीब रूमानियत सी थी जो स्वर साधना के वक्त आध्यात्मिक चेतना बन जाती थी।
'जय हो' की अभिवादन शैली
खुशकिस्मती रही कि उन्हें कई बार सुनने का मौका मिला। अब जबकि वह नहीं हैं, उनका मुस्कुराते हुए 'जय हो' कहना याद आ रहा है। यह उनकी प्रिय अभिवादन शैली थी। उन्हें अगर यह अनुमान हो जाता था कि उनसे बात करने वाला उनकी गायकी और उनके काम के बारे में जानकारी और दिलचस्पी रखता है, तो फिर बहुत मगन होकर बात करते थे।
पुरानी यादें
मुझे याद है कि एक बार वो कनॉट प्लेस के कॉंपिटेंट हाउस में आज तक के ऑफिस में अपनी बेटी दुर्गा जसराज के साथ आए थे। जब तक इंटरव्यू की तकनीकी तैयारी हो रही थी, हममें से कुछ लोग अभिभूत भाव में उन्हें घेर कर खड़े हो गए। पंडित जी ने वहीं बैठे-बैठे गुनगुनाना और आलाप लेना शुरू कर दिया। देखते ही देखते समां बंध गया।
एक बार कमानी सभागार में लोग उन्हें सुन रहे थे। वह बहुत तल्लीन होकर गा रहे थे। सामने राजन-साजन मिश्र बैठे हुए थे जो खुद संगीत की दुनिया में बहुत नामवर हैं। पंडित जी के गायन के बीच अचानक उन्होंने हाथ जोड़कर जाने की आज्ञा सी मांगी और उठकर आधे ही खड़े हो पाए थे कि पंडित जसराज एकदम आदेशात्मक लहजे में बोले- राजन-साजन बैठ जाओ, पता नहीं फिर ये सुनने को मिले या नहीं। और वो लगभग घबराए, थोड़े लज्जित से वापस प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़ अपनी सीट पर बैठ गए। ऐसा था उनके व्यक्तित्व का प्रभाव।
पंडित जसराज ने संगीत की तालीम देने के लिए देश-विदेश में संस्थाएं भी बनायीं। एटलांटा, न्यूयॉर्क, वैंकूवर, न्यू जर्सी, टोरंटो में उनके नाम पर संगीत शिक्षण की संस्थाएं हैं।
पंडित जसराज बढ़ी उम्र के बावजूद संगीत सीखने में बहुत दिलचस्पी लेते थे और नयी तकनीक की मदद से ऑनलाइन कक्षाएं लिया करते थे।
उनकी लोकप्रियता और उनके प्रति सम्मान का आलम यह था कि अमेरिका ने करीब डेढ़ दशक पहले खोजे गए एक ग्रह का नाम उनके नाम पर रख दिया थ। संयोगवश यह ग्रह जुपिटर यानी गुरू और मार्स यानी मंगल के बीच हमारे सौर मंडल के इर्द-गिर्द घूमता रहता है।
कृष्ण के अनन्य उपासक पंडित जसराज के देहावसान से मथुरा, वृन्दावन, गोकुल और नाथद्वारा की गलियां सूनी हो गयी हैं। अब उनका आलाप अनंत में गूंजता रहेगा।