कोई बिगाड़ सकत नहीं तेरो
मन लीजय तू ठान
मेरो अल्लाह मेहरबान
एडमंटन में जब यह राग भैरव की अपनी ही बनायी बंदिश पंडित जसराज गा रहे थे, तो एक ही स्वर पर अल्लाह और ओम दोनों सुनाई दिए। इस बंदिश के परिचय में पंडित जसराज का परिचय भी मिलता है। ऐसे व्यक्ति जिनके संगीत में अटल निश्चय भी था, और भक्ति भी।
निश्चय इसलिए कि पंडित जसराज की शुरुआत गायक के रूप में नहीं हुई थी। वह तो तबला-वादक थे। ऐसे तबला-वादक जिन्होंने पंडित रविशंकर और कुमार गंधर्व सरीखों के साथ संगत की। पंडित जसराज और उनके भाई प्रताप नारायण जी ताल के गुणी थे। जबकि पंडित जसराज के बड़े भाई और गुरु पंडित मणिराम जी अव्वल दर्जे के गायक।
क़िस्सा यूँ है कि लाहौर में कुमार गंधर्व की राग भीमपलासी की प्रस्तुति थी, और पंडित जसराज संगत दे रहे थे। वहाँ पंडित अमरनाथ (इंदौर घराना) ने कुछ राग की शुद्धता विषयक टिप्पणी की, जिस पर पंडित जी ने कुमार गंधर्व का पक्ष लिया। वहीं जवाब मिला, “जसराज! तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो। तुम्हें राग के बारे में क्या मालूम”
इस क़िस्से के कुछ और रूप भी मिलते हैं। इसके बाद भी एक अप्रिय घटना हुई। पंडित जसराज ने 1946 ई. में यह तय कर लिया कि वह तब तक अपने बाल नहीं कटाएँगे, जब तक वह गायन सीख नहीं लेते। मैंने उनकी वह लंबे बालों वाली तस्वीर देखी है, जिसमें उनकी आँखों में ही एक नौजवान का निश्चय दिखता है।
संगीत में ऊँच-नीच तो इतनी थी कि एक तबला-वादक का गायक बनना आसान न था, और पंडित जी की भी आलोचना होती रही। लेकिन, इन आलोचनाओं का उत्तर पंडित जी अपने हाथ में स्वर-मंडल लिए मंच पर अपने बोल-तान और सरगम से देते रहे। आखिरकार मोहन नाडकर्णी जैसे तीखे संगीत आलोचक भी उनके प्रशंसा के पुल बाँधने लगे।
वह समय भी आया जब भारत बिनाका टॉप टेन और फ़िल्मी गानों की दुनिया में हिंदुस्तानी संगीत से दूर जाता गया। कई संगीतकार देश छोड़ कर अमेरिका या अन्य देश चले गये। लेकिन, पंडित जसराज ने संगीत की ज्योति जला कर रखी।
उन्होंने बंबई से हिंदुस्तानी संगीत को कॉमर्शियल सफलता दिलानी शुरू की। इस संगीत में एक ऐसा ग्लैमर लाये, जिससे वही लोग जुड़ते चले गए जो इस संगीत से दूर जा रहे थे। इसके लिए उन्होंने बॉलीवुड का दामन नहीं थामा, जो कुछ अन्य संगीतकारों ने थाम लिया था।
एक गीत 1966 में गाया भी, तो वह राग आधारित भजन था जो फ़िल्म ‘लड़की सह्याद्रि की’ में गाया था। पंडित जसराज ने बड़े बैनर के हिंदुस्तानी संगीत एल्बम बनाए, जो घर-घर पहुंचे। उन्होंने भक्ति-संगीत को राग-बद्ध किया। घर-घर में मधुराष्टकम्, यमुनाष्टकम्, मंगलाचरण, शिव-स्तुति आदि बजने लगे।
हवेली संगीत को दिया नया जीवन
उनकी गायकी में एक स्पष्टता है। बोल स्पष्ट हैं, पद स्पष्ट हैं, मंत्र स्पष्ट हैं। हिंदुस्तानी संगीत को उन्होंने सुगम बना दिया और यह सुगमता उन्होंने अपने शिष्य संजीव अभ्यंकर में कुछ हद तक हस्तांरित भी की। हवेली संगीत जो लगभग विलुप्त हो रहा था, उसे पंडित जसराज ने नया जीवन दे दिया। एक बार पंडित रविशंकर ने तंज भी किया, “सुना है! अब तुम राजस्थानी गीत गाने लग गए हो।”
पंडित जी पर कुछ हल्की टिप्पणियाँ मिलती हैं कि वे अभिमानी व्यक्ति थे। यह ख़्वाह-म-ख़्वाह की आलोचना है। एक क़िस्सा है कि पंडित शिव कुमार शर्मा को आकाशवाणी में कार्यक्रम करना था और तबला-वादक उपस्थित नहीं थे। पंडित जसराज गायन के लिए आए थे, तो उनसे आग्रह किया गया कि आप तबला बजा देंगे अब तक वह तबला छोड़ कर गायक बन चुके थे, लेकिन उन्होंने तबले पर संगत देना स्वीकार कर लिया।
वर्षों बाद एक बार पंडित जसराज के साथ तबला-वादक निज़ामुद्दीन ख़ान साहब की तबीयत नासाज़ हो गयी, तो वहाँ शिव कुमार शर्मा ने कहा कि आज मैं आपके लिए तबला बजा देता हूँ। ऐसी जुगलबंदी भला अभिमानी व्यक्ति के साथ कहाँ संभव
अमर हो गया नाम
वह तो रसों के राजा था, तभी तो अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें रसराज कहा। रसराज का जस-रस आज भी उनके संगीत में जीवित है। पिछले वर्ष, मंगल और बृहस्पति ग्रहों के मध्य एक उपग्रह का नाम पंडित जसराज के नाम पर रखा गया। इससे पहले वोयेज़र पर केसरबाई केरकर की आवाज़ भेजी गयी थी। पंडित जी का संगीत विश्व में और अंतरिक्ष में नाम अमर हो गया।