ऋग्वेद के दशम मंडल में विराट पुरुष के मुँह से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति बताई गई है। कई सौ साल तक लोग इसे मानते भी रहे। अपने पिछले जन्म के पापों का परिणाम मानकर दूसरे की सेवा करने से लेकर तमाम ऐसे कार्य करते रहे, जिसे भारत में निम्न स्तर का काम माना जाता है। उसके लिए पारिश्रमिक की भी कोई ख़ास व्यवस्था नहीं बनी। वजह यह रही कि वह करना जन्म से निर्धारित था। जाति-व्यवस्था और उसके मुताबिक़ ही काम का विरोध बहुत पहले से होता रहा है। कबीर, रैदास, तुकाराम समेत तमाम समाज विज्ञानी हुए, जिन्होंने इस जाति आधारित काम के बँटवारे (या कह लें आरक्षण) का विरोध किया। हालाँकि उससे थोड़ी बहुत सामाजिक चेतना ज़रूर आई, लेकिन इससे कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ।
आधुनिक भारत में सबसे पहले इस जाति आधारित काम के आरक्षण पर महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले (11 अप्रैल 1827 से 28 नवंबर 1890) ने धावा बोला। सैकड़ों साल से लोग रटते रहे कि ब्राह्मण मुँह से पैदा हुआ, शूद्र पैरों से पैदा हुआ। लेकिन अंग्रेज़ी शासन काल में शुरुआती शिक्षा पाने के बाद फुले ने ऋग्वेद को चुनौती दे डाली। उन्होंने साफ़ कहा कि किसी भी महिला, चाहे वह जिस भी जाति, धर्म की हो, गर्भ धारण का एक ही तरीक़ा है। एक ही अंग है, जिससे बच्चा पैदा हो सकता है। मुँह से बच्चा पैदा होना असंभव है।
फुले ने ‘ग़ुलामगीरी’ नामक अपनी पुस्तक सवाल-जवाब के रूप में लिखी है। पुस्तक जोतीराव और धोंडीराव-संवाद के रूप में है।
धोंडीराव सवाल करते हैं, ‘पश्चिमी देशों में अंग्रेज़, फ्रेंच आदि दयालु, सभ्य राज्यकर्ताओं ने इकट्ठा होकर ग़ुलामी प्रथा पर क़ानूनन रोक लगा दी है। इसका मतलब यह है कि उन्होंने ब्रह्मा के (धर्म) नीति-नियमों को ठुकरा दिया है। क्योंकि मनु संहिता में लिखा गया है कि ब्रह्मा (विराट पुरुष) ने अपने मुँह से ब्राह्मण वर्ण को पैदा किया है और उसने इन ब्राह्मणों की सेवा (ग़ुलामी) करने के लिए ही अपने पाँव से शूद्रों को पैदा किया है।’
इस सवाल के जवाब में जोतीराव कहते हैं, ‘अंग्रेज़ आदि सरकारों ने ग़ुलामी प्रथा पर पाबंदी लगा दी है, इसका मतलब ही यह है कि उन्होंने ब्रह्मा की आज्ञा को ठुकरा दिया है, यही तुम्हारा कहना है न! इस दुनिया में अंग्रेज़ आदि कई प्रकार के लोग रहते हैं, उनको ब्रह्मा ने अपनी कौन-कौन-सी इंद्रियों से पैदा किया है और इस संबंध में मनुसंहिता में क्या-क्या लिखा गया है’
इस तरह से उन्होंने इसे वैश्विक स्तर प्रदान किया कि हमारे देश में तो विभिन्न वर्णों के लोग ब्रह्मा या विराट पुरुष के शरीर के विभिन्न अंगों से पैदा हो गए और चार वर्ण में विभाजित हो गए लेकिन अंग्रेज़ व अन्य देशों के लोग किस-किस अंग से पैदा हुए। फुले यहीं नहीं रुकते। एक सवाल के जवाब में कहते हैं-
‘ब्राह्मण को पैदा करनेवाले ब्रह्मा का जो मुँह है, वह हर माह मासिक धर्म (माहवारी) आने पर तीन-चार दिन के लिए अपवित्र (बहिष्कृत) होता था या लिंगायत नारियों की तरह भस्म लगा कर पवित्र (शुद्ध) हो कर घर के काम-धंधे में लग जाता था, इस बारे में मनु ने कुछ लिखा भी है या नहीं’
पुस्तक में वह आगे और सवाल करते हैं, ‘अच्छा। वह गर्भ ब्रह्मा के मुँह में जिस दिन से ठहरा, उस दिन से ले कर नौ महीने बीतने तक किस जगह पर रह कर बढ़ता रहा, इस बारे में मनु ने कुछ कहा भी है या नहीं’
फुले ने भारतीय सामाजिक संरचना की जड़ता को ध्वस्त करने का काम किया। महिलाओं, दलितों एवं शूद्रों की अपमानजनक जीवन स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए वे आजीवन संघर्षरत रहे।
सन 1848 में उन्होंने पुणे में अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला। यह भारत के ज्ञात इतिहास में अपनी तरह का पहला स्कूल था। फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर 1857 में लड़कियों के लिए स्कूल खोला, जो भारत में लड़कियों का पहला स्कूल हुआ। अपने क्रांतिकारी कार्यों की वजह से फुले और उनके सहयोगियों को तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े। उन्हें बार-बार घर बदलना पड़ा। फुले की हत्या करने की भी कोशिश की गई। पर वे अपनी राह पर डटे रहे। अपने इसी महान उद्देश्य को संस्थागत रूप देने के लिए ज्योतिबा फुले ने सन 1873 में महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया।
वंचितों की आवाज़ बने
फुले ने जातीय आरक्षण और जाति विशेष में जन्म पाकर मलाई खाने वाली जातियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। सदियों से वंचित तबक़े को जागरूक किया। इतना ही नहीं, अंग्रेज़ हुक़ूमत से उन्होंने उन तमाम वंचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों, शिक्षा में प्रतिनिधित्व के लिए आवाज़ बुलंद की। उस दौर के तमाम राजे-रजवाड़ों से मिलकर अपनी बात कहने की कवायद की और कुछ राजाओं से वंचित तबक़ों को सुविधा दिलाने में कामयाब भी रहे। फुले ने सबसे पहले आइडिया ऑफ़ रिज़र्वेशन यानी आरक्षण का विचार 1869 और 1882 में ब्रिटिश सरकार के सामने रखा था।
यह वह दौर था जब ब्रिटिश सरकार के सामने विभिन्न लॉबी समूह अधिक से अधिक सुविधाएँ और शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी देने की माँग कर रहे थे। उस दौरान आईसीएस परीक्षा की उम्र बढ़ाने की माँग हुई, जिससे भारत के कुलीन लोगों के बच्चे भी इंगलैंड में होने वाली परीक्षा में शामिल हो सकें और आईसीएस बनकर ब्रिटिश सरकार की सेवा कर सकें। इसके अलावा विभिन्न जातीय समूहों के लिए सेना में रेजिमेंट, जमींदारियाँ, कर वसूली के अधिकार भी माँगे जा रहे थे।
वहीं वंचित समाज को जब शिक्षा देने की बात आई तो सबसे पहले ब्राह्मण समुदाय के कुछ नेताओं ने उसका विरोध शुरू किया। संभवतः उन्हें यह लगता था कि अगर अन्य भारतीयों को शिक्षा दी गई तो वह उनके विशेषाधिकार का हनन होगा।
उस समय बाल गंगाधर तिलक मुखर रूप से सामने आए। तिलक ने ‘कुनबी’ बच्चों को शिक्षा देने का विरोध किया। उन्होंने कहा कि लिखने, पढ़ने और इतिहास, भूगोल और गणित जानने का उनके व्यवहारिक जीवन में कोई मतलब नहीं है। उन्होंने कहा कि यह उनके बेहतरी से ज़्यादा उनके लिए हानिकारक होगा।
15 मई 1881 को उन्होंने मराठा अख़बार में ‘अवर सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन : ए डिफ़ेक्ट एंड क्योर’ शीर्षक से लिखा,
‘आप किसान के लड़के को हल जोतने, लोहार के बेटे को धौंकनी से, मोची के बेटे को सुआ के काम से पकड़कर आधुनिक शिक्षा देने के लिए ले जाएँगे। ... और लड़का अपने पिता के पेशे की आलोचना करना सीखकर आएगा। उसे अपने खानदानी और पुराने पेशे में बेटे का सहयोग नहीं मिलेगा। ऐसा करने पर वह लड़का रोज़गार के लिए सरकार की तरफ़ देखेगा। आप उसे उस माहौल से अलग कर देंगे जिससे वह जुड़ा हुआ है, ख़ुश है और उनके लिए उपयोगी है, जो उन पर निर्भर हैं। उनकी बहुत-सी चीजों से आप उन्हें दूर कर देंगे।’
ऐसे माहौल में फुले ने व्यापक सफलता हासिल की। भारत में बहुजन की अवधारणा दी। तिलक ने जहाँ ‘आर्कटिक होम इन द वेदाज’ लिखकर आर्यों और अंग्रेज़ों को एक बताने की कोशिश की, वहीं फुले ने शासन और प्रशासन से वंचित तबक़े को भारतीय मूल का बताया। फुले उस लड़ाई में विजेता बनकर उभरे। स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में तमाम नेताओं पर फुले का असर पड़ा और वह विभिन्न वर्गों को हिस्सेदारी देने और छुआछूत, जाति प्रणाली का विरोध करने लगे। आधुनिक समावेशी भारत के निर्माण और विकास में फुले का योगदान अहम है, जिन्हें आधुनिक भारत के निर्माताओं में जगह दी जाती है।