बीजेपी ने जब 2019 के लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में जनता दल यूनाइडेट (जेडीयू) को 40 में से 17 सीटें दी थीं तो राजनीतिक विश्लेषकों को बहुत आश्चर्य हुआ था। 2014 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने तब 2 सीट जीतने वाली जेडीयू के साथ 17-17 सीटों पर चुनावी गठबंधन किया था। विश्लेषकों का कहना था कि बीजेपी चुनाव से पहले ही 5 सीटें हार चुकी है।
लोकसभा चुनाव के नतीजे यह तस्दीक कर रहे हैं कि बीजेपी का फ़ैसला सही था। राज्य में 40 में से 39 सीटें हासिल करने में बीजेपी गठबंधन सफल रहा। इससे यह भी साफ़ होता है कि राजनीतिक दलों व विश्लेषकों का यह अनुमान पूरी तरह ग़लत है कि नीतीश कुमार और जेडीयू का राज्य में कोई वोट बैंक नहीं है। इस वोट बैंक को बीजेपी ने तब अच्छी तरह समझा था, जब पिछले विधानसभा चुनाव में उसे बुरी हार का सामना करना पड़ा था। लोकसभा चुनाव में नीतीश का वोट बैंक अपने पाले में करके बीजेपी ने गठबंधन के रूप में बड़ी सफलता हासिल कर ली।
बिहार में नि:संदेह लालू प्रसाद यादव जनता की नब्ज पकड़ने वाले नेता हैं। लेकिन उन्होंने नीतीश का आकलन करने में चूक कर दी। आम चुनाव के दौरान आई उनकी आत्मकथा “गोपालगंज से रायसीना” में लालू प्रसाद लिखते हैं, “आरजेडी के बड़े वोट आधार के बावजूद, जो कि इससे पहले के लगातार चुनावों में साबित हो चुका था, हमने विधानसभा चुनाव में जेडीयू से ज़्यादा सीटें नहीं माँगीं। जेडीयू ने हमें 101 सीटें दीं और हम इतनी सीटों पर ही चुनाव लड़ने को राजी हो गए।”साफ़ है कि लालू को यह अहसास नहीं था कि नीतीश एक बड़ा जनाधार बना चुके हैं। जातीय गुणा-गणित बैठाने में माहिर बीजेपी ने इसे सूंघा और जीती हुई 5 सीटें छोड़कर नीतीश से समझौता कर लिया।
नीतीश ने लालू से अलग होने के बाद से ही लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी समीकरण बनाना शुरू कर दिया था। योजना के तहत उन्होंने अपने पाले में उपेंद्र कुशवाहा को बराबरी का दर्जा दिया। उन्होंने अति पिछड़ों और महादलितों को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया।
नीतीश जब सत्ता में आए तो उन्होंने पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण को बाँट दिया। शुरुआत में तो नीतीश का सिर्फ़ वह वोट बैंक था, जो लालू को किसी भी हाल में सत्ता से हटाना चाहता था और नीतीश के कुछ जातीय वोट उनके साथ थे। लेकिन अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) में विभाजन के साथ इस वर्ग में भी आरजेडी का पाला साफ़ हो गया और नीतीश कुमार ओबीसी का बड़ा वोट अपने पाले में खींचने में कामयाब हो गए।
बीजेपी ने यही फ़ॉर्मूला उत्तर प्रदेश में आजमाया। अपर कास्ट मतों के साथ पार्टी ने अति पिछड़े वर्ग की जातियों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कई मौक़ों पर यह बयान दिया कि 2019 के आम चुनाव में अति पिछड़ा वर्ग ही बीजेपी को जिताएगा। इसके अलावा नरेंद्र मोदी ने भी कई चुनावी जनसभाओं में ख़ुद को साहू-तेली जाति से जोड़ने और अपने को पिछड़े वर्ग में भी पिछड़ा बताने की कवायद की। इन कवायदों के साथ ही बीजेपी ने एसपी-बीएसपी के गठजोड़ को यूपी में सिर्फ़ दो जातियों तक समेट देने की कोशिश भी की। बीजेपी की यह कवायद सफल रही, यह चुनाव परिणाम से साफ़ होता है।
अगर लालू की जीवनी में लिखी बातों को मानें तो नीतीश बीजेपी से गठबंधन कर परेशान थे और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से मिलने भी नहीं दिया जा रहा था।
लालू ने जुलाई-अगस्त 2017 में बीजेपी और नीतीश के बीच तनातनी का हवाला देते हुए अपनी जीवनी में लिखा है, “उसी दौरान उन्होंने (नीतीश) विभिन्न मौक़ों पर अपने दूत प्रशांत किशोर को मेरे पास भेजा। किशोर ने मुझे यह संकेत दिया कि अगर मैं यह लिखकर दूँ कि मेरी पार्टी जेडीयू का समर्थन करेगी तो जेडीयू गठबंधन से निकलकर फिर से महागठबंधन में शामिल हो जाएगी। हालाँकि नीतीश के प्रति मेरा मन खट्टा नहीं हुआ था, लेकिन उनके प्रति मेरा भरोसा पूरी तरह टूट गया था। इसके अलावा मैं यह भी नहीं जानता था कि अगर मैंने किशोर का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तो जिन लोगों ने 2015 में महागठबंधन के पक्ष में मतदान किया था, वे लोग और देश भर में जो पार्टियाँ बीजेपी के ख़िलाफ़ एकजुट हुई हैं, वे इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया देंगी।”
बहरहाल, अब चुनाव परिणाम देखकर लगता है कि लालू प्रसाद ने जेडीयू को फिर से साथ न लेकर बड़ी भूल की और आरजेडी शून्य पर पहुँच गयी। हालाँकि जानकारों का यह भी कहना है कि इस तरह के गठजोड़ करने के लिए लंबी कवायद करने की ज़रूरत होती है।
बिहार के राजनीतिक जानकारों का कहना है कि नीतीश की ओर से प्रस्ताव लेकर जाने वाले व्यक्ति को सरकार ने बाद में लालू से मिलने से ही रोक दिया। ऐसे में आरजेडी का जो शुरुआती रुख था, वही बना रहा और आरजेडी व जेडीयू के बीच गठबंधन नहीं हो पाया।
नीतीश कुमार ने 2019 के लोकसभा चुनाव में लड़ी गई 17 में से 16 सीटों पर जीत हासिल की और सिर्फ़ 1 सीट कांग्रेस के हाथों गंवायी। ऐसे में अब यह साफ़ हो चुका है कि फिलहाल बिहार में बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू तीन बराबर क़द की ताक़तें हैं और तीनों का अपना-अपना मजबूत वोट बैंक है, जो ये दल किसी से भी गठजोड़ करके सफलतापूर्वक ट्रांसफर करा सकते हैं।