इस बार के लोकसभा चुनावों में प्रचंड जीत के साथ मोदी सरकार की दोबारा वापसी के बाद दूसरी सबसे बड़ी ख़बर अमेठी से राहुल गाँधी की हार है। राहुल की हार की सनसनी इतनी तेज़ रही कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की असफलता, विपरीत जमीनी समीकरण के बावजूद राज्य में बीजेपी की उल्लेखनीय सफलता जैसी तमाम बातें पीछे छूट गयीं। वैसे भी साल दर साल शिकस्त झेलती कांग्रेस के लिए तो यह हार मानो कोमा में ले जाने जैसी रही है।फिलहाल सच यही है कि अमेठी से राहुल गाँधी हार गए हैं। उन्होंने इसे स्वीकार भी किया है। बीजेपी उम्मीदवार स्मृति ईरानी ने अपने काम और लगातार पाँच सालों की मेहनत की बदौलत राहुल को अमेठी से बेदख़ल कर दिया है। यह वही अमेठी है, जहाँ से राहुल गाँधी की जीत का एलान महज औपचारिकता भर होती थी। जहाँ गाँधी परिवार का सूरज आज तक सिर्फ़ एक बार 1977 में अस्त हुआ था।
अमेठी की जनता ने राहुल के बजाए स्मृति को तरजीह दी है। राहुल की हार से अन्य नेताओं को सबक लेने की ज़रूरत है कि नाम ही काफ़ी नहीं है। जनता काम के बदले ही वोट देगी।
अमेठी कांग्रेस का गढ़ है। यह गाँधी परिवार की सीट है। ऐसा माना जाता रहा है कि यहाँ कांग्रेस की जड़ें बहुत मजबूत हैं लेकिन स्मृति ईरानी ने अपने काम और प्रयास से कांग्रेस को उखाड़ फेंका है। राहुल अमेठी में 38449 वोटों से हारे हैं और अमेठी से चुनाव हारने वाले गाँधी परिवार के पहले सदस्य हैं।
स्मृति, संघ और बीजेपी जुटे थे
बीते चुनावों में राहुल गाँधी के मोदी को चुनौती देने के बाद बीजेपी ने स्मृति ईरानी को यहाँ से चुनाव लड़ाया था। उस चुनाव में भी स्मृति ने राहुल को कड़ी टक्कर दी थी और 1.05 लाख वोटों से हारी थीं। स्मृति के अच्छे प्रदर्शन के बाद बीजेपी और संघ के लोगों को लगा कि मेहनत की जाए तो कांग्रेस के इस किले को ढहाना मुश्किल नहीं है।चुनाव हारने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी से अपना नाता नहीं ख़त्म किया। वह 2014 से 2019 तक लगातार क्षेत्र में सक्रिय रहीं। जनता के सुख-दुख में शामिल रहीं। बतौर केंद्रीय मंत्री और अपनी सांसद निधि से स्मृति ने अमेठी में लगातार पाँच साल काम किया। कांग्रेस की तर्ज पर अमेठी में बीजेपी ने बूथवार संगठन खड़ा किया। पंचायत चुनावों से लेकर निकाय चुनावों तक जम कर लड़ाई लड़ी और अपने लोगों को जितवाया।
दूसरी ओर, कांग्रेस ने पंचायत चुनावों से लेकर निकाय चुनावों में भागीदारी तक नहीं की। अमेठी के निकाय चुनाव में उसने अपना प्रत्याशी तक खड़ा नहीं किया। संघ ने अमेठी में अपने सबसे तेज़-तर्रार प्रचारकों की नियुक्ति की और कामों की लगातार समीक्षा की। कांग्रेस जहाँ इस अहम क्षेत्र में गुटबाज़ी की शिकार रही, वहीं बीजेपी लक्ष्य के प्रति ईमानदारी से काम करती रही।
बेपरवाह रहे राहुल गाँधी
स्मृति की सक्रियता और चुनाव की घोषणा के महज चार दिन पहले पीएम मोदी की रैली ने उनकी पोजीशन को और मजबूत कर दिया। राहुल गाँधी को जितना समय अपने क्षेत्र में देना चाहिए था उतना उन्होंने नहीं दिया। उन्होंने क्षेत्र में कुछ ख़ास काम भी नहीं कराया। राहुल अमेठी को लेकर बहुत गंभीर नहीं रहे और इसका फायदा स्मृति को मिला।
स्मृति ने जहाँ नामांकन के दिन के बाद से अमेठी नहीं छोड़ी और कहीं बाहर प्रचार तक करने नहीं गयीं, वहीं राहुल गाँधी ने इस बार अपने चुनाव क्षेत्र में सबसे कम समय दिया। स्मृति मतदान के दिन गाँव-गाँव, बूथ-बूथ घूमती रहीं जबकि राहुल एक तो आए नहीं और उनका प्रचार देख रहीं प्रियंका प्रचार का समय ख़त्म होते ही चली गयीं।
मतदान के दिन स्मृति ने कांग्रेस के समर्थन वाले गाँवों में शासन-प्रशासन का जमकर दबाव बनवाया। कई कांग्रेसी कार्यकर्ता जो बाहर से चुनाव प्रचार के लिए आए थे, वे महज शक्ल दिखाने में जुटे रहे। इसके उलट संघ और बीजेपी के कार्यकर्ता लगातार मोर्चे पर डटे रहे।
बीजेपी नेता और राजेश मसाले के मालिक के घर पर स्मृति ने डेरा डाला और वहीं से अपना प्रचार अभियान जारी रखा। गाँवों के प्रधानों से लेकर बीडीसी सदस्यों व जिला पंचायत सदस्यों को वहीं से डील किया जाता रहा। ग्राम प्रधानों को पैसा बाँटने की ख़बरों पर प्रियंका ने हल्ला तो ख़ूब मचाया पर उसकी काट के लिए कुछ ख़ास नहीं किया। प्रियंका के निजी सचिव धीरज श्रीवास्तव और अमेठी से विधान परिषद सदस्य बनाए गए दीपक सिंह की कार्यशैली को लेकर भी लोगों में ख़ासी नाराजगी रही। अमेठी के लोग बताते हैं कि ग्राम प्रधानों को पैसा बाँटने को लेकर भी कांग्रेस में मतभेद रहा। कुछ प्रभावशाली नेताओं को प्रचार से दूर रखा गया। राहुल गाँधी के प्रतिनिधि चंद्रकांत पांडे को लेकर लोगों में इस कदर ग़ुस्सा था कि रह-रह कर लोग राहुल-प्रियंका के सामने पांडे के ख़िलाफ़ बोलते रहे पर उन्हें लगातार बनाए रखा गया।
ऐसा नहीं है कि राहुल और प्रियंका को हार की आशंका नहीं थी। हालाँकि जब तक डैमेज कंट्रोल का काम शुरू हुआ, काफ़ी देर हो चुकी थी। प्रियंका गाँधी ने ख़ुद डेरा डाला। बाहर से आए नौजवानों की टीम का कहना है कि उनके साथ भी राहुल गाँधी के नाम पर अमेठी में काम-धंधा चलाने वालों ने कई बार बदसुलूकी की। प्रियंका गाँधी को केवल माला पहनवाने और जय-जयकार करने वालों के बीच ही ले जाया गया।
अमेठी में आज तक 13 चुनाव और दो उपचुनाव हुए हैं, जिसमें कांग्रेस सिर्फ़ दो बार हारी है। पहली बार 1977 में जब 2 बार के विजेता विद्याधर को हराकर जनता पार्टी के रविन्द्र प्रताप सिंह ने यह सीट अपने नाम की थी। हालाँकि 1977 के बाद अगले ही चुनाव में कांग्रेस ने दोबारा यहाँ अपनी सत्ता जमा ली। इस बार यहाँ के सांसद बने इंदिरा गाँधी के छोटे बेटे संजय गाँधी, लेकिन सांसद बनने के कुछ ही महीनों बाद संजय की एक हवाई जहाज दुर्घटना में मौत हो गयी। अगले साल, यानि 1981 में अमेठी में उप-चुनाव हुए, जिसमें उनके बड़े भाई राजीव गाँधी विजयी रहे।
राजीव गाँधी लगातार 4 बार इस सीट से जीते और 10 साल तक यहाँ के सांसद रहे। राजीव की हत्या के बाद अमेठी की सीट खाली हई और उसी साल दोबारा यहाँ उप-चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस नेता सतीश शर्मा विजयी हुए।
सतीश शर्मा अगले आम चुनाव में भी जीते लेकिन 1998 में दूसरी बार कांग्रेस को हार का मुँह देखना पड़ा। इस बार कांग्रेस को हराने वाली पार्टी थी भारतीय जनता पार्टी। बीजेपी नेता डॉ. संजय सिंह यहाँ से सांसद बने। अगले ही चुनाव में फिर यह सीट कांग्रेस को वापस मिल गयी और इस बार सोनिया गाँधी सांसद चुनी गईं। 2004 के लोकसभा चुनाव में राहुल ने जीत हासिल की। अगले चुनाव 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी अमेठी की जनता ने राहुल को चुना।