वैश्विक कोरोना महामारी दुनिया भर में भयावह जन-धन की हानि लेकर आयी है। यह महामारी चीन से शुरू होकर दुनिया के लगभग हर देश में पहुँच गयी है। यह लेख लिखे जाने तक विश्व में ज्ञात रूप से 41 लाख से अधिक लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं और क़रीब 3 लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है। भारत में 30 जनवरी 2020 को सर्वप्रथम केरल में कोरोना वायरस के पहले ज्ञात मरीज़ की पुष्टि हुई। तब से लेकर अब तक लगभग साढ़े तीन महीने में इस महामारी का प्रकोप देश के अन्य राज्यों में लगातार फैलता ही जा रहा है। देश में अब तक कुल 67 हज़ार से अधिक लोग ज्ञात रूप से कोरोना संक्रमित हैं और लगभग 2200 लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
भारत में इस महामारी के फैलाव ने देश में स्वास्थ्य और उससे जुड़ी सुविधाओं पर एक नयी बहस छेड़ दी है। क्या भारत या उसके तमाम राज्य इस तेज़ी से फैलती महामारी को रोकने में सक्षम हैं? भारत के तमाम राज्यों में अलग-अलग स्तर की स्वास्थ्य सुविधाएँ हैं। नीति आयोग, वर्ल्ड बैंक और स्वास्थ्य मंत्रालय की संयुक्त रिपोर्ट हेल्दी स्टेट्स, प्रोग्रेसिव इंडिया (2019) के अनुसार केरल में सबसे बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ हैं और उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान नीचे से सबसे ख़राब स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने वाले राज्य हैं। इस लेख में हम बिहार में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं और उसकी कोरोना से लड़ने की क्षमता का विश्लेषण कर रहे हैं।
बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएँ
बिहार मानव विकास के तमाम मानकों पर देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में से एक है। कुल जनसंख्या के अनुपात में बिहार में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी), सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), सहायक नर्स मिडवाइफरी (एएनएम) और आशा कार्यकर्ताओं की संख्या बेहद कम है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल (2019) के अनुसार राज्य में मात्र 150 सीएचसी, 1899 पीएचसी, 9949 एससी (उप केंद्र) और 89439 आशा कार्यकर्ता हैं जो कि राष्ट्रीय औसत से काफ़ी कम हैं। देश में जहाँ प्रति उप केंद्र व्यक्तियों की संख्या 819, प्रति पीएचसी व्यक्तियों की संख्या 5042 तथा प्रति सीएचसी व्यक्तियों की संख्या 23080 है, वहीं बिहार में यह अनुपात क्रमश: 1067, 5592 और 70795 है।
इसी कड़ी में देखा जाए तो प्रति सरकारी अस्पताल बिहार में 92582 व्यक्ति निर्भर हैं जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 50355 व्यक्ति है। राज्य में प्रति बिस्तर व्यक्तियों का अनुपात 9104 है जो राष्ट्रीय औसत (1818) से पाँच गुणा अधिक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार जहाँ प्रति एलोपैथी डॉक्टर मरीज़ों का अनुपात 1:1000 होना निर्धारित है वहीं भारत के संदर्भ में यह अनुपात 1:11000 तथा बिहार के लिए यह आँकड़ा 1:38000 से भी अधिक है।
इन आँकड़ों से पता चलता है कि बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएँ हाशिये पर हैं।
बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं के हाशिये पर होने का कारण खोजें तो पता चलता है कि 2019-20 में बिहार की कुल जीएसडीपी 572827 करोड़ का सिर्फ़ 9157 करोड़ यानी 1.6 फ़ीसदी ही स्वास्थ्य और उससे जुड़ी सेवाओं पर पर ख़र्च हुआ जो कि देश के अन्य राज्यों की तुलना में कम है।
कोरोना और उससे निपटने की स्थिति
ये आँकड़े बिहार में स्वास्थ्य और उससे जुड़ी सेवाओं की वास्तविकता को बयान करते हैं। पिछले कुछ दशकों से देखें तो राज्य कई बीमारियों की भयावह मार झेल रहा है जिसमें कालाजार, मलेरिया, जापानी एन्सेफ्लाइटिस, चमकी बुखार, डेंगू, टी.बी. इत्यादि प्रमुख हैं। राज्य में ये बीमारियाँ अलग-अलग समय और क्षेत्रों में तेज़ी से फैलती हैं जिससे हर साल जन और धन की हानि होती रही है। इसी तरह कोरोना महामारी भी राज्य में जमुई ज़िले को छोड़ बाक़ी सभी ज़िलों में पहुँच गयी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन सरकारों से यह अनुरोध कर रहा है कि इस महामारी को रोकने का सबसे कारगर तरीक़ा अधिक से अधिक लोगों का कोरोना जाँच करना है जिससे कोरोना पॉजिटिव लोगों को अलग-थलग कर इस महामारी को पब्लिक ट्रांसमिशन से रोका जा सके। लेकिन बिहार के सन्दर्भ में यह बात अधिक मायने नहीं रखती क्योंकि 10 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले राज्य में अब तक केवल 5 कोरोना टेस्टिंग केंद्र बनाये गये हैं - राजेंद्र मेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट (आरएमआरआई) पटना, इंदिरा गाँधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस (आईजीआईएमएस) पटना, पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (पीएमसीएच) पटना, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (डीएमसीएच) दरभंगा और श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (एसकेएमसीएच) मुज्ज़फरपुर।
हालाँकि अन्य बड़े राज्यों की तुलना में अभी तक बिहार में कोरोना मरीज़ों की संख्या बहुत कम है पर इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इन्हीं राज्यों की तुलना में बिहार में टेस्टिंग की संख्या बहुत कम है।
इसका उदाहरण यह है कि जहाँ देश में प्रति 10 लाख व्यक्तियों पर 1166 लोगों का कोरोना टेस्ट हो रहा है वहीं बिहार में यह प्रति 10 लाख लोगों पर सिर्फ़ 328 है।
लॉकडाउन और काम-धंधों के बंद होने से अन्य प्रदेशों से लौटकर आने वाले प्रवासी श्रमिकों और छात्रों के क्वॉरंटीन की समुचित व्यवस्था करना और उनका कोरोना जाँच करवाना भी बिहार के लिए एक बड़ी समस्या है। हालाँकि सरकार द्वारा बिहार से आने वाले इन प्रवासी मज़दूरों और छात्रों को उनके ज़िले के विभिन्न स्कूलों, कॉलेजों, पंचायत केंद्रों में 14 से 21 दिनों तक के लिए क्वॉरंटीन करने का प्रावधान किया जा रहा है, पर यदि ज़मीनी हक़ीक़त देखें तो विभिन्न क्वॉरंटीन केन्द्रों पर मज़दूरों के भोजन, रहने, सोने, तथा अन्य दैनिक कार्य के लिए उचित सुविधा उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती है।
लॉकडाउन के बीच एक अहम समस्या जो उभरकर सामने आ रही है वह यह कि कोरोना के अतिरिक्त जनता को अन्य आवश्यक चिकित्सकीय सुविधाएँ प्राप्त न हो पाना। ज़्यादातर जगहों पर देखा जा रहा है कि लॉकडाउन के कारण प्राइवेट चिकित्सकों ने अपने क्लिनिक/हॉस्पिटल बंद कर दिए हैं। इस कारण वे मरीज़ जो कोरोना के अतिरिक्त दूसरे रोगों से ग्रसित है उन्हें उचित स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिल पा रही हैं। ख़ासकर गर्भवती महिलाएँ, वरिष्ठ नागरिक, छोटे बच्चे।
साथ ही इस महामारी को रोकने में लगे डॉक्टरों, नर्सों, लैब में काम करने वाले विशेषज्ञों, प्रशासन और पुलिस के लोगों, सफ़ाई कर्मचारियों और आवश्यक चीजों की उपलब्धता बनाए रखने के लिए अथक काम कर रहे लोगों के स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। इन्हें पीपीई किट, सैनिटाइज़र, मास्क आदि मुफ्त उपलब्ध कराया जाना चाहिए। सरकार द्वारा यह भी प्रबंध किया जाना चाहिए कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की कोरोना टेस्टिंग हो ताकि अधिक से अधिक कोरोना संक्रमितों की पहचान की जा सके और उनको क्वॉरंटीन कर अन्य लोगों को इस महामारी की चपेट में आने से बचाया जा सके।