विजयदशमी को आरएसएस के स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक बार फिर अप्रत्यक्ष तौर पर मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या को लेकर बयान दिया है। उन्होंने कहा कि धार्मिक असंतुलन बढ़ रहा है। यह देश के लिए ख़तरा है। समुदायों की जनसंख्या के असंतुलन के कारण ही दक्षिणी सूडान, कोसोवो और उत्तरी सूडान देश अलग हुए हैं। सवाल उठता है कि क्या वास्तव में भारत में सामुदायिक जनसंख्या का असंतुलन बढ़ रहा है? क्या मुसलमानों की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है? आने वाले समय में क्या मुसलमान हिन्दुओं को पीछे छोड़कर बहुसंख्यक हो जाएंगे? क्या मुसलमान देश की अखंडता के लिए ख़तरा हैं? क्या मुसलमानों का लक्ष्य भारत को मुसलिम राष्ट्र बनाना है?
दरअसल, दक्षिणपंथी कट्टर हिन्दुत्ववादी संगठन लगातार इस तरह की अफवाहें फैलाकर हिंदुओं के मन में भय पैदा करते हैं। ये संगठन दुष्प्रचार करते हैं कि मुसलमान भारत को दारुल इस्लाम में तब्दील करना चाहते हैं। उनका लक्ष्य गजवा-ए-हिन्द है।
भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस कांग्रेस तथा अन्य सेकुलर राजनीतिक दलों पर मुसलिम तुष्टीकरण के आरोप लगाते रहे हैं। तुष्टिकरण मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुत्ववादियों का एक सुनियोजित और दीर्घकालीन एजेंडा है। ध्रुवीकरण करने के लिए हिंदुओं में भय पैदा करके मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरी जाती है। बीते कुछ सालों में इसमें ज़्यादा तेज़ी आई है। सोशल मीडिया, वाट्सऐप के जरिए 'थोड़े डराने वाले' संदेश फैलाकर हिंदुओं के सामने मुसलमानों की बढ़ती आबादी का खौफ पैदा किया जा रहा है। आजकल कथित हिंदू धर्मगुरुओं के मुसलमानों के ख़िलाफ़ जहर उगलते वीडियो सामने आ रहे हैं। धर्म संसद में मुसलमानों के संहार का खुलेआम ऐलान किया जा रहा है।
समान नागरिक संहिता की तरह आरएसएस समान जनसंख्या नीति का मुद्दा उठाता रहा है। दरअसल, आदिवासी और मुसलमानों को निजी क़ानूनों के तहत एक से ज़्यादा बीवियां रखने का अधिकार है। आरएसएस और हिंदुत्ववादी संगठनों का कहना है कि मुसलमान मर्द चार बीबियाँ रखते हैं। मुसलमान इनसे अधिक बच्चे पैदा करके अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं।
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर (1946-1973) ने 23 अगस्त 1972 को दैनिक 'द मदरलैंड' के संपादक के.आर. मलकानी से एक इंटरव्यू में कहा था, "चार पत्नियाँ रखने के अधिकार से मुसलिम आबादी गैर- आनुपातिक तरीके से बढ़ रही है। मेरे विचार से यह नकारात्मक नजरिया है।" गुजरात (2002) में मुसलमानों के नरसंहार के बाद राहत शिविर उपलब्ध कराने के सवाल पर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, "हम पाँच, हमारे पच्चीस के लिए हमें क्या करना चाहिए!" उनका आशय था कि एक मुसलिम मर्द अपनी चार बीबियों से पच्चीस बच्चे पैदा करता है। यही बातें प्रवीण तोगड़िया और दत्तात्रेय होसबोले (2013) आदि दोहराते रहे हैं।
2014 का चुनाव जीतकर सत्ता में आने के बाद भाजपा-संघ ने इस नैरेटिव को अधिक आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाया। खासकर चुनावों के समय हिन्दुओं में मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या का खौफ पैदा करने के लिए अमर्यादित, आपत्तिजनक और अश्लील भाषा का इस्तेमाल किया जाता है।
भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने 2017 में एक जनसभा में कहा, “चार बीवियों और 40 बच्चे वाले इस देश में जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं।” 2018 में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा, “देश की बढ़ती आबादी, खासकर मुसलमानों की, सामाजिक ताने-बाने, सामाजिक समरसता और देश के विकास के लिए ख़तरा है।” इतना ही नहीं, साक्षी महाराज और साध्वी ऋतंभरा जैसे कथित राजनीतिक साधु संत हिंदू महिलाओं को तीन और चार बच्चे पैदा करने की सलाह भी देते हैं। भाषणों के अतिरिक्त इस नैरेटिव को गाढ़ा करने के लिए 2019 में दो बार भाजपा सांसद क्रमशः राकेश सिन्हा और अजय भट्ट संसद में जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्राइवेट बिल लेकर आए।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वास्तव में मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है? क्या मुसलिम आबादी हिंदुओं से आगे निकल जाएगी? यह सही है कि मुसलमानों की आबादी 1951 में 9.8 फीसदी से 60 साल में बढ़कर 2011 में 14.2 फीसदी हो गई। दूसरी तरफ हिंदुओं की आबादी 84 फीसदी से घटकर 79.8 फ़ीसदी हो गई। इसका मतलब है कि मुसलमानों की आबादी 4 फ़ीसदी बढ़ने में 60 साल लगे। जाहिर है कि 40 फीसदी बढ़ने में 600 साल लगेंगे। यह भी तभी संभव है जब मुसलिम आबादी में लगातार समान रूप से वृद्धि हो। जबकि ऐसा कभी संभव ही नहीं है।
दरअसल, पिछले दशकों में मुसलिम महिला प्रजनन दर में तेजी से गिरावट आई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंकड़े इसके गवाह हैं। एनएफएचएस-1 (1992-93) में मुसलिम औरतों की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 4.4 और हिंदू औरतों की टीएफआर 3.3 थी। एनएफएचएस-2 (1998 -99) में मुसलमानों की टीएफआर 3.6 और हिंदुओं की 2.8 पर आ गई। 2005-06 में आए एनएफएचएस-3 के आंकड़ों के अनुसार मुसलमानों की टीएफआर 3.4 और हिंदुओं की 2.6 रह गयी। जबकि 2014-15 में हुए एनएफएचएस-4 में मुसलमानों के टीएफआर में बड़ी गिरावट आई। 0.8 अंक घटकर यह 2.6 रह गई। जबकि हिंदुओं की टीएफआर 0.5 घटकर 2.1 हो गई। अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर में वरिष्ठ शोधकर्ता स्टेफनी क्रेमर (2021) के अनुसार, “पिछले पच्चीस वर्षों में यह पहली बार हुआ है जब मुसलमान महिलाओं की प्रजनन दर कम होकर प्रति महिला दो बच्चों के क़रीब पहुँची है।”
इसी तरह से मुसलमानों के बहुसंख्यक होने की संभावना का अध्ययन करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर दिनेश सिंह और के.आर. मंगलम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अजय कुमार ने एक गणितीय मॉडल के ज़रिए निष्कर्ष दिया है कि मुसलिम आबादी कभी भी हिंदू आबादी से आगे नहीं जा सकती। वस्तुतः दोनों की जनसंख्या में यह फर्क कभी भी शून्य नहीं हो सकता। (देखें- वाई.सी. कुरैशी, जनसंख्या का मिथक, पृष्ठ 346-351)
दरअसल, जनसंख्या वृद्धि का संबंध अशिक्षा और गरीबी से है, किसी धर्म या मजहब से नहीं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (2005-06) के अनुसार मुसलिम समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा और हाशिए पर है। जागरूकता की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता के कारण मुसलिम समुदाय की वृद्धि दर अधिक है। जैसे-जैसे शिक्षा और जागरूकता बढ़ रही है, मुसलिम महिलाओं की प्रजनन दर घट रही है।
1995 के बाद 2020 में यानी 25 वर्ष बाद सभी समुदायों में मुसलिम महिलाओं की प्रजनन दर में सबसे तेज गिरावट दर्ज हुई है। परिणामस्वरूप उनकी जनसंख्या वृद्धि दर भी कम हुई है।
दरअसल, मुसलमानों की तीव्र जनसंख्या वृद्धि की बात केवल एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा है। इसके जरिए भय, अविश्वास और आशंका पैदा करके हिन्दुओं का ध्रुवीकरण किया जा रहा है। यह राजनैतिक सत्ता हथियाने की एक साज़िश है। दक्षिणपंथी हिंदुत्व की राजनीति को इससे जीत ज़रूर मिल रही है, लेकिन समाज को इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ रही है। पारस्परिक सामाजिक सौहार्द और भरोसा टूट रहा है। मुश्किल यह है कि राजनीतिक एजेंडे के लिए पैदा किए जा रहे इस विभाजन को पाटने में सदियाँ लग जाएँगी। इसका खामियाजा आम हिंदू मुसलमान को उठाना पड़ेगा। सत्ता में बैठे लोग जेड सुरक्षा में होते हैं लेकिन समाज आपसी भाईचारे और विश्वास पर ही चलता है। अगर आपसी भरोसा और सौहार्द टूटेगा तो राष्ट्र और संस्कृति दोनों के लिए ख़तरनाक होगा।